दिल्ली के चांदनी चौक की नर्तकी फरजाना से बेगम समरू बनने की कथा
लेखक ने उस कालखंड को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास किया है। बेगम समरू समेत तत्कालीन कई प्रमुख किरदारों को करीब से जानने का मौका देता यह उपन्यास इतिहास के छात्रों के लिए भी उपयोगी है।
अरुण सिंह। बेगम समरू ने 18वीं सदी के उत्तरार्ध के उथल-पुथल भरे दौर में मेरठ के करीब स्थित अपनी सरधना रियासत का बड़ी कुशलता से संचालन किया था। लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने अपने उपन्यास 'बेगम समरू का सच' में दिल्ली के चांदनी चौक की नर्तकी फरजाना के बेगम समरू बनने की कहानी बड़े ही दिलचस्प तरीके से पेश की है।
समरू साहब कहलाने वाले जर्मन योद्धा रेनहार्ट सोंब्रे दिल्ली में पहली मुलाकात में ही फरजाना को अपना दिल दे बैठे थे। दोनों की उम्र में बड़ा अंतर था, लेकिन इश्क परवान चढ़ा और फरजाना एक दिन बेगम समरू बन गईं। सोंब्रे की बहादुरी से खुश होकर मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने उन्हें सरधना की जागीर सौंप दी थी। सोंब्रे साहब के असामयिक निधन से फरजाना पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन वह टूटी नहीं। उन्होने अपनी सुंदरता, शौर्य और कूटनीति से पांच दशक से भी ज्यादा समय तक सरधना पर राज किया।
यह वह दौर था, जब मुगल सल्तनत दिल्ली के आसपास सीमित होकर रह गई थी और बंगाल को अपने नियंत्रण में लेने के बाद अंग्रेज उत्तर भारत की ओर बढ़ रहे थे। पानीपत के तीसरे युद्ध (1761) में अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली से बुरी तरह पराजित हुए मराठा फिर अपना खोया हुआ गौरव हासिल कर रहे थे। जाट, राजपूत और सिख भी अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावी हो रहे थे। ऐसे वक्त में अपनी जागीर को बचाए-बनाए रखने में बेगम ने व्यावहारिकता को अधिक महत्व दिया। अंग्रेजों से कूटनीतिक संबंध बनाकर रखे और मुगल बादशाह शाह आलम की भी कई मौकों पर मदद की।
लेखक ने उस कालखंड को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास किया है। बेगम समरू समेत तत्कालीन कई प्रमुख किरदारों को करीब से जानने का मौका देता यह उपन्यास इतिहास के छात्रों के लिए भी उपयोगी है।
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पुस्तक : बेगम समरू का सच
लेखक : राजगोपाल सिंह वर्मा
मूल्य : 300 रुपये
प्रकाशक : संवाद प्रकाशन