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पानी के जुगाड़ मे गुजर रहा बचपन

जागरण संवाददाता, बाहरी दिल्ली : गहरे निचले इलाको की बेतरतीब बसी बस्तियो की संकरी गलिया

By Edited By: Updated: Wed, 07 Feb 2018 07:39 PM (IST)
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पानी के जुगाड़ मे गुजर रहा बचपन
जागरण संवाददाता, बाहरी दिल्ली : गहरे निचले इलाको की बेतरतीब बसी बस्तियो की संकरी गलियो में अ‌र्द्धनग्न बदन और नंगे पैर पानी के सरकारी टैकर के पीछे दौड़ते बच्चे सरकार के उन दावो को ठेंगा दिखाते है जिसके तहत घर-घर पानी पहुंचाने के दावे किए जाते है। स्कूल जाने से पहले घर में दो बाल्टी पानी का इंतजाम करने की जिम्मेदारी ज्यादातर परिवारो में इन्ही बच्चो पर है। पानी न मिले तो कई बार ये स्कूल भी नही जा पाते है। ऐसे में सभी को शिक्षित करने का सरकार का दावा भी खोखला ही नजर आता है। चुनावी मौके पर घोषणाओ की झड़ी लगने के बावजूद बदतर हालात मे जीवनयापन कर रहे इन कॉलोनियो के लाखो मतदाता चुनावो के बीतते ही फिर से खुद को ठगा पाते है। अकेले बवाना विधानसभा क्षेत्र की ही दर्जनो बस्तियो में सात-आठ साल पहले डाली गई पाइप लाइनो में जलापूर्ति नही हो पाई है। हाल ही में संपन्न हुए उपचुनाव मे दिल्ली सरकार के मुखिया ने अपने मंत्रियो के साथ लगभग हर बस्ती में जाकर तुरत जलापूर्ति करने की घोषणा कर दी, जो पूर्व के वर्षो में कांग्रेस सरकार की ओर से भी कई बार की गई थी। हालात वही ढाक के तीन पात। दीप विहार, प्रहलाद विहार फेस एक और दो, कैलाश विहार, पंसाली और पप्पू कॉलोनी में पाइप लाइनो की उपलब्धता के बावजूद जलापूर्ति न होने से सामाजिक वातावरण भी दूषित हो रहा है। संकरी गलियां होने के कारण बस्तियो के बाहर दूर-दूर टैकर खड़े होने से बार-बार बच्चो को देखने भेजा जाता है। अभिभावको के दिहाड़ी मजदूरी या नौकरी करने के कारण दिनभर घर से बाहर होने के कारण ही बच्चो को भारी मशक्कत कर इन दायित्वो को निभाना पड़ता है। बूढ़े मां-बाप के साथ रह रहे कामकाजी दंपती को पानी के लिए केवल बच्चो का ही एकमात्र सहारा होता है। कॉलोनियो के भीतरी हिस्सो तक टैकर आने की सूचना मिलते ही बर्तन लेकर दौड़कर लाइन में लगे अधिकतर बच्चे टैकर खाली होने के कारण रुआंसे घर लौट जाते है या फिर किसी दूसरे छोर पर आने वाले टैकर की जद्दोजहद मे रहते है। किसी-किसी को कुछ पानी मिल भी जाता है वह भी पूरे कुनबे के लिए अपर्याप्त होता है। कई बार तो रसोई में खाना बनाने की ही पूर्ति हो पाती है। सरकार भी मानती है कि एक आम परिवार का महीने भर का खर्च 20 हजार लीटर पानी है, जिसे मुफ्त भी किया गया है। बस्तियो के एक परिवार का औसत खर्च उसकी तुलना में आधे से भी आधा पांच हजार लीटर माना जाए वह भी मिलने की गारंटी नही। एक परिवार का प्रतिदिन का सौ लीटर पानी का जुगाड़ कर पाना इन नौनिहालो के लिए कितना नामुमकिन है, शायद ऊपर बैठे कर्णधार कभी समझ पाएं। पानी के अभाव मे मुंह अंधेरे शौच से निवृला होने के लिए कीकरो व कंटीले रास्तो भरे जंगल में जाना पड़ता है। कई-कई दिन बिना नहाए और मैले-कुचैले कपड़ो के कारण अध्यापको की लताड़ से बचने के लिए बच्चे स्कूल ही नही जाते। कई किलोमीटर की दूरी पर गांव की सरकारी राशन की दुकान पर बार-बार राशन की उपलब्धता की जानकारी लेने के लिए चक्कर लगाने और नन्हे भाई बहनो के पेट भरने की फिक्र में आंगनवाड़ी से मिलने वाले अपर्याप्त भोजन का जुगाड़ करने के लिए भी आंगनवाड़ीकर्मियो की चाकरी करनी पड़ती है तब कही जाकर इन्हे रोटी नसीब होती है। स्थानीय लोग भी मानते है कि बस्तियो के बच्चो की प्रतिभा साधन संसाधन जुटाने मे ही दब कर रह जाती है। सरकारी सुविधाओ की लंबी कतारो में मौसम की मार झेलकर परिवारो की अधिकांश जरूरतें पूरी करने में अपनी पढ़ाई तक पूरी नही कर पाते। दस-बारह साल तक के बच्चे पानी से भरे भारी भारी बर्तन पीठ और सिर पर लादकर जब चलते है तब पता चलता है कि उनकी क्षमताओ का कितना बेजा उपयोग हो रहा है।
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