World Heritage Day 2022: विरासत को अतीत के अंधेरों से वर्तमान के उजाले में चमकाने में जुटीं स्वावलंबी महिलाएं
World Heritage Day 2022 लुप्त होती विरासत को सहेजना और संवारना आसान काम नहीं। चाहे सदियों पुरानी संस्कृति के चिन्ह ढूंढऩे में उम्र गुजर जाए चाहे इतिहास के सुबूत जुटाने में दर-दर भटकना पड़े विरासत बचाने वाली महिलाओं की लगन कम नहीं होती।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 18 Apr 2022 10:13 AM (IST)
यशा माथुर। World Heritage Day 2022 कला महिलाओं की रग में बसी होती है। रचनात्मक होना उनका विशेष गुण है। इसी के चलते वे जहां कलात्मक चीजें देखती हैं, रुककर उसे निहारती हैं और सोचती हैं ऐसा क्या किया जाए जिससे अपनी विरासत को लुप्त होने से बचाया जा सके। विश्व विरासत दिवस पर हम उन महिलाओं से रूबरू हो रहे हैं, जो स्वावलंबन के शिखर पर हैं और अपने मिशन में जुटकर विरासत संरक्षित करने में अमूल्य योगदान दे रही हैं।
इतिहास व संस्कृति का दर्पण हैं स्मारक : गार्गी एक जानी-मानी ट्रैवल फोटोग्राफर हैं। वह पति मनीष कुमार झा के साथ भारत की प्रचुर विरासत को बचाने का उद्देश्य लेकर आगे बढ़ रही हैं। वह अलग-अलग कोण से देश के स्मारकों के चित्र खींचती हैं और इंटरनेट मीडिया पर उन्हें डालकर लोगों व सरकारों का ध्यान आकर्षित करती हैं। इंजीनियर गार्गी ने शादी के बाद जब फोटोग्राफी सीखी तो महसूस किया कि उन जगहों को देखा जाना चाहिए, जिनकी वास्तुकला और इतिहास लोगों को आकर्षित कर सकता है। तब उन्होंने ब्लाग लिखना शुरू किया और रिसर्च करके घूमने जाने लगीं ताकि जो जगहें मशहूर नहीं भी हैं उनको देखा और समझा जा सके। इस क्षेत्र में वर्षों से काम कर रहीं गार्गी कहती हैं, विरासत बचााने की कवायद की शुरुआत तो घूमते-घूमते हुई। हमें लगा कि आज की तारीख में हमारी जो विरासत बची हुई हैं, उन्हें फिर से बनाना नामुमकिन है। बहुत सी महत्वपूर्ण सूचनाएं गुम हो गई हैं। दूसरे, जो हमारे स्मारक उस जगह, काल के इतिहास और संस्कृति के दर्पण भी हैं। वे हमें उस काल की स्थितियों के बारे में बताते हैं। पर्यटन की दृष्टि से कई लोगों को स्मारक देखने जाना अच्छा नहीं लगता है, क्योंकि ये बहुत खूबसूरत नहीं होते। इनकी सूचनाएं भी कम हैं और इनके संरक्षण की कोशिशें नहीं हुई हैं तो हमने सोचा कि हम इस दिशा में प्रयास करेंगे।
गर्व होता है इतिहास के नमूने देखकर : ट्रैवल फोटोग्राफर व इंजीनियर गार्गी मनीष ने बताया कि जब मैं अपनी विरासत के नमूनों को देखती हूं तो मुझे इन पर गर्व महसूस होता है कि हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध रही है। स्मारक उस समय की कला के प्रतिबिंब होने के साथ तत्कालीन जीवनशैली को भी दर्शते हैं। ताजमहल के बारे में तो दुनिया जानती है, लेकिन अभी भी हमारे देश में बहुत से स्मारक ऐसे हैं जिन्हें कोई जानता तक नहीं। हमने सोचा कि आजकल इंटरनेट मीडिया का जमाना है और हम खूबसूरत चित्रों के जरिए इन्हें लोगों के सामने लाएंगे तो उन्हें भी लगेगा कि हमें इन्हें देखना चाहिए। जब लोग आने लगते हैं तो सरकार का भी ध्यान जाता है। कई स्मारकों को तो सरकार संरक्षित कर रही है, लेकिन वास्तुकला के कई अद्भुत नमूने संरक्षण के प्रयास से छूटे हुए हैं। हमारा उद्देश्य इन्हें ही सामने लाना है। इंटरनेट मीडिया पर लोग जल्दी आकर्षित होते हैं, जैसे पिछले दिनों हमने बिहार के रोहतासगढ़ के किले की बहुत फोटोग्राफी की, डाक्यूमेंट्रीज, वीडियो बनाए तो अब वहां स्मारक को बचाने और पर्यटन बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं।
नई पीढ़ी भी समझ रही है : 77 साल की बीनो देवी ने मणिपुर में पांच दशक से भी ज्यादा समय से लीबा नामक टेक्सटाइल आर्ट को संजोकर रखा है। उनके बनाए ऊनी जूते न सिर्फ भारत, बल्कि दुनियाभर में मशहूर हैं। इस साल उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया है। भारत की नष्ट होती विरासतों को स्थानीय महिलाओं ने तो संवारकर रखा ही है, फैशन डिजाइनर्स भी लुप्त होते प्रिंट्स और टेक्सटाइल्स को नए डिजाइन में पेशकर न केवल विरासत संजो रहे हैं, बल्कि इनके लिए नया बाजार भी बना रहे हैं। बाजीराव मस्तानी फिल्म में परंपरागत पोशाकों में अपनी कलात्मकता का परिचय देने वाली फैशन डिजाइनर अंजु मोदी इतिहास को फैशन में संजो लेना चाहती हैं। इसके पीछे उनका उद्देश्य न केवल अपनी संस्कृति को सभी के सामने नए अवतार में लाना है, बल्कि वह नई पीढ़ी का भी परंपरा से परिचय करवाना चाहती हैं। वह कहती हैं, मैं इतिहास से इतनी प्रभावित हूं तो सोचती हूं कि आज की डिजाइनर होने के नाते कैसे परंपरा को आगे लाऊं? कैसे अपनी सोच को डिजाइन में लाऊं कि फैशन गारमेंट बनें, खूबसूरत लगें, लोगों के मन को भाएं और आज की जेनरेशन उसे पहनकर गौरवान्वित महसूस करे। इससे हमारी संस्कृति आगे बढ़ रही है और नई पीढ़ी भी समझ रही है अपनी विरासत को।
लद्दाखी खाने को लुप्त नहीं होने देंगे : लद्दाख की निल्जा वांग्मो लद्दाख के परंपरागत व्यजंनों को लुप्त होने से बचाने की कोशिश कर रही हैं। उनका आल्ची किचन रेस्टोरेंट लद्दाखी व्यंजन परोसता है। आल्ची किचन से पहले लद्दाख में कोई ऐसा रेस्टोरेंट नहीं था, जो लद्दाखी खाने खिलाता हो। लद्दाख में जो भी पर्यटक आते लद्दाखी खाने के लिए पूछते, लेकिन वह उनको नहीं मिलता था। इसी को ध्यान में रखते हुए निल्जा वांग्मो ने यह काम शुरू किया। निल्जा कहती हैं, शुरुआत बहुत मुश्किल थी। मैंने और मेरी मां ने इसे शुरू किया। लद्दाख के लुप्त होते पारंपरिक खाने को बनाकर हमने परोसना शुरू किया। कभी नहीं सोचा था कि इसे इतना पसंद किया जाएगा। हालांकि शुरुआत में इस खाने को बेचने में भी काफी मुश्किलें आईं। एक बार तो रेस्टोरेंट बंद करने की नौबत भी आई, लेकिन मां ने कहा इसे चलाओ। मेरी मम्मी की सोच थी कि जो लद्दाख आए उसे लद्दाखी खाना मिले। शुरू में तो मैंने और मम्मी ने अपने हाथ से बर्तन भी धोए थे। अब मेरे इस काम में आने के बाद बहुत सारे युवा उद्यमी इस फील्ड में आ रहे हैं। उन्हें प्रेरणा मिली है। प्रादेशिक खानों की इस परंपरा को बचाने के लिए जाने-माने शेफ भी प्रयासरत हैं।
नमदा को जिंदा करने में लगी हैं : श्रीनगर की आरिफा जान ने कश्मीर के पारंपरिक गलीचे नमदा को पुनर्जीवित किया है। श्रीनगर स्थित क्राफ्ट डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (सीडीआइ) से पीजी करने के बाद उन्होंने नमदा रिवाइवल परियोजना के लिए काम किया। महिला दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ट्विटर हैंडल पर वीडियो में उन्होंने कहा था कि मैंने क्राफ्ट मैनेजमेंट किया तो पाया कि यह क्राफ्ट दम तोड़ रहा है। मैंने तभी ठान लिया कि मुझे कश्मीर के लिए यही काम करना है। यही सोचकर रिवाइवल आफ नमदा प्रोजेक्ट शुरू किया। इस विरासत को संभालने में अपने योगदान के लिए आरिफा को पिछले दिनों राष्ट्रपति द्वारा नारी शक्ति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने पांच लोगों के साथ नमदे का काम करना शुरू किया और आज कई महिलाएं व पुरुष उनके साथ काम कर रहे हैं।
आरिफा ने आरी कढ़ाई और पश्मीना का काम करने वाली 28 महिलाओं का समूह बनाया और यह काम भी शुरू किया। इसी प्रकार पहाड़ी क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले का रूमाल काफी मशहूर है। हालांकि 16वीं शताब्दी से भी पुरानी चंबा रूमाल की हस्तशिल्प कला अब विलुप्त होने की कगार पर है। चंबा के रूमाल को वहां के संपन्न परिवार जहां बेटी की शादी में दिया करते थे, वहीं ब्रिटिश अधिकारियों व पड़ोसी रियासतों के राजाओं को भी इन्हें उपहार के रूप में दिया जाता था। इस विरासत को मां दुर्गा स्वयं सहायता समूह टिकरीगढ़ की सदस्य अनीता बचाने में जुटी हैं। अनीता कहती हैं, कढ़ाई के बारीक काम एवं रूमाल के महंगे होने की वजह से चंबा के निवासी अब अपनी प्राचीन कला से मुंह मोडऩे लगे हैं। चार दशक पहले तक चंबा के प्रत्येक घर में रूमाल पर कढ़ाई करने वाले कलाकार थे, लेकिन अब इनकी संख्या बहुत कम रह गई है। इस रूमाल की सबसे बड़ी खासियत है कि कपड़े के दोनों तरफ एक जैसे ही चित्र दिखाई देते हैं। अनीता के मां दुर्गा समूह की 18 सदस्य इस कला को विलुप्त होने से बचाने में सहयोग कर रही हैं।
पुरानी दिल्ली की विरासत बचानी है : पहली महिला दास्तानगोई कलाकार फौजिया दास्तानगो ने बताया कि मैं पुरानी दिल्ली में पलकर बड़ी हुई हूं। मेरी अम्मा व नानी मुझे कहानियां सुनाती थीं और मैं उन्हें स्कूल में जाकर सुनाती थी। यह सिलसिला वहीं से शुरू हुआ। दास्तान कहने वाले पुरानी दिल्ली में रहते थे। मैंने उर्दू साहित्य पढ़ा है तो मैं इनके बारे में जानती थी। वहीं से मुझे शौक पैदा हुआ। वर्ष 2006 में मैंने दास्तानगोई का एक शो देखा तो मुझे लगा कि यही वह चीज है, जो मैं अपनी जिंदगी में करना चाहती हूं। वहीं से दास्तान कहने की शुरुआत हुई। मैंने देश-विदेश में 300 से ज्यादा शो किए हैं। वैसे इस कला के जानकार कम हैं। फिर भी अब लोग दास्तानगोई के बारे में बात करते हैं और इसमें रुचि लेते हैं।
मुझसे लोग कहते हैं कि आपने तो हमें बचपन में पहुंचा दिया। ऐसा तो हमने कहीं देखा ही नहीं था। मैं भारत की पहली महिला दास्तानगो हूं। जामा मस्जिद की सीढिय़ों पर पुरुषों की ही दास्तानगोई होती थी। उस समय महिलाएं पर्दे में रहती थीं, वे बाहर नहीं आती थीं। जब मैंने दास्तानगोई शुरू की तो लोगों ने कहा औरतें यह नहीं करतीं, लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। मैं मानती हूं कि जो काम आदमी कर सकते हैं वह औरत क्यों नहीं कर सकतीं हैं। मैं अपनी विरासत के लिए काम कर रही हूं। मुझे अपनी विरासत संजोनी है। मैं उर्दू में महाभारत, राम-सीता, राधा-कृष्ण की कहानी सुनाती हूं। यह गंगा-जमुनी तहजीब है। हम दीवाली-होली मिलकर मनाते थे। जब आपका पैशन प्रोफेशन बन जाए तो इससे अच्छी बात कोई हो नहीं सकती और मैं इस मामले में खुशनसीब हूं।
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