यही वह जगह है, जहां भगवान बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। यहीं एक राजकुमार ने सारे सुख साधन छोड़कर ज्ञान की प्राप्ति की। वैशाली को गणराज्य के रूप में 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध के जन्म से पहले 563 में स्थापित किया गया था। जैन धर्म की जड़ें भी इसी शहर से जुड़ती हैं। जैन तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्मस्थान होने की वजह से भी इस शहर को इतिहास में विशेष जगह मिली है।
आम्रपाली की चर्चा के बिना अधूरा है वैशाली
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध ने अपना आखिरी उपदेश वैशाली में ही दिया था। इस जगह उन्होंने अपने निर्वाण यानी ज्ञान की प्राप्ति की घोषणा की थी। गौतमबुद्ध ने वैशाली में आकर सबसे पहले आलारकलाम से बात की, जो उस वक्त के महान दार्शनिकों में से एक थे।ओटीटी प्लेटफॉर्म डिस्कवरी प्लस के शो एकांत में बुद्धिस्थ वैशाली के लेखक विजय सुमन बताते हैं कि वैशाली का जिक्र आम्रपाली की चर्चा के बिना अधूरा है। वह सुप्रसिद्ध गणिका थी। उनकी नृत्य कला को देखने के लिए दूसरे महाजनपदों के लोग यहां आते थे।
इससे वैशाली के व्यापार में भी काफी इजाफा होता था। वैशाली के वैभव में आम्रपाली का बहुत बड़ा परोक्ष योगदान था। यही वजह है कि लोगों ने उनको जनपथ कल्याणी का पद दिया था। उनका भगवान गौतम बुद्ध के साथ देवता और उपासिका का संबंध था।
महिलाओं के लिए मठ बनाने की दी थी अनुमति
वह भगवान बुद्ध की वाणी से इतना प्रभावित हुईं कि उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इसके बाद वह साधना में इतनी लीन हो गईं कि उन्होंने बौद्ध धर्म के परमपद अरिहंत को प्राप्त कर लिया। वैशाली के लोग आज आम्रपाली को नगरवधू के रूप में नहीं, बल्कि अरिहंत आम्रपाली के रूप में याद करते हैं।
बौद्ध इतिहास में कुटागरशाला प्रसिद्ध है। यहां गौतम बुद्ध ने अपना पांचवां वर्षावास बिताया था। यहीं उन्होंने महिलाओं के लिए पहला मठ बनाने की अनुमति दी थी। उनकी पालक माता प्रजापति गौतमी संघ की पहली भक्तिन बनीं। इसी जगह गुप्तकाल में इस जगह को स्वस्तिक के आकार में ईंटों से फिर से बनाया गया।
सम्राट अशोक भी हुए बौद्ध धर्म से प्रभावित
भगवान बुद्ध ने तीन बार इस जगह का दौरा किया और यहां काफी समय बिताया। उन्होंने वैशाली में अपना आखिरी प्रवचन भी दिया था। उनकी मृत्यु के करीब 100 साल बाद वैशाली में दूसरी बौद्ध परिषद भी हुई थी। सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी में अपने प्रसिद्ध शेर स्तंभों में से एक यहां बनवाया था, जो आज भी यहां मौजूद है। यह स्तंभ करीब 15 मीटर ऊंचा है, जो बलुआ पत्थर से बना है।
अजातशत्रु ने नष्ट कर दिया था वैशाली
गौतम बुद्ध के देहत्याग के बाद वैशाली के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है। मगर, कहा जाता है कि पड़ोसी राज मगध के राजा अजातशत्रु ने पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में वैशाली पर हमला कर दिया। इस शहर को उन्होंने तहस-नहस कर जला दिया था। इसके बाद वैशाली धीरे-धीरे अपनी महिमा, पहचान और अपनी शक्ति खोता चला गया।
ज्ञान की राजधानी थी नालंदा
अब बात करते हैं बिहार की राजधानी पटना से करीब 80 किमी दूर बसे नालंदा के बारे में। कमल के लिए नालन शब्द का इस्तेमाल होता है, जो ज्ञान का प्रतीक है। वहीं, दा का अर्थ होता है दान। इस तरह से नालंदा का अर्थ हुआ विद्या का दान देने वाला स्थान।
यह जगह इतिहास में दुनिया की सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के रूप में अपनी पहचान रखती है। यहां लोगों को इंसान बनाने की विद्या दी जाती थी। यहां 5वीं शताब्दी में दुनियाभर से पढ़ने-पढ़ाने के लिए विद्वान और विद्यार्थी आया करते थे। इसमें जापान, चीन, भूटान, तिब्बत, कोरिया, श्रीलंका, इंडोनेशिया जैसे देश शामिल हैं।
चीनी भिक्षुक व्हेनसांग के लेखों से मिली जानकारी
मुख्यरूप से यह जगह बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का केंद्र था। यहां कई मठ बने हैं, जहां भिक्षुक रहा करते थे। 6वीं शताब्दी में गुप्तवंश के शासकों का राज था। एकांत के कार्यक्रम के अनुसार, चीनी बौद्ध भिक्षुक व्हेनसांग ने इस जगह के बारे में अपनी डायरियों में बहुत लिखा था।उसने लिखा था कि जब मैं यहां आया था, तो रास्ते में एक भी जगह इतनी विशाल, सुंदर और आकर्षक नहीं मिली थी। यह विश्वविद्यालय किसी शहर की तरह दिखता था।
1871 में दोबारा खोजा गया नालंदा
इसी के आधार पर 1871 में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के संस्थापक सर एलेक्जेंडर कनिंघम ने इस जगह पर शोध की। इसके बाद दोबारा नालंदा का नाम प्रचलित हुआ। नालंदा विश्वविद्यालय की दो बार हो चुकी खुदाई में 14 हेक्टेयर की संरचना को जमीन में से खोदकर निकाला गया है।
इस दौरान यहां की सबसे महत्वपूर्ण चीज यहां की लाइब्रेरी थी, जो तीन इमारतों का कॉम्प्लेक्स थी। इनमें से एक इमारत 9 मंजिलों की थी, जिसमें सबसे पवित्र ग्रंथ रखे जाते थे। उस जमाने में वृक्षों की छाल पर लिखा जाता था, जिन्हें मैन्यूस्क्रिप्ट्स कहा जाता है। उन्हें कपड़े से बांधकर लोहे की अलमारी में रखा जाता था।कहते हैं कि करीब 12वीं शताब्दी में जब यहां से बौद्ध भिक्षुकों ने भागना शुरू किया, तो वे अपने साथ हस्तलिपियों को लेकर गए थे। उन्हीं में से कुछ तिब्बत, नेपाल, बांग्लादेश, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और दुनियाभर के संग्रहालयों में देखने को मिलते हैं, वो नालंदा के हैं।
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बहुत कठिन होती थी प्रवेश परीक्षा
दुनिया भर से आए 10 हजार से ज्यादा विद्यार्थी यहां पढ़ते थे। मगर, यह भी एक रोचक बात है कि दुनियाभर के छात्रों को पढ़ाने के लिए किस भाषा का इस्तेमाल होता था। शिक्षक और छात्र आपस में किस भाषा में बात करते थे, कैसे संवाद होता था, यह आज भी पता नहीं है।हालांकि, यह जरूर पता है कि यहां पढ़ने आने वाले छात्रों को प्रवेश परीक्षा देनी होती थी, जो बहुत कठिन होती थी। नव नालंदा महावीरा के असिस्टेंट प्रोफेसर चंद्रभूषण मिश्रा के अनुसार, द्वार पंडितों के द्वारा द्वार पर ही परीक्षा देनी पड़ती थी।इसमें बहुत ही कम लोग पास होते थे। कहते हैं व्हेनसांग भी इस परीक्षा में एक बार फेल हो गए थे। उनके बैच में 20 छात्रों ने यह परीक्षा दी थी, जिसमें से सिर्फ 13 ही पास हुए थे। दूसरी बार परीक्षा देकर पास होने के बाद व्हेनसांग को यहां पढ़ने का मौका मिला था।
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फिर ऐसे बर्बाद हुआ नालंदा विश्वविद्यालय
तुर्क विद्रोही बख्तियार खिजली ने नालंदा विश्वविद्यालय पर हमला कर उसे नष्ट कर दिया। उसने यहां की लाइब्रेरी को जला दिया। कहते हैं कि 1234-1236 के बीच बख्तियार खिलजी ने यहां की यूनिवर्सिटी को जला दिया था, जो करीब 6 महीनों तक धू-धूकर जलती रही। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि यह कितनी विशाल रही होगी।
कैसे पहुंचें
वैशाली से निकटतम हवाई अड्डा बिहार की राजधानी पटना में है। यहां से बस या टैक्सी से आसानी से पहुंचा जा सकता है। सड़क के जरिये यह कई प्रमुख शहरों वैशाली, पटना, मुजफ्फरपुर से जुड़ा हुआ है। रेल से यहां पहुंचने के लिए निकटतम रेलवे हाजीपुर है, जो वैशाली से केवल 2.5 किमी दूर है।
डिस्क्लेमरः डिस्कवरी प्लस ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुए शो ‘एकांत’ और बिहार सरकार की पर्यटन वेबसाइट से जानकारी और फोटो ली गई हैं।