1800 साल पहले ईरान के रास्ते भारत पहुंचा था Santoor, इस वजह है कहलाता है सौ तार वाली वीणा
Santoor एक प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है जिसका इस्तेमाल खासतौर पर शास्त्रीय संगीत में किया जाता है। इसकी मधुर आवाज आज भी लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है और उनके कानों में मिठास घोल देती है। यह यंत्र काफी हद तक पियानो और कॉर्डोफोन के समान होता हैं। वहीं इसमें मौजूद 100 तार की वजह से इसे सौ तार वाली वीणा भी कहा जाता है। आइए जानते हैं इसका इतिहास।
लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। संगीत जगत में न सिर्फ संगीत, बल्कि इसमें इस्तेमाल होने वाले कई वाद्य यंत्रों का भी अपना अलग महत्व होता है। मुख्य रूप से शास्त्रीय संगीत के लिए इस्तेमाल होने वाले ये सभी वाद्य यंत्र अपनी सुरीली और कानों में मिठास घोलने वाली ध्वनि से आज भी कई लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। आप में से कई लोग वीणा, सितार, तबला के बारे जानते होंगे, लेकिन क्या आपने कभी संतूर का नाम सुना है। यह एक वाद्य यंत्र है, जिसकी बेहद मीठी आवाज कानों में चाशनी घुल देती है।
हालांकि, बावजूद इसके आज भी बेहद कम लोग इसके बारे में जानते हैं। यह एक ऐसा वाद्य यंत्र है, जिसकी बनावट से लेकर इसे बजाने तक का तरीका बेहद अलग और खास है। ऐसे में आज इस आर्टिकल में हम आपको बताएंगे संतूर के इतिहास और इसकी उत्पत्ति के बारे में विस्तार से-यह भी पढ़ें- समय नहीं, बल्कि खगोलिय जानकारियां देती है यह 600 साल पुरानी घड़ी, जानें इससे जुड़ी कुछ रोचक बातें
संतूर की उत्पत्ति और खासियत
बात करें संतूर की उत्पत्ति के बारे में, जो इसे लेकर आजकल मतभेद बना हुआ है। इसकी उत्पत्ति की सटीक जानकारी आज भी विवादित बनी हुई है, लेकिन व्यापक रूप से ऐसा माना जाता है कि इस उपकरण की उत्पत्ति करीब 1800 साल पहले फारस यानी आज के ईरान में हुई थी। खुद प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में शता तंत्री वीणा का भी उल्लेख मिलता है, जो फारसी संतूर के समान 100-तार वाला वाद्ययंत्र है।
यहां से ईरान के रास्ते यह यंत्र एशिया पहुंचा। संतूर का इस्तेमाल आमतौर पर ईराक, तुर्की और अरब देशों में शास्त्रीय संगीत परंपरा के लिए किया जाता रहा है। इतना ही नहीं ग्रीस के एजियन द्वीप समूह में, यह यंत्र लोक संगीत में प्रमुख माना जाता है।
भारत के इस राज्य से है संतूर का संबंध
14वीं शताब्दी में, फारसियों द्वारा संतूर को कश्मीर घाटी में लाया गया, जिससे कश्मीरी संतूर के लिए रास्ता बना और यह पारंपरिक कश्मीरी लोक संगीत और सूफी संगीत के लिए आवश्यक बन गया। समय के साथ इस वाद्ययंत्र ने लोकप्रियता हासिल की लेकिन 20वीं सदी के मध्य तक इसे अभी भी एक लोक वाद्ययंत्र के रूप में ही माना जाता था, लेकिन बाद में भारतीय संगीत प्रतिभावान और संतूर वादक शिव कुमार शर्मा ने इस वाद्ययंत्र को हिंदुस्तानी शास्त्रीय परंपरा और विस्तार से एकल-संगीत कार्यक्रम में इसे शामिल किया। अपनी प्रतिभा और दृढ़ता के दम पर उन्होंने संतूर को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक अहम हिस्सा बना दिया ।