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Maharshi Dadhichi: लोकहित और परोपकार के लिए दान की अपनी अस्थियां, जानिए महर्षि दधीचि की कथा

Maharshi Dadhichi Story in Hindi भारत की भूमि पर कई ऐसे परोपकारी राजा और साधु-संत आदि हुए हैं जिनकी कथाएं आज भी मनुष्य मात्र को प्रेरणा देने का काम करती है। ऐसे ही एक ऋषि थे महर्षि दधीचि। वह एक ऐसे ऋषि थे जो मानव जाति के हित के लिए अपना जीवन दान देने में जरा भी नहीं हिचकिचाए। आइए पढ़ते हैं उनके परोपकार की कथा।

By Suman SainiEdited By: Suman SainiUpdated: Wed, 30 Aug 2023 01:38 PM (IST)
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Maharshi Dadhichi जानिए महर्षि दधीचि की कथा।

नई दिल्ली, अध्यात्म डेस्क। Maharshi Dadhichi: दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्याति प्राप्त महर्षि थे। कहने को तो ‘भारतीय इतिहास’ में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। महर्षि दधीचि ने उनका अहित चाहने वाले इंद्र को ही अपनी अस्थियां दान कर दीं। आइए जानते हैं कि कैसे मानव जाति के लिए महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियां दान की।

महर्षि दधीचि का परिचय

महर्षि दधीचि की माता का नाम ‘चित्ति’ और पिता का नाम ‘अथर्वा’ था। अपना संपूर्ण जीवन भगवान शिव की भक्ति में व्यतीत किया। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता थे। उनके स्वभाव की बात करें तो वह बहुत ही दयालु थे और सदा दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते थे। उन्होंने लोकहित के लिए कठोर तपस्या की। महर्षि दधीचि के तप के तेज के कारण देवराज इंद्र के मन में अनावश्यक डर पैदा हो गया था।

महर्षि की तपस्या भंग करना चाहते थे इंद्र

अपने तप और ध्यान के कारण महर्षि दधीचि के तेज से तीनों लोक आलोकित हो उठे। उधर इंद्र का तेज दिन-ब-दिन कम होता जा रहा था। जिससे इंद्रदेव को महर्षि दधीचि से ईष्या का भाव उत्पन्न होने लगा। इंद्र को लगा कि महर्षि उससे इंद्रासन छीनना चाहते हैं। तब इंद्र ने महर्षि दधीचि की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव और एक अप्सरा को उनके पास भेजा, लेकिन वे महर्षि की तपस्या भंग करने में विफल रहे। तब इन्द्र उनकी हत्या के इरादे से सेना सहित वहां पहुंचा। लेकिन उसके अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तप के अभेद्य कवच को भेद न सके और वे शांत भाव से समाधिस्थ बैठे रहे। अपने असफल प्रयासों से हारकर इन्द्र स्वर्ग लौट गए। इस घटना के कुछ समय बाद वृत्रासुर नामक राक्षस ने देवलोक पर कब्जा कर लिया और इन्द्र सहित सभी देवताओं को देवलोक से बाहर निकाल दिया।

महर्षि के परोपकार की कथा

वृत्रासुर के देवलोक पर कब्जा करने के बाद सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा जी के पास गए। तब प्रजापिता ब्रह्मा जी ने उन्हें एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक मे ‘दधीचि’ नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाकर वृत्रासुर राक्षस को मारा जा सकता है। इसलिए उनके पास जाकर उनकी अस्थियां मांगो।

परंतु देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। वह सोचने लगे कि मैंने जिनकी हत्या का प्रयास किया वह मेरी सहायता क्यों करेंगे। लेकिन इसके अलावा कोई और उपाय नहीं था। इसलिए इंद्र महर्षि दधीचि के पास पहुंचा और झिझकते हुए बोला- महात्मन, तीनों लोकों के मंगल हेतु हमें आपकी अस्थियां चाहिए। इस पर महर्षि बड़ी ही विनम्रता के साथ बोले- हे इन्द्रदेव, यदि मेरी अस्थियों से मानव और देव जाति का कुछ हित होता है मैं सहर्ष अपनी अस्थियों का दान देने के लिए तैयार हूं। इन्द्र यह सुनकर हैरत में पड़ गए।

अस्थियों से बनाया ‘तेजवान’ व्रज

महर्षि ने योग विद्या से अपना शरीर त्याग दिया। महर्षि के शरीर की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से अलग हो गए। मानव देह के स्थान पर सिर्फ़ उनकी अस्थियां ही शेष रह गईं। इन्द्र ने उन अस्थियों को श्रद्धापूर्वक नमन किया और उन्हें ले जाकर ‘तेजवान’ नामक व्रज बनाया। इसी व्रज के बल पर उन्होंने वृत्रासुर का वध कर डाला और तीनों लोक उसके भय से मुक्त हो गए। साथ ही देवताओं को भी अपना देवलोक पुनः प्राप्त हो गया।

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