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दुर्दिन में मजदूर एकता

दुनिया के कई देशों में भूमंडलीकरण के बावजूद मजदूर दिवस महज सरकारी छुट्टी का दिन है, लेकिन अंतरराष्ट्

By Edited By: Updated: Fri, 01 May 2015 05:46 AM (IST)
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दुनिया के कई देशों में भूमंडलीकरण के बावजूद मजदूर दिवस महज सरकारी छुट्टी का दिन है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के संस्थापक सदस्य भारत में नहीं। और तो और इस देश में ऐसी कोई परंपरा भी नहीं बन पाई है जिससे मजदूरों के संदेशों को दूसरे अन्य लोगों को नहीं तो कम से कम उनकी अपनी जमात तक पहुंचाया जा सके। ऐसे दुर्दिन में मजदूर दिवस पर कोई भी सार्थक बातचीत उसके सामान्य परिचय के बिना नहीं हो सकती। उन्नीसवीं शताब्दी के नवें दशक तक मजदूर अत्यंत अल्प और अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे। 1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन 'न्यू लेनार्क' ने राबर्ट ओवेन की अगुआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठाई और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया तो नारा था-आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम। उसके संघर्षो के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पाई थी कि इंग्लैंड के महिला व बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गई थी। आस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को स्टोनमेंशन और मेलबर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और मेलबर्न विश्वविद्यालय से पार्लियामेंट हाउस तक प्रदर्शन किया तो 1866 में जेनेवा कन्वेंशन में इंटरनेशनल वर्किग मेन्स असोसिएशन ने भी अपनी आवाज बुलंद की। निर्णायक घड़ी एक मई 1886 को तब आई जब अमेरिका के शिकागो में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदर्शन किया और वहां की पुलिस, नेशनल गार्ड व घुड़सवार दस्ते उनके ऐसे बर्बर दमन पर उतर आए कि शिकागो की धरती रक्त से लाल हो गई। तभी से उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। इस रूप में यह दिन श्रम को पूंजी की सबा से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को पुर्नस्थापित करने और शोषण के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाने का है। यह बताना गैरजरूरी है कि इसके मूल में कार्ल मा‌र्क्स व फ्रेडरिक एंजेल्स का वह दर्शन है, जिसमें श्रम को मानव समाज के निर्माण की मूल प्रेरणा व संचालक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है और व्यक्तिगत के बजाय उसके सामाजिक स्वरूप पर जोर दिया गया। चूंकि इस वक्त मजदूरों के साथ इस दर्शन का भी हाल बुरा हैे, इसलिए इस देश में भूमंडलीकरण के चोले में आई नव उपनिवेशवादी नीतियों के बावजूद सयाने लोग कहते हैं कि अब जब पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के एकजुट आक्रमण ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं कि मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गए। न वे श्रमिक रहे, न वह श्रमिक एकता। कहां तो कार्ल मा‌र्क्स ने 'दुनिया के मजदूरों एक हो' का नारा दिया और कहा था कि उनके पास खोने को सिर्फ बेड़ियां हैं जबकि जीतने को सारी दुनिया और कहां उन्मब पूंजी दुनिया भर में उपलक्ध सस्ते श्रम के शोषण का नया इतिहास रचने पर आमादा है। विश्वव्यापी नव औपनिवेशिक व्यवस्था के आधारस्तंभों-विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबावों के बीच अनेक पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आने वाली सरकारें भी उस उदारीकरण की राह पर चल पड़ी हैं, जो मुनाफाखोर कंपनियों को छोड़ हर किसी के लिए अनुदार है। अब ये सरकारें अपने मेहनतकश नागरिकों की अनदेखी करके आर्थिक सुधारों के नाम पर श्रमिक हितों के बंटाधार और निवेशकों को अंधाधुंध सहूलियतों वाली आर्थिक नीतियों की निर्लज्ज अनुगामिनी बन गई हैं। मोदी सरकार इसका सबसे ताजा उदाहरण है। इतना ही नहीं, श्रमिक एकता तोड़ने के लिए दुनिया भर में व्यक्तिगत उपलक्धियों के लिए ही श्रम करने पर जोर है और उस सोच को सिरे से खत्म किया जा रहा है, जो समाज के लिए श्रम करने और सामूहिकता की प्रवृबि के विकास में सहायक हो। इस आईने में देखें तो मजदूर आंदोलनों के अवसान के अंदेशे बहुत परेशान करते हैं। उनके नेतृत्व की समझदारी और रणनीतिक व सांगठनिक कौशल पर सवाल उठाने का भी मन होता है लेकिन कोई यह कहे कि इस एक पराजय से मजदूरों की एकता या उनके आंदोलनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो गई है तो उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। आज भी न तो वर्ग संघर्ष का इतिहास बदला है और न श्रम, उत्पादन व पूंजी का मूल संबंध। वर्तमान में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों की पहले से अधिक आवश्यकता है।

[लेखक कृष्ण प्रताप सिंह, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]