अपने रणबांकुरों से अपरिचित देश, लचित बरफुकन जैसे वीरों को सम्मान देने में इतने वर्ष लग गए
सरायघाट में हुए युद्ध का भारत के इतिहास में विशेष महत्व है। अहोम राज्य ने मुगल साम्राज्य की सीमा को उत्तर-पूर्व में बढ़ने नहीं दिया। इससे असम की संस्कृति बची रही। यह अफसोस की बात है कि हमें लचित बरफुकन जैसे वीरों को सम्मान देने में इतने वर्ष लग गए।
प्रकाश सिंह : देश इस समय लचित बरफुकन को याद कर रहा है। उनकी 400वीं जन्म-जयंती के उपलक्ष्य में बीते दिनों राजधानी दिल्ली में आयोजन भी हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इस आयोजन में भाग लिया। असम में 1228 से 1826 तक यानी करीब 600 वर्ष तक अहोम राज्य रहा। बरफुकन इसी के राजा चक्रध्वज सिंह के सेनापति थे। उन्होंने औरंगजेब की मुगल सेना को जिस तरह परास्त किया, वह भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से आजादी के 75 वर्ष बाद उन्हें यह सम्मान दिया जा रहा है।
यदि हम अहोम इतिहास का अवलोकन करें तो पाएंगे कि उसने विदेशी आक्रमणकारियों को बार-बार हराया। बीच-बीच में हारने के बावजूद अंततोगत्वा उन्हीं की विजय होती थी। अहोम राज्य की स्थापना सुकाफा ने 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में की थी। एडवर्ड गेट के अनुसार 1527 में मुस्लिमों ने पहली बार अहोम पर हमला किया, परंतु वे बुरी तरह हार गए। अहोम सैनिकों ने उनसे 40 घोड़े और 20 तोपें छीन लीं। एक और युद्ध तेमानी में हुआ। वहां भी अहोम विजयी हुए। यहां उन्होंने मुस्लिम सेनानायक को भी मार गिराया। 1535 में अहोम और मुस्लिमों के बीच फिर युद्ध हुआ। उसमें भी मुस्लिमों के कमांडर सहित 1500 से 2500 आक्रमणकारी मारे गए।
अहोम राज्य की बागडोर 1603 से 1641 के बीच प्रताप सिंह के हाथ में थी। वह अत्यंत योग्य और महत्वाकांक्षी राजा थे। उनके शासन में कई सड़कें बनीं, तालाब खोदे गए, पिछड़े इलाकों का विकास किया गया। उनके कार्यकाल में मुगलों ने पहली बार 1615 में असम पर आक्रमण किया। बंगाल के गवर्नर शेख कासिम के आदेश से सैयद हाकम एक बड़ी फौज लेकर गया था। उसमें करीब 10,000 सैनिक और घुड़सवार थे। भारी संख्या में पानी के जहाज भी थे। शुरू में मुगलों को कुछ सफलता मिली, परंतु बाद में अहोम सेना ने रात्रि के समय एकाएक हमला करके उन्हें करारी शिकस्त दी। इतिहासकारों ने लिखा है कि नरमुंडों का पहाड़ बना दिया गया था और आक्रमणकारियों के हाथी, घोड़े, तोप, नाव और गोला-बारूद अहोम सैनिकों ने अपने कब्जे में ले लिए थे।
बंगाल के मुगल सूबेदार मीर जुमला ने 1662 में असम पर आक्रमण किया। उसकी विशाल एवं सुसज्जित सेना के विरुद्ध अहोम टिक नहीं पाए। गुवाहाटी पर भी मुगलों का कब्जा हो गया। अहोम राजा जयध्वज सिंह को 1663 में एक शर्मनाक शांति प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा। उसके अंतर्गत उन्हें अपनी एक पुत्री को शाही हरम में भेजना पड़ा और 20 हजार तोला सोना, तीन लाख तोला चांदी और 130 हाथी मुगलों को देने पड़े। उनके उत्तराधिकारी चक्रध्वज सिंह को हार का बहुत मलाल था। उन्होंने संकल्प लिया कि वह मुगलों से बदला लेकर रहेंगे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और लचित बरफुकन को सेनापति बनाया। बरफुकन ने गुवाहाटी को फिर से जीत लिया और उसे अपना मुख्यालय बनाकर मुगलों पर आक्रमण करने लगे।
औरंगजेब को जब बरफुकन की विजय का पता चला तो उसने राजा राम सिंह के नेतृत्व में फौज भेजी। फौज में 30,000 सैनिक, 18,000 घुड़सवार और 15,000 तीरंदाज थे। इतनी बड़ी सेना का सामना करने के लिए अहोम तैयार नहीं थे। इसलिए कुछ समय बातचीत के जरिये मुगलों को उलझाने की कोशिश की, परंतु मुगलों ने ऐसी शर्तें रखीं, जो अहोम राजा को बिल्कुल स्वीकार्य नहीं थीं। बरफुकन ने कहा कि वह एक भी इंच जमीन देने के बजाय लड़ना पसंद करेंगे, परंतु वह भी जानते थे कि खुले मैदान में मुगल सेना का सामना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने शुरू में गोरिल्ला युद्ध यानी छापामार लड़ाई लड़ी। कहीं मुगल मात खा जाते थे तो कहीं अहोम सेना को क्षति होती थी। कुछ महीनों तक इस तरह लड़ाई चलती रही। बाद में 1669 में बरफुकन ने मुगल सेना का सामना किया, परंतु इसमें उनकी हार हुई और करीब एक हजार अहोम सैनिक मारे गए। इस बीच चक्रध्वज सिंह की मृत्यु हो गई और उदयदित्य सिंह अगले अहोम राजा बने।
बरफुकन ने करीब दो वर्ष का समय अहोम सेना को नए सिरे से तैयार करने में लगाया। राजा राम सिंह ने मुगल दरबार को पत्र में लिखा कि अहोम सैनिकों ने नदी के दोनों किनारों पर मोर्चाबंदी कर रखी है और केवल पानी की लड़ाई ही हो सकती है। बरफुकन ने ऐसी व्यूह रचना रची कि मुगल फौज से सामना सरायघाट में हो, जहां ब्रह्मपुत्र नदी एकदम संकरी हो जाती है। दुर्भाग्य से 1671 की इस लड़ाई के समय बरफुकन बीमार पड़ गए और युद्ध क्षेत्र में नहीं जा सके। लड़ाई में मुगलों का पलड़ा भारी होने लगा। बरफुकन को सूचना दी गई कि अहोम सैनिकों के पैर उखड़ रहे हैं। उनसे रुका नहीं गया। वह बीमारी की हालत में भी रण क्षेत्र में कूद गए। उन्होंने सिपाहियों में इतना जोश भर दिया कि पूरी बाजी ही पलट गई। अहोम सैनिकों ने नदी किनारे और नाव से मुगल सैनिकों पर तीव्र आक्रमण किया। बरफुकन के नेतृत्व में अहोम की ऐतिहासिक विजय हुई। मुगल एडमिरल मुनव्वर खां और करीब 4,000 मुगल सिपाही इस युद्ध में मारे गए। राजा राम सिंह ने लिखा कि उन्होंने इतने बहादुर सैनिक कहीं नहीं देखे। अहोम सैनिक हर काम में दक्ष थे। प्रत्येक सैनिक तीर और बंदूक भी चला सकता था और नाव भी खे सकता था। इस हार के बाद मुगलों ने असम पर विजय पाने का इरादा हमेशा के लिए छोड़ दिया।
सरायघाट में हुए युद्ध का भारत के इतिहास में विशेष महत्व है। अहोम राज्य ने मुगल साम्राज्य की सीमा को उत्तर-पूर्व में बढ़ने नहीं दिया। इससे असम की संस्कृति बची रही। यह अफसोस की बात है कि स्वतंत्र भारत में भी हमें लचित बरफुकन जैसे वीरों को सम्मान देने में इतने वर्ष लग गए। सच तो यह है कि देश के विभिन्न भागों में अभी और बहुत से वीर ऐसे हैं, जिन्हें इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला है। उनके बारे में अधिकांश देशवासी अनभिज्ञ हैं, जैसे कि जोरावर सिंह, जो अपनी सेना लेकर तिब्बत तक चले गए थे या हरि सिंह नलवा, जिन्होंने अपना दबदबा अफगानिस्तान में भी कायम कर लिया था। आखिर ऐसे वीरों के बारे में कितने भारतीय जानते हैं ?
(लेखक उप्र और असम के पूर्व महानिदेशक और ‘हमारी संस्कृति’ के अध्यक्ष हैं)