पांच राज्यों और विशेषकर यूपी के चुनाव नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विमर्श की दशा-दिशा भी तय करेंगे
यह भी संयोग है कि अपने-अपने राज्यों में तृणमूल और आप की प्रतिद्वंद्विता भाजपा से है मगर चुनावी राज्यों में उनका लक्ष्य कांग्रेस के आधार में सेंध लगाना है। ऐसे में विपक्षी एकता की दुहाई के बावजूद असल मुद्दा यही है कि कौनसी पार्टी राष्ट्रीय विपक्ष के केंद्र में होगी
राहुल वर्मा। तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव निपट चुके हैं और उत्तर प्रदेश एवं मणिपुर के लिए चुनावी प्रक्रिया जारी है। पांच राज्यों के इन चुनावों को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इनका जनादेश राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को कैसे प्रभावित करेगा? पिछले कुछ वर्षों के दौरान खासतौर से 2019 के आम चुनाव के बाद भाजपा को भी विधानसभा चुनाव जीतने में मुश्किलें आ रही हैं। दूसरी ओर मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस का वजूद लगातार सिकुड़ रहा है तो उसके लिए विधानसभा चुनावों के इस दौर में प्रतिस्पर्धा खासी कड़ी हो गई है, क्योंकि आम आदमी पार्टी यानी आप और तृणमूल कांग्रेस जैसे दल अपने विस्तार में लगे हैं। जहां आप पंजाब में खुद को सत्ता की प्रबल दावेदार के रूप में पेश कर रही है तो उत्तराखंड और गोवा में उसे अपना दायरा बढ़ने की उम्मीद है। इस बीच तृणमूल पूर्वी राज्यों विशेषकर मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय में अपना राजनीतिक आधार बढ़ाने में जुटी है। इतना ही नहीं गोवा में कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को अपने पाले में खींचकर राज्य में प्रमुख दल के रूप में उभरने के तृणमूल के अरमान परवान चढ़ रहे हैं। यह एक विचित्र संयोग है कि अपने-अपने राज्यों में तृणमूल और आप की मुख्य प्रतिद्वंद्विता भाजपा से है, परंतु इन चुनावी राज्यों में उनका लक्ष्य कांग्रेस के आधार में सेंध लगाना है। इस प्रकार बार-बार विपक्षी एकता की दुहाई देने के बावजूद असल मुद्दा यही है कि कौनसी पार्टी राष्ट्रीय विपक्ष के केंद्र में होगी। जहां आप पहले भी अपने विस्तार का दांव आजमा चुकी है, वहीं नई सियासी जमीन तलाशने की तृणमूल की यह पहली बड़ी कोशिश है। प्रतीत होता है कि 2014 और 2017 के चुनावों में मिली नाकामियों से आम आदमी पार्टी ने कुछ सबक सीखे हैं। इसी बदली हुई रणनीति के तहत वह मतदाताओं के बीच मुफ्त बिजली जैसी लोकलुभावन योजनाओं के साथ ही पाठ्यक्रमों में राष्ट्रवादी प्रतीकों की चाशनी में मध्यमार्गी-वैचारिक धरातल पेश कर रही है। इस प्रकार देखा जाए तो आप जिन वर्गों को साधने में जुटी है, वे भाजपा के पारंपरिक मतदाता हैं, जो विधानसभा चुनावों में भले ही उसे वोट दें, लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा के पाले में ही रहेंगे।
वहीं तृणमूल भाजपा के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाए हुए है। खासतौर से मोदी-शाह की जोड़ी उसके निशाने पर हैं। यह पार्टी मध्यमार्गी-वामपंथी वर्गों को लुभाने में लगी है। कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से वह गरीबों और महिलाओं जैसे तबकों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा जैसे मुद्दों पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करेगी। यानी तृणमूल का मुख्य उद्देश्य भाजपा विरोधी मतों को अपनी झोली में डालना है और इस प्रक्रिया में कांग्रेस से उसके टकराव के आसार हैं। इन दोनों पार्टियों द्वारा विस्तार के लिए अपनाई गई रणनीतियों में अंतर से भी यह स्पष्ट हो जाता है। जहां तृणमूल अग्र्रिम मोर्चे से भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व पर हमलावर है, वहीं इस मामले में आप पिछले कुछ वर्षों के दौरान नरम पड़ी है।
हालांकि इन दलों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं में कुछ अवरोध भी हैं। जैसे अगर अपने नए राजनीतिक गढ़ों में ये दल उम्मीदों से भी उम्दा प्रदर्शन करते हैं तब भी लोकसभा में उनकी सीटें सौ से कम के दायरे में ही सिमटी रहेंगी। इन दोनों पार्टियों का नेतृत्व भी एक ही नेता के इर्दगिर्द घूमता है तो उनके लिए मतदाताओं को यह समझाना मुश्किल होगा कि भाजपा और कांग्रेस जैसे दलों में भी व्यक्ति केंद्रित सत्ता का बोलबाला है। साथ ही व्यापक वैचारिक धरातल और एक सुपरिभाषित सामाजिक आधार जैसे पैमाने पर भी ये दल पिछड़ जाते हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इन दलों का उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य में कोई खास राजनीतिक आधार नहीं है। यहां सत्तारूढ़ भाजपा का सत्ता में लौटने के लिए संघर्षरत सपा से कड़ा मुकाबला हो रहा है। उत्तर प्रदेश के आकार को देखते हुए देश पर शासन करने की चाह रखने वाली किसी भी पार्टी के लिए यह राज्य राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। भाजपा के लिए तो कई कारणों से इसका और ज्यादा महत्व है। यहां मिली जीत उसे अपना एजेंडा आगे बढ़ाने में मददगार होगी, क्योंकि अर्थव्यवस्था से लेकर, कृषि कानूनों और 2019 के बाद से किसी बड़ी राजनीतिक जीत के अभाव में भाजपा कुछ रक्षात्मक मुद्रा में है। ऐसे में अगर भाजपा सहजता से उत्तर प्रदेश जीत जाती है तो इसके साथ ही योगी आदित्यनाथ कई वर्जनाओं को तोड़ने के साथ ही भाजपा में अगली पांत के दमदार नेता के रूप में उभरेंगे। दरअसल उत्तर प्रदेश का इतिहास यही रहा है कि पिछली सदी के छठे दशक में जीबी पंत के बाद कोई भी अन्य मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद सत्ता में वापस नहीं लौटा है। इससे पार्टी को राजनीतिक विमर्श नियंत्रित करने की क्षमता मिल जाएगी। सहयोगी दल भी संयमित रहेंगे तो विपक्षी खेमे में अकुलाहट एवं खलबली बढ़ेगी। वहीं उत्तर प्रदेश में भाजपा यदि बहुमत से दूर रह गई तो पार्टी राजनीतिक विमर्श पर नियंत्रण गंवा देगी, सहयोगी ज्यादा मोलभाव करेंगे और विपक्ष को नई ऊर्जा मिल जाएगी। इसके चलते वर्षांत में गुजरात की सत्ता में वापसी भाजपा के लिए टेढ़ी खीर बन जाएगी।
यहां प्रश्न उभरता है कि इन विधानसभा चुनावों के क्या राष्ट्रीय निहितार्थ होंगे? कांग्रेस के निरंतर पराभव ने आप और तृणमूल जैसे दलों के लिए राजनीतिक अवसर बनाए हैं कि वे ये मौके भुनाएं। ऐसे में भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने वाली मशाल थामने की यह होड़ विपक्षी खेमे में बिखराव को और बढ़ाएगी। इससे राष्ट्रीय राजनीति पर भाजपा की ताकत कुछ और समय के लिए बढ़ जाएगी। अर्थव्यवस्था में सुस्ती और छिटपुट विरोध-प्रदर्शनों से भले ही भाजपा को कुछ मुश्किलों से दो-चार होना पड़े, लेकिन चुनावों में उसकी उमंग कायम रहेगी। स्मरण रहे कि 1989 तक राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लिए कोई चुनौती नहीं थी, क्योंकि विपक्ष में बिखराव था। वहीं भाजपा के मुकाबले दूसरे स्थान पर पहुंचने के लिए कम से कम तीन प्रतिस्पर्धी हैं, जिससे भाजपा एवं दूसरे नंबर की पार्टी के बीच प्रभावी चुनावी दूरी और बढ़ेगी। ऐसे में इन विधानसभा चुनावों विशेषकर उत्तर प्रदेश के नतीजे अगले दो वर्षों में राजनीतिक विमर्श की दशा-दिशा तय करेंगे।
(लेखक नई दिल्ली स्थित सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)