अमृत काल की विदेश नीति: विदेश नीति तभी रंग लाएगी जब हम आर्थिक रूप से सक्षम होंं और अन्य देशों को पहुंचाएं मदद
विदेश नीति भारत ठान लें कि विश्व की वास्तविक चुनौतियों का सामना परिपक्व राज्य की भावना से करेंगे सामरिक अवसर नहीं खोएंगे और उस क्षितिज तक भारत को ले जाएंगे जहां आने वाली पीढ़ियों को गर्व हो कि आजाद भारत ने सचमुच विश्व व्यवस्था को बनाने में उत्कृष्ट योगदान दिया।
[ श्रीराम चौलिया ]: स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर यह स्वाभाविक है कि हम पीछे मुड़कर अनेक क्षेत्रों में देश की दिशा और प्रगति का मूल्यांकन करें और भविष्य के लिए इतिहास से सबक लें। बीते 75 वर्षों में लोकतंत्र, संघीय ढांचे, सामाजिक अवस्था, आर्थिक स्थिति और सांस्कृतिक परिवेश के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण मुद्दा विदेश नीति भी है, जिस पर हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। कोई स्वाधीन ‘राष्ट्र-राज्य’ ऐसा नहीं हो सकता, जिसका अस्तित्व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी भूमिका पर आधारित न हो। भारत आज जो भी है, वह केवल आंतरिक घटनाक्रमों के कारण ही नहीं, बल्कि विश्व में अपने दर्जे की वजह से भी है।
गुजरे 75 वर्षों की विश्व व्यवस्था में भारत किस प्रकार का किरदार निभाता रहा, इसका विवेचन हम एक प्रमुख बहस ‘आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद’ के माध्यम से कर सकते हैं। 1947 में देश जब सैकड़ों वर्षों के दासत्व से मुक्त हुआ तो हमारी प्रवृत्ति ‘उत्तर उपनिवेशवादी राज्य’ की थी। पश्चिमी साम्राज्यवाद और शोषण के सबसे पीड़ित समाज में से एक होते हुए भी हम विकासशील देशों के हितों की रक्षा करने को आतुर थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति इसी सोच से उत्पन्न हुई। महाशक्तियों के प्रति संदेह और समान दूरी एवं एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के पिछड़े देशों के संग मित्रता उस युग के सिद्धांत थे। एक गरीब और कमजोर देश होकर हमने तब नैतिक शक्ति पर अधिक जोर दिया। नेहरू की अपेक्षा थी कि सदाचार और उदारता से बेहतर विश्व का निर्माण होगा। उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गुटनिरपेक्षता गलत नीति नहीं थी, परंतु नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय तंत्र में निहित शक्ति-राजनीति को ठीक से भांपा नहीं।
पाकिस्तानी हमलावरों ने 1947-48 में जब जम्मू-कश्मीर के एक तिहाई भाग पर जबरन कब्जा कर लिया तो संयुक्त राष्ट्र में याचिका दाखिल करना और फिर उसकी अनुशंसा पर एकपक्षीय युद्धविराम घोषित करना अति आदर्शवाद या भोलापन था। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल नेहरू की इस नादानी से नाखुश थे। अगर पटेल के हाथों में विदेश नीति होती तो आज हमें गुलाम कश्मीर और सीमापार आतंकवाद परेशान नहीं कर रहे होते। पटेल के निधन के पश्चात अव्यावहारिक नीति पर आपत्ति जताने वाले नेता सरकार में रहे ही नहीं। लिहाजा नेहरू ने ‘हिमालय की भूल’ 1962 में फिर दोहराई, जब चीन ने जम्मू-कश्मीर के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र पर आक्रमण करके 43,000 वर्ग किमी क्षेत्र हथिया लिया। इस प्रकार विकासशील देशों में आपसी भाईचारे की उम्मीद पर चीन ने पानी फेरा और अपनी सैन्य श्रेष्ठता के बलबूते ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ का उदाहरण पेश किया। चीन के हाथों मिले अपमान के बाद भारत ने भू-राजनीतिक वास्तविकता को समझा और धीरे-धीरे सैन्यबल में वृद्धि करने लगा। शीतयुद्ध के दौर में गुटनिरपेक्षता को त्यागा तो नहीं गया, पर तत्कालीन महाशक्ति ‘सोवियत संघ’ के निकट जाकर इंदिरा गांधी ने 1971 में बांग्लादेश आजाद कराया और देश के दोनों छोरों पर पाकिस्तान के खतरे को दुर्बल किया। 1974 में हमने पहला परमाणु परीक्षण कर यथार्थवादी रुख का परिचय दिया, लेकिन विदेश नीति तभी रंग लाती है जब देश आर्थिक रूप से सक्षम बने और अन्य देशों की सुरक्षा और विकास की खातिर खर्च करने के लिए वित्तीय साधन जुटाए। इंदिरा गांधी के युग में भारत ने समाजवादी आर्थिक नियंत्रण और लालफीताशाही से उद्यम, प्रौद्योगिकी और विदेश व्यापार के विकास पर जो अंकुश लगाया, उससे भारी क्षति हुई। उधर 1980 से आर्थिक सुधारों के कारण चीन भारत से कई गुना अधिक शक्तिशाली हो गया। हम आज तक इस अंतर को घटा नहीं पाए हैं।
21वीं सदी में कूटनीति में सफलता पाने के लिए चार तत्वों का मिश्रण आवश्यक है-सैन्य शक्ति, सामरिक साझेदारियां, निरंतर आर्थिक वृद्धि और साफ्ट पावर को बढ़ावा देती नीति। इस लिहाज से भारत ने कुछ उपलब्धियां हासिल की हैं, पर इसमें उल्लेखनीय बदलाव तब आया जब मोदी सरकार ने अमेरिका के साथ सामरिक संबंधों में बेझिझक छलांग लगाई। इससे भारत गुटनिरपेक्षता के चंगुल से निकला और सामरिक तौर पर विश्व पटल पर खिलाड़ी बनने का दावा करने लगा। चाणक्य, कामंदक और शुक्राचार्य जैसे प्राचीन रणनीतिकारों की विरासत को पुनर्जीवित किया गया, जिसे हमने गुलामी की लंबी अवधि और स्वाधीनता के बाद कई दशकों तक भुला दिया था। वर्तमान विदेश मंत्री एस. जयशंकर के अनुसार ‘इंडिया अब भारत बन रहा है।’ इस वजह से भारत बाहरी शत्रुओं के साथ दृढ़ता से पेश आ रहा है। आज चीनी तानाशाही के मंसूबे भयावह हो गए हैं। इसे देखते हुए पश्चिम और पूर्व के कई देश चाहते हैं कि भारत लोकतांत्रिक महाशक्ति बने।
जून 2020 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता के चुनाव में भारत ने 192 देशों में से सर्वाधिक 184 मत प्राप्त करके सिद्ध किया कि आज हमारी जो साख है, वह विकासशील देशों में अव्वल है। सामरिक लचीलापन, छोटे बहुपक्षीय गठबंधन, मुक्त व्यापार संधियां, भारतीय संस्कृति और आधुनिकीकरण का दुनिया के कोने-कोने तक प्रचार की रणनीति से ही आने वाले दशकों में भारत महाशक्ति बन सकता है। अगले 25 साल देश के उत्थान में सबसे महत्वपूर्ण होंगे। विदेश नीति के मामले में अब से 2047 तक हम ठान लें कि विश्व की वास्तविक सच्चाइयों और चुनौतियों का सामना परिपक्व राज्य की भावना से करेंगे, सामरिक अवसर नहीं खोएंगे और उस क्षितिज तक भारत को ले जाएंगे, जहां आने वाली पीढ़ियों को गर्व हो कि आजाद भारत ने सचमुच विश्व व्यवस्था को बनाने में उत्कृष्ट योगदान दिया।
( लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं )