इतिहास में गुम गौरवशाली चोल राजा, राजवंशों के विस्तृत योगदान पर इतिहास की पाठ्यपुस्तकों का मौन रहना दुखद
आज कितने ऐसे विद्यार्थी शिक्षक आम या प्रबुद्ध भारतीय होंगें जिन्हें चोल राजवंश के राजाओं के नाम उनके काम उनके राज्य-विस्तार कला स्थापत्य साहित्य एवं संस्कृति आदि क्षेत्रों में उनके योगदान के बारे में समुचित जानकारी होगी? शायद बहुत कम या बिलकुल नगण्य।
प्रणय कुमार: संसद के नए भवन में राजधर्म और न्याय के साथ सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल की स्थापना ने गौरवशाली चोल राजवंश की याद दिलाने का भी काम किया है। कम से कम स्वातंत्र्योत्तर भारत की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में विषयवस्तु का चयन एवं निर्धारण इस प्रकार किया जाना चाहिए था कि वर्तमान को अतीत के गौरवशाली अध्यायों का समग्र बोध हो, ताकि भविष्य की मजबूत आधारशिला रखी जा सके। आज कितने ऐसे विद्यार्थी, शिक्षक, आम या प्रबुद्ध भारतीय होंगें, जिन्हें चोल राजवंश के राजाओं के नाम, उनके काम, उनके राज्य-विस्तार, कला, स्थापत्य, साहित्य एवं संस्कृति आदि क्षेत्रों में उनके योगदान के बारे में समुचित जानकारी होगी? शायद बहुत कम या बिलकुल नगण्य।
आज से लगभग 2300 वर्ष पहले 300 ईसा पूर्व में चोल राजवंश की स्थापना हुई थी, जिसका प्रभाव नौवीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक रहा। अशोक के शिलालेख, पाणिनि की अष्टाध्यायी, कात्यायन द्वारा रचित वार्तिक, संगम साहित्य(100-250 ई.), बौद्धग्रंथ महावंश, संस्कृत, तमिल, तेलुगु एवं कन्नड़ भाषा के अनेक अभिलेखों, उस दौर के सिक्कों, विदेशी विवरणों जैसे अनेक स्रोतों से चोलों के गौरवशाली इतिहास की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। नौवीं सदी के मध्य से विजयालय के शासनकाल (848-871 ई.) में चोलों का पुनरुत्थान हुआ।
विजयालय की वंश-परंपरा में लगभग 20 राजा हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर लगभग साढ़े चार सौ से भी अधिक वर्षों तक शासन किया। इनमें आदित्य प्रथम, परांतक प्रथम, परांतक द्वितीय, राजराज प्रथम, राजेंद्र चोल प्रथम, राजाधिराज प्रथम, कुलोत्तुंग प्रथम, विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय, राजराज द्वितीय, राजाधिराज द्वितीय, कुलोत्तुंग तृतीय, राजराज तृतीय एवं राजेंद्र चोल तृतीय आदि प्रमुख थे।
राजराज प्रथम (985-1014 ई.) एवं राजेंद्र प्रथम (1014-1044 ई.) चोल राजवंश के सबसे प्रतापी एवं पराक्रमी राजा थे। इनके शासन-काल में चोल साम्राज्य का प्रभाव एवं विस्तार दक्षिण के तमिलनाडु, आंध्र, केरल, कर्नाटक से लेकर आज के श्रीलंका, बांग्लादेश, बर्मा, वियतनाम, थाईलैंड, मालदीव, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, कंबोडिया आदि तक फैला हुआ था। उनकी नौसेना इतनी शक्तिशाली थी कि उन्होंने समस्त बंगाल की खाड़ी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। आज से लगभग 1000 वर्ष पूर्व इतनी विकसित नौसेना चोलों की सामरिक दूरदर्शिता एवं शक्ति की परिचायक है।
चोलों के विभिन्न अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इनका शासन-तंत्र सुव्यवस्थित था। राज्य का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था, जो मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। उनकी नौकरशाही सुसंगठित थी, जिसमें अधिकारियों के उच्च (पेरुंदनम्) और निम्न (शिरुदनम्) दो वर्ग थे। सुशासन की दृष्टि से संपूर्ण राज्य को अनेक मंडलों में विभाजित किया गया था। मंडल को भी कोट्टम, वलनाडु, नाडु, कुर्रम, ग्रामम् जैसी छोटी इकाइयों में बांटा गया था। नगरम् उन स्थानों की सभाएं थीं, जहां व्यापारी वर्ग प्रमुख था। ग्रामसभाओं को ‘उर’ या ‘सभा’ कहा जाता था। इन ‘सभाओं’ की कार्यकारिणी परिषद का चुनाव निर्धारित अवधि के लिए योग्यता के आधार पर किया जाता था।
उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख के अनुसार ग्राम-शासन ‘सभा’ की पांच उपसमितियों द्वारा किया जाता था। ‘सभाएं’ शासन के लिए स्वतंत्र थीं तथा उनके कामकाज में राजा का भी हस्तक्षेप नहीं के बराबर था। ‘सभाओं’ के कार्यों के संचालन के लिए अत्यंत कुशल और संविधान के नियमों की दृष्टि से संगठित और विकसित समितियों की व्यवस्था थी, जिन्हें वारियम् कहते थे। एक तरह से चोलों की शासन व्यवस्था में आज की लोकतांत्रिक एवं स्थानीय स्वायत्तशासी शासन-व्यवस्था की प्रारंभिक झलक देखने को मिलती है।
अधिकांश चोल राजा शिव के उपासक थे, परंतु वे भी अन्य हिंदू राजाओं की भांति उदार एवं सहिष्णु थे। उनके राज्य में जैन, बौद्ध आदि मतावलंबियों को भी समान अधिकार प्राप्त थे। उनके द्वारा बनवाए गए बृहदेश्वर, राजराजेश्वर, गंगईकोंड चोलपुरम आदि मंदिर स्थापत्य एवं वास्तुकला के अनुपम उदाहरण हैं। चोल कांस्य प्रतिमाओं को विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमाओं में से एक माना जाता है। तांडव नृत्य मुद्रा में नटराज की मूर्ति उनकी मूर्तिकला की उत्कृष्टता को दर्शाती है। सिंचाई के लिए चोल नरेशों ने अनेक कुएं एवं तालाब खोदवाए तथा नदियों के प्रवाह को रोककर पत्थर के बांध से घिरे जलाशय बनवाए।
इस सबके बाद भी चोल राजवंश के विस्तृत योगदान पर इतिहास की पाठ्यपुस्तकें लगभग मौन हैं। दुखद है कि हमारे विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में केवल दिल्ली केंद्रित इतिहास को पढ़ने-पढ़ाने या विदेशी आक्रांताओं के गौरव-गायन पर जोर दिया जाता है। समग्र, संपूर्ण एवं संतुलित भारतबोध के लिए आज इसकी महती एवं अविलंब आवश्यकता है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में व्यपाक परिवर्तन हो और उनमें अतीत के तमाम गौरवशाली अध्यायों, मसलन-चोल, चालुक्य, पाल, प्रतिहार, पल्लव, परमार, मैत्रक, राष्ट्रकूट, वाकाटक, कार्कोट, कलिंग, काकतीय, सातवाहन, विजयनगर, ओडेयर, अहोम और नगा आदि तमाम प्रभावशाली राज्यों एवं राजवंशों को सम्मिलित कर शासन के उनके तौर-तरीकों, अन्य राज्यों एवं देशों से उनके संबंधों, आयात-निर्यात की साझेदारियों, व्यापारिक नीतियों एवं स्थितियों, वाणिज्यिक मार्गों, सैन्य-संरचनाओं, सामरिक रणनीतियों, विजय-यात्राओं तथा कला, धर्म, समाज, साहित्य और संस्कृति आदि के प्रति उनके योगदान एवं दृष्टिकोण को विस्तारपूर्वक पढ़ा-पढ़ाया जाए।
(लेखक शिक्षाविद एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)