Prakash Parv 2022: भारतीय संस्कृति के बिखरे तिनकों को सहेजने और उसे जन-जन से जोड़ने का प्रयास
लालकिले में गुरु तेग बहादुर जी के 401वें प्रकाश पर्व पर भव्य समारोह का आयोजन वास्तव में मोदी सरकार की भारतीय संस्कृति के बिखरे तिनकों को सच्ची नीयत से सहेजने और जन-जन को उससे जोड़ने की परंपरा का हिस्सा है।
बलबीर पुंज। 'उस समय देश में मजहबी कट्टरता की आंधी आई थी। धर्म को दर्शन, विज्ञान और आत्मशोध का विषय मानने वाले हमारे हिंदुस्तान के सामने ऐसे लोग थे, जिन्होंने मजहब के नाम पर ¨हसा और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी थी। औरंगजेब के आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी ‘हिंदू दी चादर’ बनकर, चट्टान बनकर खड़े हो गए थे।’ इन शब्दों के माध्यम से गुरुवार को लालकिले पर श्री गुरु तेगबहादुर जी के 401वें प्रकाश पर्व के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के अस्तित्व को बचाने हेतु संघर्ष, असंख्य बलिदानों और लोमहर्षक इतिहास को समेट दिया।
भाई मतिदास, भाई सतिदास और भाई दयाला को निर्ममता से मौत के घाट उतारने के बाद 11 नवंबर, 1675 को आततायी औरंगजेब के निर्देश पर गुरु तेगबहादुर जी के सिर को तलवार के प्रहार से अलग कर दिया था, जिसका साक्षी लालकिले के समक्ष स्थित गुरुद्वारा शीशगंज साहिब है। गुरु साहिब का बलिदान धर्म और आस्था की रक्षा हेतु था। जब कश्मीर में जिहादी दंश ङोल रहे हिंदुओं की फरियाद लेकर वह क्रूर मुगल शासक औरंगजेब के पास पहुंचे, तब उन्हें इस्लाम स्वीकार करने या मौत चुनने का विकल्प दिया गया। गुरु तेग साहिब ने अपने तीनों अनुयायियों की नृशंस हत्या के बाद भी दृढ़ होकर अपना शीश कटाना स्वीकार किया, किंतु धर्म नहीं छोड़ा। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसका वर्णन ‘बचित्तर नाटक’ में इस प्रकार किया-‘हिंदुओं के तिलक और जनेऊ की रक्षा हेतु गुरु तेगबहादुर जी ने शीश का परित्याग कर दिया, किंतु धर्म का त्याग नहीं किया।’
नि:संदेह गुरु तेगबहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे, परंतु उन्होंने जीवनर्पयत जिस परंपरा का अनुसरण किया, वह किसी एक क्षेत्र या समुदाय के लिए समर्पित नहीं था। जिनकी रक्षा करते हुए गुरु साहिब ने सवरेत्तम बलिदान दिया, वह पंजाब के नहीं, कश्मीर के थे, हिंदू थे। इस व्यापक दृष्टि की प्रेरणा गुरु तेगबहादुर जी को सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक देव साहिब की इन पंक्तियों से मिली, ‘खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया.।’ उनके ये शब्द केवल पंजाब के नहीं, अपितु पूरे हिंदुस्तान की रक्तरंजित दास्तां कहते हैं। 1526 में भारत आने के बाद जब इस्लामी आततायी बाबर यहां की सनातन और बहुलतावादी संस्कृति को रौंद रहा था, तब यह सब देखकर बाबा नानक का कोमल मन बहुत आहत हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में, विशेषकर उत्तर भारत में यदि यहां मूल सनातन संस्कृति हिंदुओं और सिखों के रूप में जीवंत है, तो उसका एक बड़ा श्रेय गुरु परंपरा को जाता है।
वास्तव में, पंजाब में हिंदू-सिख शब्दावली कम, सरदार-मोना का उपयोग अधिक होता था, क्योंकि पंजाब में लगभग सभी गैर-मुस्लिम सदियों से स्वयं को सिख ही मानते आए हैं। हिंदू-सिख संबंध नाखून और मांस जैसे थे, जिसमें एक-दूसरे के बिना कल्पना नहीं की जा सकती थी। इस परिवार में सेंध लगाने के लिए भारतीय संस्कृति के शत्रु दशकों से सक्रिय हैं, जिसकी नींव अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाने हेतु अंग्रेजों ने डाली थी। तब हिंदू और सिखों के बीच नैसर्गिक संबंधों में दरार डालने के लिए अंग्रेजों ने आयरलैंड में जन्मे और इंपीरियल सिविल सर्विस के अधिकारी मैक्स आर्थर मैकालीफ का चुनाव किया। मैकालीफ को सुनियोजित रूप से पहले पंजाब में नियुक्त किया, जहां उन्होंने सिख पंथ अपनाया और पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का अंग्रेजी में विकृत अनुवाद करना प्रारंभ किया। कालांतर में उनकी छह खंडों में ‘द सिख रिलीजन-इट्स गुरु, स्केयर्ड राइटिंग्स एंड आथर’ नाम से पुस्तक भी आई। अंग्रेज कितने कुटिल थे, इसका उल्लेख इतिहासकार और जाने-माने लेखक खुशवंत सिंह ने मैकालीफ की पुस्तक के 1989 संस्करण की प्रस्तावना में किया था। उनके अनुसार, ‘मैकालीफ को एक बेहद कठिन कार्य के लिए राजी किया गया था। उन्होंने सिविल सेवा से इस्तीफा देकर सिखों के दस गुरुओं के जीवन का विवरण संकलित और गुरुबानी के चयनित ग्रंथों का अनुवाद करने में 15 वर्ष लगाए.. इस कार्य के पीछे ब्रिटिश सरकार का भयावह उद्देश्य था।’
जैसे 1857 के कालखंड में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को तोड़ने के लिए सर सैयद अहमद खां ने अपने भाषणों और लेखन में बार-बार अंग्रेजों को मुसलमानों का सच्चा सहयोगी और ‘पीपल आफ द बुक’ कहना शुरू किया था, ठीक उसी तरह का प्रयास मैकालीफ ने भी अपने कालखंड में निरंतर किया। यह उनकी पुस्तक की सामग्री से भी स्पष्ट है। अंग्रेजों ने अपने दौर में जो कुछ किया, वह उनकी स्थापित साम्राज्यवादी नीतियों के अनुरूप था। शायद ही हममें से कुछ लोगों ने वर्ष 1962 में आई और ब्रितानी फिल्मकार डेविड लीन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लारेंस आफ अरेबिया’ देखी होगी, जो अंग्रेज सैन्य अधिकारी थामस एडवर्ड लारेंस के जीवन और सच्ची घटना पर आधारित थी। लारेंस ने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रितानी हितों की रक्षा में इस्लामी तुर्क ओटोमन साम्राज्य, जिसका तत्कालीन शासक खलीफा भी था, को परास्त करने हेतु इस्लामी अरब जगत को दो फाड़ कर दिया था। यहां लारेंस अरब बनकर ब्रितानी योजना को मूर्त दे रहे थे और काम निपटाकर इंग्लैंड चले गए। ठीक इसी तरह मैकालीफ भी हिंदू-सिखों में मनमुटाव के बीज बोकर लंदन लौट गए।
प्रधानमंत्री मोदी 26 दिसंबर को छोटे साहिबजादों के बलिदान दिवस को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा कर चुके हैं। हर भारतीय का कर्तव्य है कि वह सभी सिख गुरुओं के जीवन को जाने, समङो और उनके द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों को अंगीकार करने का प्रयास करे। हम सभी को स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या हम सिख गुरुओं द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चल रहे हैं या फिर उस विभाजनकारी औपनिवेशिक चिंतन का हिस्सा बन गए हैं, जिसे अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य को अक्षत रखने हेतु स्थापित किया था? वास्तव में इसी प्रश्न के उत्तर में सुखी और समृद्ध भारत की कल्पना निहित है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)