जागरण संपादकीय: विधानसभा चुनाव नतीजों के संकेत, शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने पार्टी के वजूद को बचाने की चुनौती
महाराष्ट्र में यह तय है कि नतीजों के आधार पर अजीत पवार की पार्टी असली एनसीपी होने का दावा करेगी तो एकनाथ शिंदे की शिवसेना भी खुद को असली और बाला साहब ठाकरे की असल उत्तराधिकारी बताएगी। ऐसे में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने अपनी पार्टियों के वजूद को बचाए रखने का संघर्ष होगा। सत्तावादी राजनीति में विधायक लंबे समय तक सत्ता से दूर नहीं रह सकते।
उमेश चतुर्वेदी। राजनीतिक लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा महत्व अगर किसी राज्य का है तो वह है महाराष्ट्र। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के मुकाबले 48 सीटों के साथ दूसरा बड़ा राज्य महाराष्ट्र है। मराठी मानुष ने जो जनादेश दिया है, उसका असर देश की राजनीति पर तो पड़ेगा ही, अर्थनीति पर भी पड़ेगा, क्योंकि महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है।
भाजपा यह कह सकती है कि उसका शासन देश की राजनीतिक राजधानी के साथ आर्थिक राजधानी पर भी रहने वाला है। यह किसी से छिपा नहीं कि हर दल यह चाहता है कि उसका दिल्ली के साथ मुंबई पर भी नियंत्रण रहे। महाराष्ट्र के नतीजों ने इस धारण को ध्वस्त किया कि शरद पवार के बिना महाराष्ट्र की सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती।
नतीजे बता रहे हैं कि शरद पवार की चाणक्य नेता वाली छवि बेअसर हो चुकी है और उनके दल का भविष्य उज्ज्वल नहीं। यह साफ दिख रहा है कि गत लोकसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन से भाजपा की अगुआई वाली महायुति ने सबक लिया और खुद में सुधार किया। भाजपा ने अपने पारंपरिक गढ़ विदर्भ पर फोकस तो किया ही, गैर मराठा वोटरों पर भी ध्यान लगाया। उसने मराठवाड़ा में शिवसेना (शिंदे) और अजीत पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी पर भरोसा जताया।
महाराष्ट्र के नतीजों का असर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर भी पड़ सकता है। लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में 13 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी थी। इसके चलते पार्टी में गुरूर दिखने लगा था। विधानसभा चुनावों के लिए सीट बंटवारे में पार्टी खुद को सबसे आगे रखने और सहयोगी दलों को पीछे रखने की रणनीति पर काम करने लगी। महाराष्ट्र में नतीजे आने से पहले ही मुख्यमंत्री पद को लेकर जिस तरह खींचतान सामने आई, उससे स्पष्ट हुआ कि कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं है। इसका असर चुनाव नतीजों पर साफ नजर आ रहा है।
महाराष्ट्र की तुलना में झारखंड में हेमंत सोरेन ने कांग्रेस को सहयोगी की भूमिका में रखा तो वहां के नतीजे अलग तरीके से आए। साफ है कि कांग्रेस जहां खुद का वर्चस्व रखती है, वहां उसे मुंह की खानी पड़ रही है, लेकिन जहां वह सहयोगी दलों की बैसाखी पर आगे बढ़ने की कोशिश करती है, वहां उसे फायदा होता है। आने वाले दिनों में पार्टी को इस नजरिये से सोचना होगा।
महाराष्ट्र के नतीजों से दिल्ली में कुछ महीने बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी उत्साह में होगी। कांग्रेस पर जहां उसके साथ जाने का दबाव बन सकता है, वहीं आम आदमी पार्टी कुछ और मुफ्त के वादों के साथ मैदान में मजबूती से उतर सकती है। महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नतीजों का असर दिल्ली के साथ-साथ बिहार और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा।
महाराष्ट्र में यह तय है कि नतीजों के आधार पर अजीत पवार की पार्टी असली एनसीपी होने का दावा करेगी तो एकनाथ शिंदे की शिवसेना भी खुद को असली और बाला साहब ठाकरे की असल उत्तराधिकारी बताएगी। ऐसे में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने अपनी पार्टियों के वजूद को बचाए रखने का संघर्ष होगा। सत्तावादी राजनीति में विधायक लंबे समय तक सत्ता से दूर नहीं रह सकते। आने वाले दिनों में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के विधायक टूटें तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
झारखंड के नतीजों ने एक रिकार्ड बनाया है। राज्य के गठन के बाद कोई भी सरकार दोबारा सत्ता में नहीं आ पाई थी। हेमंत सोरेन यह रिकार्ड बनाने में कामयाब रहे। इससे उनका राजनीतिक कद बढ़ेगा। इन नतीजों ने साबित किया है कि उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को झारखंड की जनता ने स्वीकार नहीं किया।
भाजपा को चम्पाई सोरेन के जरिये कोल्हान में चमत्कार की उम्मीद थी, लेकिन वह कोई कमाल नहीं दिखा पाए। इसका असर उनके राजनीतिक कद पर भी पड़ेगा। भाजपा ने आदिवासी समुदाय की शख्सीयत को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाया। इसके बावजूद लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उसे आदिवासी सीटों पर पर्याप्त समर्थन न मिलना उसके लिए चिंता का विषय होगा। झारखंड में भाजपा को अपनी रणनीति पर विचार करना पड़ेगा और आदिवासी वोटरों के बीच भरोसा कायम करने के लिए सोचना पड़ेगा।
महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनावों के साथ हुए उपचुनावों में वायनाड लोकसभा सीट से प्रियंका गांधी वाड्रा की जीत संभावित थी, लेकिन महाराष्ट्र की नांदेड़ सीट उसके हाथ से निकल गई। उपचुनावों में सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों को लेकर रही। इनमें भाजपा की बढ़त का मतलब साफ है कि योगी सरकार की स्वीकृति बनी हुई है।
राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, बंगाल के विधानसभा उपचुनावों में भी सत्तारूढ़ दलों को ही जनता का समर्थन मिला। यह इसलिए मिला, क्योंकि आज के वोटरों को यह समझ है कि उपचुनावों के नतीजों से सरकारों की सेहत पर खास असर नहीं पड़ता। वास्तव में इसी कारण ज्यादातर मामलों में वे सत्ताधारी दलों के ही विधायकों को चुनते हैं, ताकि उनके इलाके की विकास गतिविधियां जारी रह सकें। इसका असर उपचुनाव नतीजों में दिख रहा है।
हां, बंगाल के बारे में कहा जा सकता है कि वहां के उपचुनावों में आरजी कर मेडिकल कालेज कांड से उपजे क्षोभ का असर नहीं दिखा, जिसकी वजह से ममता बनर्जी बैकफुट पर नजर आ रही थीं। बिहार में प्रशांत किशोर का करिश्मा नजर नहीं आया। अलबत्ता एनडीए एक बार फिर मजबूती से उभरा है। इससे राजद की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)