चीन से अभी भी सावधान रहना होगा, उसकी पुरानी करतूतों को न भूले भारत
यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर वह चीनी सेना जो दशकों से लद्दाख के भाारतीय इलाकों पर गुपचुप कब्जा कर वहां जमे रहने की आदत बना चुकी थी इस बार मई 2020 के बाद कब्जाए गए इलाकों को एक के बाद एक क्यों खाली कर रही है?
विजय क्रांति : अंततः 28 महीने के लंबे तनाव और सैनिक अधिकारियों की बातचीत के 16 दौर के बाद भारत और चीन के बीच इस पर सहमति बनी कि पूर्वी लद्दाख के गोगरा-हाट स्प्रिंग्स क्षेत्र में युद्ध की मुद्रा में डटी दोनों देशों की सेनाओं को वहां से हटा लिया जाए। ऐसा कर भी लिया गया। लद्दाख के इस क्षेत्र को पेट्रोल प्वाइंट-15 यानी ‘पीपी-15’ के नाम से जाना जाता है, जिस पर नियंत्रण को लेकर भारत और चीन की सेनाएं मई 2020 से एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं। इस सहमति का लक्ष्य दोनों ओर के सैनिकों को अपने-अपने नियंत्रण वाले इलाके में पीछे भेजना और तनाव के दौरान खड़े किए गए सैन्य ढांचे को नष्ट करके दो से चार किमी चौड़ा ऐसा क्षेत्र बनाना है, जो बफर जोन यानी असैन्य क्षेत्र का काम करे।
इसका मतलब यह नहीं कि भारत और चीन के बीच लद्दाख में चला आ रहा सैनिक तनाव अब खत्म हो गया है और अब ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का प्रीत राग शुरू हो जाएगा, क्योंकि कुछ इलाकों में चीन की आक्रामकता अभी बरकरार है। पीपी-15 को लेकर बनी सहमति से पहले भारत-चीन में गलवन घाटी, पेंगांग-त्सो और गोगरा के पीपी-17ए के तीन स्थानों पर पैदा हुए सैनिक विवादों में सहमति हो चुकी है, लेकिन इन चार स्थानों पर सहमति के बावजूद दौलत बेग ओल्डी के देपसांग और डेमचोक सेक्टर के चार्डिंग नाला जंक्शन में चीन की आक्रामक कार्रवाई से पैदा हुए विवाद को अभी हल किया जाना बाकी है।
यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर वह चीनी सेना, जो दशकों से लद्दाख के भाारतीय इलाकों पर गुपचुप कब्जा कर वहां जमे रहने की आदत बना चुकी थी, इस बार मई 2020 के बाद कब्जाए गए इलाकों को एक के बाद एक क्यों खाली कर रही है? इसका जवाब उन तीन बिंदुओं में है, जिन पर ध्यान देना जरूरी है। पहला बिंदु तो यह है कि चीनी राष्ट्रपति जैसे घरेलू राजनीतिक संकट में घिरे हुए हैं, उसमें भारत से हेकड़ी दिखाना उनके लिए बहुत महंगा सिद्ध हो सकता है। गलवन कांड और लद्दाख के दूसरे इलाकों में सैनिक कार्रवाई करते हुए शी को पूरी उम्मीद थी कि भारतीय सेना चीनी सेना के सामने टिक नहीं पाएगी और गलवन पर नियंत्रण पाने के बाद वह दौलत बेग ओल्डी के साथ सियाचिन पर भी कब्जा जमा लेंगे।
इस तरह कराकोरम हाइवे को भारतीय सेना के खतरे से स्थाई निजात दिलाकर वह चीन में हीरो बनकर उभरेंगे। इस हीरोगीरी के बाद आजीवन राष्ट्रपति बनने और सर्वोच्च नेता हो जाने का उनका सपना पूरा हो जाएगा, लेकिन चीनी कांग्रेस के आगामी अधिवेशन को करीब आते देख, उन्हें इसी में गनीमत लगी कि लद्दाख के तनाव को ठंडा करके भारत से टकराव को मुद्दा न बनने दिया जाए। शी की दूसरी चिंता यह थी कि अगर सैनिक टकराव के कारण शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ के शिखर सम्मेलन में कोई बड़ी अड़चन आती है तो उनकी भद पिटेगी।
साफ है कि भारत के साथ तनाव कम करना बहुत जरूरी हो चुका था। शी इसे लेकर पहले ही सदमें में थे कि चीन की गीदड़ भभकियों के आगे हर बार डर जाने वाली भारतीय सरकारों की परंपरा को मोदी ने पलट डाला। भारत की सेना ने न केवल चीनी सेना को लद्दाख के मोर्चे पर कड़ा जवाब दिया, बल्कि विदेश मंत्री जयशंकर ने दुनिया के लगभग हर मंच पर यह कहकर चीन की फजीहत की कि जब तक वह अपनी सेनाएं पहले की स्थिति में नहीं ले जाता, तब तक भारत उसके साथ दूसरे किसी विषय पर बात नहीं करेगा। इसके चलते चीनी राष्ट्रपति को यह चिंता भी सताने लगी थी कि उसके नेतृत्व वाले एससीओ शिखर सम्मेलन में यदि प्रधानमंत्री मोदी ने भाग लेने से मना कर दिया तो उनकी बहुत किरकिरी होगी। शायद इसीलिए 17 जुलाई की 16वीं कोर कमांडर बैठक के दो महीने बाद चीन को अचानक पीपी-15 पर सहमति बनाने की याद आई। चीन को रास्ते पर लाने वाला तीसरा बिंदु यह है कि गलवन कांड के बाद भारत ने जिस फुर्ती के साथ विश्व स्तर पर चीन के खिलाफ कूटनीतिक और सैनिक किलेबंदी शुरु की, उसने उसके लिए नई परेशानी पैदा कर दी थी।
अमेरिका की पहल पर क्वाड को फिर से सक्रिय करने के अभियान में भागीदारी के साथ भारत ने जापान, आस्ट्रेलिया, वियतनाम, दक्षिण कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और फिलिपींस समेत ऐसे कई देशों से अपने आर्थिक और सैनिक संबंध सुधारने का जो अभियान शुरु किया, उसने भी चीन की परेशानी बढ़ाई। भारत की इन देशों को नेतृत्व दे पाने की क्षमता को देखते हुए भी शी चिनफिंग को भारत का महत्व समझ आने लगा था।
पीपी-15 पर समझौता यकीनन चीन के साथ सैनिक तनाव कम करने में उपयोगी है, क्योंकि आने वाले 5-10 साल भारत के लिए आर्थिक और सैनिक शक्ति बढ़ाने के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ताजा सहमति का स्वागत करते हुए चीन की पुरानी करतूतों को भुलाना महंगा पड़ सकता है। हमारे नीति निर्माताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन के सभी फैसले तत्कालीन कठिनाई से निकलने ओर दीर्घकालीन फायदे पर केंद्रित रहते हैं और उनमें समझौतों के प्रति ईमानदारी या नैतिक जिम्मेदारी का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता। मौके के मुताबिक पुरानी संधियों को कूड़ेदान में डालना चीन की आदत है। यह एक तथ्य है कि अकेले लद्दाख मोर्चे पर आज भी चीन के 60 हजार सैनिक तैनात हैं, जो कभी भी उसकी मंशा को बदल सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)