शिवकांत शर्मा। मारीशस सरकार ने अपने हिंदू नागरिकों के लिए 22 जनवरी को दो घंटे के अवकाश की घोषणा की है, ताकि वे अयोध्या से राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा उत्सव के सीधे प्रसारण का आनंद ले सकें। मारीशस के विदेश मंत्री ने प्राण प्रतिष्ठा को वैश्विक उत्सव बताते हुए इसे वर्ष की पहली दीवाली बताया। दूसरी दीवाली हर वर्ष की तरह नवंबर को मनाई जाएगी।

विश्व में जहां-जहां प्रवासी भारतीय बसे हैं, वहां से इसी तरह के उल्लास के समाचार मिल रहे हैं। पेरिस में रथयात्रा निकाली जाने वाली है। अमेरिका और कनाडा के दर्जनों शहरों में रामध्वज के साथ कार और साइकिल यात्राएं निकलेंगी। ब्रिटेन से लेकर केन्या, तंजानिया, युगांडा, घाना, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम, थाइलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, वियतनाम, इंडोनेशिया और आस्ट्रेलिया तक 50 से अधिक देशों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों और प्राण प्रतिष्ठा के सीधे प्रसारण की तैयारियां हो रही हैं। ऐसा उत्साह आज तक किसी भारतीय आयोजन पर देखने को नहीं मिला। इसका कारण भारत और उसके प्रवासियों के बढ़ते प्रभाव के साथ-साथ रामकथा की विश्वव्यापी लोकप्रियता भी है।

राम इतिहास पुरुष हैं या केवल आस्था पुरुष? इस पर विवाद हो सकता है, पर इस पर दो मत नहीं हो सकते कि यदि वह इतिहास पुरुष हैं तो भी किसी इतिहास पुरुष की कथा ऐसी प्रभावशाली शैली में नहीं लिखी गई कि वह करोड़ों लोगों की अटूट आस्था बन जाए। यदि वह आस्था पुरुष हैं तो भी आज तक किसी आस्था पुरुष की गाथा इतनी प्रभावशाली शैली में नहीं लिखी गई कि वह करोड़ों लोगों के लिए एक जीवंत इतिहास बन जाए। डा. राममनोहर लोहिया ने लिखा था, “समाज की मानसिक ऊर्जा के संयोजन में इतिहास की तुलना में मिथक की बड़ी भूमिका होती है। मिथक वास्तविक इतिहास भले न हो, पर वह शक्ति का पुंज है।”

रामकथा का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उसके बाद भारत के हर संप्रदाय को अपनी-अपनी रामकथा रचनी पड़ी, जिसके फलस्वरूप उसके 300 से अधिक रूप बन गए और उतनी ही भाषाओं में अनुवाद भी हुए। रामकथा की इस अद्भुत शक्ति का रहस्य कदाचित उसकी उद्भावना में छिपा है। लिखने का मन बनाने के बाद आदि कवि वाल्मीकि ने सबसे पहले ऋषि नारद से पूछा कि किस पर लिखूं- ‘कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान्। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढ़व्रत:।।’ अर्थात कोई ऐसा बताइए जो आज के युग में गुणी, वीर, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, दृढ़संकल्प, प्रियदर्शन और सबका हितैषी हो?

बालकांड के इस दूसरे श्लोक से स्पष्ट है वह किसी ऐसे मानव की कथा लिखना चाहते थे जिसमें देवत्व के सारे गुण मौजूद हों। इसी बात को रखते हुए गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविता ‘भाखा ओ छंद’ में लिखा, “अब तक देवताओं पर काव्य लिखा गया है, मैं अपने काव्य में मनुष्य को अमर करूंगा।” यानी रामकथा मनुष्य में देखे गए उन मानवीय मूल्यों की कहानी है, जो मनुष्य को देवता बना सकते हैं। इसीलिए यह जन-जन की कहानी बनी है।

भारतीय जीवन के हर पहलू पर राम और उनके जीवन आदर्शों की छाप देखी जा सकती है। संबोधन से लेकर, हर्ष-शोक, विषाद-उल्लास और हताशा-विस्मय तक हर मनोभाव को अकेले राम शब्द को दोहरा कर व्यक्त किया जा सकता है। किसी अन्य देवता का ऐसा प्रभाव नहीं है। इसलिए राम तो भारतीयता के पर्याय जैसे हैं। उन्हें धर्म के संकीर्ण दायरे में बांध कर देखना सही नहीं।

बुद्ध और उनके उपदेशों के बाद भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक निर्यात रामकथा रही है। बौद्ध धर्म का प्रसार तो प्रचारकों ने किया, परंतु रामकथा मानव मन को छू लेने वाली गहराई, जीवन मूल्यों और आदर्शों के कारण लोकप्रिय हुई। इसलिए वह जहां-जहां हिंदू व्यापारी, प्रचारक और राजा गए वहां तो गई ही, पर जहां हिंदू नहीं गए वहां भी गई, जैसे कोरिया और जापान में।

रामकथा और अयोध्या की ऐतिहासिकता पर सवाल उठाने वाले इतिहासकार भूल जाते हैं कि अयोध्या भारत का एकमात्र ऐसा प्राचीन शहर था जिसके नाम पर विदेश में दो अयोध्या शहर बसे। एक थाइलैंड में और दूसरा इंडोनेशिया में। थाइलैंड की अयोध्या 13वीं सदी में राजधानी थी और सबसे बड़ा शहर। दूसरी अयोध्या इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर आठवीं सदी में मातरम् साम्राज्य की राजधानी के रूप में बसाई गई, जिसे जावाई भाषा में योग्यकर्ता कहते हैं। ये दोनों शहर थाइलैंड और इंडोनेशिया में आज भी हैं और अपने विकास, बुनियादी सुविधा, आबादी और पर्यटकों की संख्या की दृष्टि से वर्तमान विकास से पहले की भारतीय अयोध्या से कहीं बेहतर हैं। दोनों शहर दशकों से अंतरराष्ट्रीय हवाई मार्गों से जुड़े हैं और योग्यकर्ता में तो आठवीं सदी के राम के मंदिर आज भी मौजूद हैं।

अयोध्या का स्थान उन सात प्राचीन शहरों में सर्वोपरि रहा है, जिन्हें पवित्रतम तीर्थ माना जाता है। इन सातों में से अयोध्या और मथुरा का महत्व उनके राम और कृष्ण की जन्मस्थली होने और काशी का महत्व वहां शिव और ज्ञान के सतत निवास के कारण माना जाता है। परंतु आश्चर्य यह है कि पिछली कुछ सदियों में बने छोटे-छोटे मंदिरों से भरे होने के अलावा अयोध्या के उस स्थान पर कोई प्राचीन बड़ा मंदिर नहीं था, जिसे राम जन्मभूमि माना जाता है, न मथुरा के उस स्थान पर, जिसे कृष्ण जन्मभूमि माना जाता है और न ही काशी के उस क्षेत्र में, जिसे शिव का अविमुक्त क्षेत्र माना जाता है।

जिस वास्तु निर्माण कला के लिए प्राचीन भारत का नाम था, उसकी कलात्मकता और आयाम का प्रमाण देने वाले आठवीं से बारहवीं सदी या उससे पूर्व के मंदिर दक्षिण भारत, कंबोडिया और इंडोनेशिया में तो खूब हैं, पर उत्तर भारत में शायद ही कोई हो। शानदार मस्जिदें, मकबरे और मीनारें हैं, पर उनकी बराबरी के मंदिर, धर्मस्थल और विजय स्तंभ नहीं हैं। इसका कारण उनका विध्वंस किए जाने से लेकर अन्य कुछ भी रहे हों, पर इस तरह की पृष्ठभूमि में दशकों तक चले लंबे अदालती विवाद के बाद जब सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया और सरयू के तट पर राम मंदिर का निर्माण के साथ-साथ सदियों से उपेक्षित पड़ी अयोध्या का विकास शुरू हुआ तो भारत के साथ-साथ विश्व भर में उत्साह की लहर आना स्वाभाविक है। राजनीति यदि कहीं है तो इसके विरोध में है, शामिल होने में नहीं।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)