जगमोहन सिंह राजपूत। इस समय देश में चारों ओर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की चर्चा है। दैनंदिन राजनीति से हटकर देखा जाए तो अयोध्या में श्रीरामलला के भव्य मंदिर का निर्माण देश में सद्भाव, समन्वय, समरसता तथा सामाजिक और पंथक सामंजस्य को बढ़ाने का अत्यंत सजीव और सशक्त अवसर बन सकता था। राम से कौन परिचित नहीं है।

इस देश में अनगिनत लोग जन्म के प्रारंभ से ही राम से अपनत्व के अहसास के साथ बड़े होते हैं। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब उनको बचपन में अंधेरे में डर लगता था, तब उससे बचने के उपाय के रूप में वह राम का नाम लेते। ऐसा करोड़ों लोग कितनी ही सहस्त्राब्दियों से हर समय करते रहे हैं और करते रहेंगे। इस देश की संस्कृति में राम ऐसा नाम है, जिसने विश्व का ध्यान आकर्षित किया और आगे भी करेगा।

राम और उनके महत्व को समझने वाले विद्वत वर्ग के लोग आज भी यही मानते हैं कि पश्चिम की सभ्यता के प्रचार-प्रसार से जो भयानक स्थितियां मानव जाति के समक्ष उत्पन्न हुई हैं, उनका समाधान भारत से मिलेगा, तभी पृथ्वी पर मानव समाज बचा रहा सकेगा। सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन के व्यावहारिक पक्ष में भारत की सभ्यता-संस्कृति का सर्वाधिक प्रभाशाली स्रोत तो राम और उनका जीवन वृत्त ही रहा है, जो सबसे अधिक आत्मीयता और हर परिस्थिति में संबल प्रदान करता है।

भारत के अधिकांश लोग आज भी राम-सीता की जोड़ी जैसे आदर्श दांपत्य जीवन की संकल्पना करते हैं। उनके जैसा पुत्र, पति, भाई, मित्र, शासक, शिष्य जैसे हर संबंध को लेकर सबसे पहले राम को ही याद करते हैं। संस्कृति-पुरुष राम, सदाचरण की प्रतिमूर्ति राम, कर्तव्य-पथ के अविचलित पथिक राम, जीवन का कोई भी पक्ष लिया जाए भारत की संस्कृति और परंपरा में रचे-पगे व्यक्ति को सबसे पहला उदाहरण राम का ही मिलेगा।

गोस्वामी तुलसीदास ने यह लिखकर युगों की उस आस्था और अवधारणा को शब्द दिए, जिसे अपने-अपने ढंग से असंख्य लोग आपस में जीवन भर कहते-सुनते-समझते रहे- ‘कहौं कहां लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।’ तुलसीदास ने रामकथा को उस समय घर-घर पहुंचाया, जब सारे देश में अत्यंत विषम परिस्थितियों में इसकी गहन आवश्यकता थी। राम का अर्थ है ‘सर्वभूतहिते रताः’, ‘लोकः समस्तः सुखिनो भवंतु’, ‘मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।’

विश्व-शांति का वह एकमात्र मूलमंत्र ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति’ है, जो आज भी कट्टरवाद के समक्ष मनुष्य-मात्र की एकता की आशा की सशक्त किरण बनकर खड़ा है। अंततः समाधान इसी से निकलेगा। इसे वही समझ सकेगा जो राम को जानेगा और प्रयत्नपूर्वक समझेगा। भारत में हर विचार, पंथ, मत, आस्था मानने की स्वतंत्रता राम के उस प्रभाव का ही परिणाम है, जिसमें समस्त चर-अचर, जड़-चेतन यानी हर एक में हर ओर ईश्वरीय अंश की उपस्थिति स्वीकार्य होती आई।

क्या यह अत्यंत पीड़ादायक स्थिति नहीं है कि आज भी देश में ऐसे लोग हैं, जो विद्वता का चोला ओढ़कर कहते हैं कि राम को राष्ट्रीय आदर्श कैसे माना जा सकता है? संविधान की मूल प्रति में राम दरबार का चित्र है, मगर उन लोगों की क्षुद्रता का अनुमान लगाना आसान नहीं, जिन्होंने आगे के संस्करणों में इसके प्रकाशन पर ही रोक लगा दी। स्वार्थ मनुष्य की वैचारिकता को कितना नीचे गिरा सकता है, इसका उदाहरण वे लोग हैं, जो यह स्वीकार करने को अभी भी तैयार नहीं हैं कि अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी।

आज जब सारा विश्व राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से जुड़े अलौकिक आयोजन को जानने-समझने का प्रयास कर रहा है तो भारत के ही कुछ राजनेता देश के अंदर ही विद्वेष और कलह पैदा करने में जी-जान से लगे हुए हैं। वे इस आयोजन के बहिष्कार का बहाना खोज रहे हैं। उनके लिए जीवन का समस्त लक्ष्य केवल वोट, चुनाव और सत्ता तथा संग्रहण तक सीमित होकर रह गया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर इसी वर्ग ने सांप्रदायिकता तथा जातिवाद को बढ़ावा दिया। भारत की प्राचीन संस्कृति और ज्ञान-परंपरा को लगातार पीछे धकेला तथा लोगों से जानबूझकर अन्याय भी किया। इसका एक उदाहरण पिछले वर्षों में जम्मू-कश्मीर से सामने आए तथ्य हैं। ये तथ्य किसी भी सभ्य समाज को विचलित कर सकते हैं।

भारत के तत्कालीन हुक्मरानों ने उन लाखों लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया, जो आजादी के आगे-पीछे जम्मू-कश्मीर में शरणार्थी बनकर आए। 2019 तक वे नागरिकता तक के लायक नहीं माने गए। अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई। इससे भी अधिक दर्दनाक था एक समुदाय-विशेष के लोगों को राज्य के बाहर से लाकर बसाया जाना, उनसे केवल साफ-सफाई का कार्य ही कराना और उनकी भविष्य की पीढ़ियों को अन्य कोई भी कार्य करने से प्रतिबंधित कर देना।

ऐसे कितने ही अन्य कृत्य गिनाए जा सकते हैं, जिनके अपराधियों ने चुनावों और सत्ता के नाम पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी वैभव-विलास का अनियंत्रित उपभोग किया, सांप्रदायिकता का घोर प्रचार-प्रसार किया, भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को कुचला और कश्मीरी हिंदुओं का संहार और विस्थापन किया। जिन्होंने ऐसा किया, वे न तो सभ्य माने जा सकते हैं, न ही सुसंस्कृत।

ऐसे ही तत्व आज भारत के आराध्य राम के विरोध में एकजुट होने का दयनीय प्रयास कर रहे हैं। वे जानते हैं कि राम मंदिर की पुनर्स्थापना के पश्चात इस देश की संस्कृति विश्व-शांति का संदेश देगी और उसमें अराष्ट्रीय-तत्वों का कोई स्थान नहीं होगा। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि राम के साथ जो द्रोह कर रहे हैं, उसे आगे की पीढ़ियां अक्षम्य मानेंगी। उनको सही रास्ता श्रीराम ही दिखाएंगे।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)