शंकर शरण। वैदिक प्रार्थनाओं में अग्नि, वायु, सूर्य, वरुण की अभ्यर्थना ब्रह्म के विविध रूपों में की गई है। पौराणिक कथाएं बाद की हैं, जिनमें विविध देवी-देवताओं और अवतारों की अभ्यर्थना मिलती है। महाकाव्यों में राम और कृष्ण की कथाएं हैं, किंतु उनमें भी वेद-उपनिषदों का ज्ञान ही लोकप्रिय बोधगम्य शैली में रखा गया है। देवी, देवताओं, अवतारों के मंदिर, वहां पूजा-पाठ, ध्यान आदि हमारे समाज में बाद की अवस्थाओं में आरंभ हुआ, किंतु इसका उद्देश्य भी उसी आध्यात्मिक संस्कृति को पोषित, परिवर्द्धित करना है, जो वेदांत से ही पोषित-पल्लवित हुई। इसीलिए अधिकांश हिंदू वर्ग वेदों को प्रमाण मानते रहे हैं। इसका आशय यह भी है कि यदि वेदांत की शिक्षाओं की उपेक्षा हो, उसका मनन, आचरण न हो, तो कोरी पूजा, अनुष्ठान आदि व्यर्थ हैं। वे कभी-कभी अंधविश्वास और निरर्थक, भ्रामक गतिविधियों में बदल जाते हैं।

कई मनीषियों के अनुसार गत हजार वर्षों में भारत में हिंदू पराभव का मुख्य कारण यही है। हिंदू समाज के अग्रणी, शिक्षक आदि क्रमशः यांत्रिक अनुष्ठानों, मूर्तियों और शाब्दिक जाप को ही धर्म मानने लगे। उन्होंने उपनिषद ही नहीं, रामायण, महाभारत की भी सारभूत शिक्षाओं पर मनन कमोबेश उपेक्षित किया। इस हद तक कि बड़े-बड़े लोगों के लिए धर्म-अधर्म के आचरण का भेद धूमिल हो गया। वे पूजा, यज्ञ, अनुष्ठान करना-कराना ही पर्याप्त मान बैठे। जीव जगत ही नहीं, अस्तित्व मात्र में ब्रह्म-सार के प्रति अज्ञानी, फलत: पाखंडी बन बैठे।

गत हजार वर्षों में हिंदू भारत के पतन को समझने की कुंजी इसी चेतावनी में है। यहां धर्म के नाम पर कोरे अनुष्ठान का चलन बढ़ता गया। वर्ण-कर्म को जड़-व्यवस्था में बदल कर समाज को बांट दिया गया। जिस हिंदू ज्ञान ने ‘तत्वम् असि’ का महामंत्र खोजा था और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की सीख दी, वह आपस में अहंकार, दुराव और घृणा के आचरण को धर्म समझने लगा। सदियों से जमी छुआछूत, ऊंच-नीच इसका सबसे लज्जास्पद दृश्य है। ऐसे हीन व्यवहार में लिप्त हिंदू बस मंदिर में शब्दोच्चार, अनुष्ठान को ही संपूर्ण धर्म मान बैठे।

उपनिषदों से लेकर वाल्मीकि, वेदव्यास की ओजपूर्ण शिक्षाओं, धर्म और न्याय के लिए अड़ने, लड़ने और उसके लिए प्राण देने को तैयार रहने की सीख से दूर होते गए। फलत: विधर्मियों, आततायियों को मौका मिला। जैसे घाव में मक्खी को मिलता है। भारत के हिंदू उन्हें सदा के लिए पराजित करने में विफल रहे। क्षत्रिय शौर्य शत्रुओं की कुटिलता का प्रतिकार करने में अपर्याप्त साबित हुआ। आपसी भेद-भाव तथा नए प्रकार के शत्रुओं, आयुधों आदि की सही समझ का अभाव हमारे अज्ञान के ही विविध पहलू थे।

भक्तों को पूजा, आराधना उतनी ही फलती है जितना वे ज्ञान भक्ति सहित कर्मदान करते हैं। कश्मीर और बंगाल के हिंदू इसके समकालीन उदाहरण हैं। उनके मंदिर, अर्चना, पूजा, टीका, यज्ञ आदि सदैव चलते रहे, किंतु वे कुटिल और सशस्त्र विधर्मियों से हिंदू समाज की रक्षा नहीं कर सके। इसलिए और नहीं कर सके, क्योंकि समाज वाल्मीकि और व्यास की सीख से दूर हो गया। वह भूल गया कि राम, कृष्ण जैसे अवतारों को भी राक्षसों, आततायियों से सीधे लड़ना पड़ा था।

अधर्म से लड़ने, अधर्मियों को मिटाने और समाज रक्षा की निर्भीक व्यवस्था करने-रखने का कोई विकल्प नहीं है। इसीलिए हमारे आधुनिक मनीषियों ने भी मंदिर को धर्म की प्रथम सीढ़ी मात्र कहा है। किसी मंदिर में देवता की प्राण-प्रतिष्ठा के उपरांत आवश्यक होता है- धर्म का आचरण करना और अधर्म के नाश के लिए प्रस्तुत रहना। यही रामायण और महाभारत की आधारभूत शिक्षा है। यही उनका सार है।

राम की सच्ची पूजा उनके आदर्श, मर्यादा और धर्म आचरण को अपने और समाज के जीवन में उतारना ही है। मूर्धन्य साहित्यकार महादेवी वर्मा ने कहा था, ‘जातिभेद से भी अधिक घातक पार्टीबाजी का भेद है।’ यदि हिंदू नेता इसकी अनदेखी कर मंदिरों को राजनीतिक लाभ-हानि के मंसूबे से जोड़ेंगे तो ध्यान रखें कि हिंदू धर्म समाज के सभ्यतागत शत्रु ताक में बैठे हैं।

हिंदू समाज में आपसी दुराव और अज्ञान आज पहले से अधिक राजनीतिक बनकर चल रहा है। समाज को ईर्ष्या-द्वेष और पार्टीबंदी से दुर्बल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसकी भरपाई आडंबर, आत्ममुग्धता और यहां तक कि तीर्थों में भीड़ भी नहीं कर सकती। राम की सच्ची पूजा तभी होगी जब उनकी शिक्षा देश के बच्चे-बच्चे तक गंभीरता से पहुंचाई जाए। वाल्मीकि रामायण का पाठ हर भाषा में सुलभ किया जाए। इसे कठिन या अनावश्यक समझना अपनी घोर हानि करना है।

रामायण और महाभारत विद्यार्थी को क्या दे सकते हैं, इसका उदाहरण एक नास्तिक विद्वान के अनुभव से समझ सकते हैं। नीरद चौधरी ने अपनी ‘एक अनजान भारतीय की आत्मकथा’ में लिखा है, ‘यदि हमारी नैतिक शिक्षा में कोई कमी रही हो तो उच्च नैतिकता की प्रेरणा देने वाला एक अक्षय स्रोत हमारे पास था। यह थे हमारे महाकाव्य, रामायण और महाभारत, जिन्हें मैंने बहुत पहले पढ़ना शुरू कर दिया था।

इन महान पुस्तकों को पढ़कर कोई भी अच्छाई और बुराई के बीच स्थायी संघर्ष से अवगत हुए बिना नहीं रह सकता। उसे चेतावनी मिलती है कि चरित्र और सदगुण के लिए सदैव सावधान एवं प्रयत्नशील रहना पड़ता है। यद्यपि ये महाकाव्य सत्य की विजय दिखाते हैं, पर किसी आसान विजय की भावना को प्रोत्साहन नहीं देते। उलटे दिखाते हैं कि सत्य का पक्ष ही हर मोड़ पर अधिक संकट, यंत्रणा, नाश और पराजय के खतरे में पड़ता है। हमें पता चला कि बिना कठिन परिश्रम, साहस और असीम विश्वास के सत्य की विजय कभी नहीं हुई। साथ ही हमें यह भी सीख मिली कि यह संघर्ष सदैव चलता रहता है।’

यह एक दुर्धर्ष लेखक का जीवन अनुभव है। यह दिखाता है कि रामायण को धार्मिक पुस्तक मात्र समझना कितनी बड़ी भूल है। वह एक ज्ञान-भंडार है, जो हमारी शिक्षा का एक अनिवार्य अंग होना चाहिए। इसलिए आज भारत में राम की सच्ची पूजा का अपरिहार्य अंग यही होगा कि हर भारतीय बालक-बालिका को रामायण एवं महाभारत पढ़ने के लिए विविध प्रोत्साहन और अवसर मिले।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)