संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार का समय, निरर्थक चर्चा का मंच बनकर रह गई संस्था
यह गंभीर चिंता की बात है कि सुरक्षा परिषद वैश्विक समस्याओं पर एक तरह से निरर्थक चर्चा का मंच बनकर रह गई है। यह यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भी दिखा और दक्षिण चीन सागर में चीन की मनमानी के मामले में भी।
भारतीय विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता पर नए सिरे से बल देते हुए जिस तरह यह कहा कि इस संस्था में सुधार की प्रक्रिया रोकने के हथकंडे कामयाब होने वाले नहीं हैं, उससे एक तरह से वे देश कठघरे में ही खड़े हुए जो विचार-विमर्श और वार्ता के बहाने इसमें अड़ंगा लगाने में लगे हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र और विशेष रूप से उसकी सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता एक लंबे समय से जताई जा रही है, लेकिन बात बन नहीं पा रही है।
इसका कारण यह है कि कुछ देश सुरक्षा परिषद में सुधार की जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं। चूंकि सुरक्षा परिषद में सुधारों में देरी हो रही है इसलिए न केवल उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़े हो रहे हैं, बल्कि विश्व जनमत की दृष्टि में यह संस्था अपना महत्व भी खोती जा रही है। वह किसी भी वैश्विक समस्या के समाधान में सहायक बनना तो दूर रहा, कोई उम्मीद भी नहीं जगा पा रही है। यदि सुरक्षा परिषद को अपनी महत्ता बनाए रखनी है तो उसमें सुधार के लिए सभी देशों और विशेष रूप से उसके स्थायी सदस्यों को प्रतिबद्धता का परिचय देना होगा और इस क्रम में उन देशों पर दबाव बढ़ाना होगा जो सुधारों को टालने में लगे हुए हैं।
यह गंभीर चिंता की बात है कि सुरक्षा परिषद वैश्विक समस्याओं पर एक तरह से निरर्थक चर्चा का मंच बनकर रह गई है। यह यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भी दिखा और दक्षिण चीन सागर में चीन की मनमानी के मामले में भी। कुछ वैश्विक ताकतों की मनमानी ने सुरक्षा परिषद को एक तरह से असहाय और निरुपाय बना दिया है।
संयुक्त राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण इकाई जब नाकाम साबित हो रही है तब फिर इस पर हैरानी नहीं कि उसकी अन्य इकाइयां भी विश्व जनमत को निराश कर रही हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि कोविड महामारी के मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किस तरह दुनिया की मुसीबत बढ़ाने वाले काम किए और अपनी रही-सही साख गंवा दी।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि भारत समेत बीस देशों ने सुरक्षा परिषद में सुधार संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया है, क्योंकि आवश्यकता इसकी है कि सुधारों की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जाए। इसलिए बढ़ा जाए, क्योंकि इस संस्था में जो सुधार अपेक्षित और आवश्यक हैं, उनमें पहले ही बहुत अधिक देरी हो चुकी है।
सुरक्षा परिषद को न केवल और समर्थ एवं लोकतांत्रिक होना चाहिए, बल्कि उसमें उन देशों की भागीदारी भी होनी चाहिए जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपना प्रभाव छोड़ा है। वर्तमान में ऐसे जिन देशों की गिनती की जा सकती है, उनमें भारत प्रमुख है। वैसे तो भारत एक अर्से से इस पर जोर दे रहा है, लेकिन अब समय है कि वह इस पर अपनी सक्रियता लगातार बनाए रखे।