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'चचा! घर लौट जा.. तोहर वोट डला गेलई', कभी विरोध करने पर मतदाता की जान पर बन आती थी, अब जबरई करने वाले जाते हैं जेल

बम और बंदूकों की आवाज पर भारी पड़ता ‘लोकतंत्र का टीका’। बिहार में एक दौर वो भी था जब चुनाव के दौरान बम-बंदूकें गरजतीं। इसके बीच कोई हिम्मत करके वोट देने निकलता भी तो पता चलता कि उसके नाम पर वोट डाला जा चुका है। ग्रामीण और सुदूर इलाकों में दबंग बूथों का ठेका लेते। उस बूथ पर एक खास दल या नेता को ही वोट डाला जाता।

By Rajat Kumar Edited By: Deepti Mishra Updated: Tue, 09 Apr 2024 02:14 PM (IST)
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बम और बंदूकों की आवाज पर भारी पड़ता ‘लोकतंत्र का टीका’।

 कुमार रजत, पटना। चचा, घर लौट जा... तोहर वोट डला गेलई हे। पिछली सदी के 80 और 90 के दशक में मतदान केंद्रों के बाहर यह तस्वीरें आम थीं। चुनाव के दौरान बम-बंदूकें गरजतीं। इसके बीच कोई हिम्मत करके वोट देने निकलता भी तो पता चलता कि उसके नाम पर वोट डाला जा चुका है। ग्रामीण और सुदूर इलाकों में दबंग बूथों का ठेका लेते। उस बूथ पर एक खास दल या नेता को ही वोट डाला जाता। इसका विरोध करना अपनी जान से हाथ धोना था। अब हाल के चुनावों की तस्वीर देखते हैं...।

गया, जमुई और औरंगाबाद के नक्सल प्रभावित इलाकों के बाहर सुबह सात बजे से ही मतदाताओं की लंबी कतारें लगी हैं। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। बम-बंदूकों की जगह लोकतंत्र के टीके ने ले ली है, जिसके साथ सेल्फी ली जा रही है।

बिहार के चुनाव में यह बदलाव एक दिन की बात नहीं है। इसकी शुरुआत 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन ने की थी, जिसका व्यापक प्रभाव 2005 आते-आते केजे राव की मेहनत ने दिखाया। मतदान केंद्रों पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती ने भी अपराधियों और गुंडा तत्वों से निबटने में अहम भूमिका निभाई।

नक्सलियों को कुंद कर देने के बाद चुनावी हिंसा काफी हद तक नियंत्रित हुई।  इस बार तो चुनाव से पहले ही 150 कंपनी से अधिक केंद्रीय बल जिलों में भेज दिए गए हैं, ताकि मतदाता निर्भीक रहें।

 90 के दशक में सर्वाधिक हिंसा व पुनर्मतदान

साल 1998 और 1999 में हुए आम चुनाव में बिहार में सर्वाधिक हिंसा और गड़बड़ी के मामले सामने आए। पत्रकार श्रीकांत के अनुसार, 1952 से 1991 तक की चुनावी यात्रा में पुनर्मतदान वाले केंद्रों की संख्या में 45 गुना की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इससे बूथ कब्जा करने वालों का संगठित चेहरा सामने आया।

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पहले आम चुनाव में बिहार में महज 26 मतदान केंद्रों पर दोबारा वोटिंग कराई गई थी, जो 1991 में 1175 हो गई। अगले तीन चुनावों में यह आंकड़ा चार गुना बढ़ गया। 1996 में 1933, जबकि 1998 में 4995 केंद्रों पर पुनर्मतदान कराया गया। उसके बाद इसमें गिरावट शुरू हुई।

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वर्ष 2004 में यह संख्या 1552 रह गई। 1996 में 42, 1998 में 44 और 1999 के चुनाव में सर्वाधिक 76 हिंसक घटनाएं दर्ज की गईं। वर्ष 2004 में यह घटकर 28 और वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 11 रह गई।

असुरक्षित बूथों की मैपिंग हथियारों के नेटवर्क पर करारी चोट

पुलिस मुख्यालय के अधिकारियों के अनुसार, सुरक्षित और शांतिपूर्ण मतदान का माहौल बनाने का काम आठ से नौ माह पहले से ही शुरू हो जाता है। इसके लिए बूथ स्तर पर असुरक्षित बूथों की मैपिंग की जाती है। ऐसे बूथों की सूची तैयारी की जाती है, जहां मतदान प्रक्रिया को हिंसा के बल पर प्रभावित करने की आशंका है।

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 इसके बाद इन बूथों के आसपास के ऐसे गुंडा और आपराधिक तत्वों की पहचान कर उनपर कार्रवाई शुरू होती है। नियमानुसार, जिलाबदर या तड़ीपार की कार्रवाई लगातार जारी है। अवैध हथियारों के नेटवर्क को खंगालने का अभियान पिछले वर्ष जून से ही चलाया जा रहा है। अब तक तीन दर्जन से अधिक मिनी गन फैक्ट्री का उद्भेदन किया गया है।

नक्सल प्रभावित और जंगली इलाकों में केंद्रीय पुलिस बल के साथ स्थानीय पुलिस के संयुक्त अभियान चलाए जा रहे हैं। बिहार में दो दशकों में बनीं बेहतर सड़कें, पुल-पुलिया आदि ने भी पुलिस-प्रशासन की पहुंच सुदूर इलाकों तक की है। इसके अलावा पुलिस को मिले अत्याधुनिक संसाधन (गाड़ियां, हथियार आदि) ने भी शांतिपूर्ण चुनाव कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

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