कर्नाटक विधानसभा चुनाव के इतिहास में पहली बार हावी है क्षेत्रीय अस्मिता का मुद्दा
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर होने से सिद्दरमैया की योजना को बल मिला है।
[हर्ष वर्धन त्रिपाठी] कर्नाटक विधानसभा चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण हो चला है। सिद्दरमैया ने भाजपा के दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार कर्नाटक को पूरे दक्षिण के संयुक्त अभेद्य किले में बदलने की कोशिश इन विधानसभा चुनावों में की है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर होने से सिद्दरमैया की योजना को बल मिला है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के इतिहास में यह पहली बार होने जा रहा है कि क्षेत्रीय अस्मिता का मुद्दा इतना हावी है। और यह जनता की अभिव्यक्ति नहीं है। यह कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया की सलीके से सोच समझकर बनाई गई चुनावी रणनीति का असर है। इस रणनीति के पीछे सिद्दरमैया के मन में नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय छवि का भय जरूर रहा होगा, जिसके आधार पर नरेंद्र मोदी किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को एक झटके में लड़ाई के मैदान से बाहर कर देते हैं।
भावनात्मक आधार
इसीलिए बार-बार यह कहने के बावजूद कि हमारी सरकार के कामों पर हम जनता से वोट मांग रहे हैं, सिद्दरमैया ने पूरी तरह से कर्नाटक के चुनावों को भावनात्मक आधार पर लड़ने की कोशिश की है। भावनात्मक आधार पर सिद्दरमैया की विधानसभा चुनाव लड़ने की पूरी तैयारी चरणबद्ध तरीके से हुई है। उसका आधार है-कन्नड़ बनाम हिंदी। मेट्रो के साइनबोर्ड और सरकारी दफ्तरों से हिंदी के बोर्ड हटाने, उन पर कालिख पोतने का काम उसी योजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। जबकि ऐतिहासिक तौर पर तमिल-हिंदी संघर्ष के दौर में भी कन्नड़ कभी बहुत ज्यादा शामिल नहीं हुए हैं। लेकिन सिद्दारमैया ने देश के सबसे आधुनिक शहरों में से एक बेंगलुरु से ही क्षेत्रीय अस्मिता को मुद्दा बना दिया। कर्नाटक को उसका हिस्सा नहीं मिल रहा है, यह दूसरा बड़ा दांव था।
तीसरा बड़ा दांव
तीसरा बड़ा दांव था, लिंगायत को अल्पसंख्यक बनाकर हिंदू धर्म से अलग करना और दबे-छिपे योजना का चौथा चरण था-टीपू सुल्तान को कर्नाटक के स्वाभिमान से जोड़ने की कोशिश करके मुसलमानों को पूरी तरह से अपने साथ ले आना। ऊपर के चारों चरणों को पूरी करने के बाद सिद्दरमैया ने येद्दयुरप्पा पर सीधा हमला बोलने के बजाय अमित शाह और नरेंद्र मोदी के सामने झुकने वाले नेता के तौर पर येद्दयुरप्पा पर हमला किया। कन्नड़ स्वाभिमान इसमें भी स्पष्ट दिख रहा था। सिद्दरमैया की पूरे प्रचार के दौरान और उससे पहले भी कोशिश यही रही कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता होते हुए भी वे खुद को क्षेत्रीय पार्टी के मुख्यमंत्री के तौर पर स्थापित करने में कामयाब हों। कर्नाटक की जनता राहुल और सोनिया गांधी को सिद्दरमैया के सहयोगी के तौर पर चुनाव प्रचार में देख रही है।
कन्नड़ स्वाभिमान
राजनीतिक तौर पर क्षेत्रीय भावनाओं को अपने पक्ष में करने का अनूठा उदाहरण मुख्यमंत्री सिद्दरमैया ने पेश किया है। अब अगर कांग्रेस कन्नड़ स्वाभिमान जगाने के साथ लिंगायत मतों में कुछ सेंध लगाकर मुसलमान मतों को बहुतायत में अपने पाले में खींचने में कामयाब रही तो सिद्दरमैया दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने में कामयाब हो सकते हैं, पर देवगौड़ा की पार्टी के बीएसपी और ओवैसी के साथ हुए तालमेल ने मुसलमानों में भ्रम बनाया है। प्रतिक्रिया में हिंदू एकजुट हो गए तो लिंगायत का मुद्दा भी ध्वस्त हो सकता है और भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच सकती है। दोनों ही स्थितियों में देवगौड़ा को सीटों के तौर पर खास लाभ मिलता नहीं दिख रहा है। कुल मिलाकर कर्नाटक का चुनावी वातावरण एक और स्पष्ट जनादेश की ओर जा रहा है। वहां की जनता क्षेत्रीय अस्मिता के पक्ष में मतदान करेगी या राष्ट्रवाद के पक्ष में इसी से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा तय हो जाएगा।
[लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]