भाजपा और कांग्रेस के बीच सिमटा टिहरी सीट पर मुकाबला
उच्च हिमालयी क्षेत्र से लेकर तराई तक पर्वतीय घाटी और मैदानी भूभाग को खुद में समेटे लोकसभा की टिहरी सीट की जंग के लिए सूरमाओं ने मोर्चा संभाल लिया है।
टिहरी, जेएनएन। उच्च हिमालयी क्षेत्र से लेकर तराई तक पर्वतीय, घाटी और मैदानी भूभाग को खुद में समेटे लोकसभा की टिहरी सीट की जंग के लिए सूरमाओं ने मोर्चा संभाल लिया है। अभी तक की तस्वीर देखें तो मुख्य मुकाबला इस मर्तबा भी राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सिमटता दिखाई पड़ रहा है। भाजपा ने जहां टिहरी राजपरिवार से ताल्लुक रखने वाली मौजूदा सांसद माला राज्यलक्ष्मी शाह को फिर से मैदान में उतारा है, वहीं कांग्रेस ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह को। हालांकि, बसपा के सत्यपाल और निर्दलीय प्रत्याशी संत गोपालमणि समेत 11 अन्य उम्मीदवार मुकाबले को रोचक बनाने की जुगत में हैं।
मुद्दों के नजरिये से नजर दौड़ाएं तो यहां राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय मुद्दे हावी नहीं हैं। पूर्व में पौड़ी गढ़वाल व दक्षिण में हरिद्वार लोकसभा सीट और पश्चिमी में हिमाचल प्रदेश व उत्तर में चीन सीमा से सटी इस पर अभी तक सियासी परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो जनता ने छह बार भाजपा और आठ बार कांगेस को यहां से प्रतिनिधित्व सौंपा। केवल दो ही मौके ऐसे आए, जब एक बार निर्दल और एक मर्तबा जनता दल के पास यह सीट रही।
भाजपा प्रत्याशी की ताकत
मोदी रथ पर सवार टिहरी राज परिवार से ताल्लुक रखने वाली भाजपा प्रत्याशी 2012 के उपचुनाव में जीत हासिल करने के बाद से यहां का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की उपलब्धियों के साथ ही राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर जनता के बीच हैं। साथ ही वह संसद में उठाए गए क्षेत्र के विभिन्न मुद्दों को भी रख रही हैं। पार्टी का बूथ स्तर सांगठनिक ढांचा और गोर्खाली वोटरों में अच्छी पकड़ को भी उनकी ताकत माना जा रहा है।
भाजपा प्रत्याशी की कमजोरी
केंद्र और राज्य सरकारों के मद्देनजर दोहरी एंटी इनकमबेंसी फैक्टर से भाजपा प्रत्याशी को जूझना पड़ेगा। क्षेत्र में कम सक्रियता और अच्छा वक्ता न होने को भी विपक्ष मुद्दा बना सकता है।
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कांग्रेस प्रत्याशी की ताकत
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह भले ही पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हों, मगर सियासत का उन्हें लंबा अनुभव है। राज्य गठन के बाद से लगातार विधायक होने के साथ ही जनजातीय जौनसार व रवांई क्षेत्र में उनकी पकड़ मजबूत मानी जाती है। इसके अलावा बेरोजगारी, जीएसटी, नोटबंदी, राफेल जैसे मसलों पर केंद्र सरकार को निशाने पर ले रहे हैं। केंद्र व राज्य सरकारों के प्रति एंटी इनकमबेंसी को भुनाने का भी वह प्रयास कर रहे हैं।
कांग्रेस प्रत्याशी की कमजोरी
कांग्रेस प्रत्याशी राज्य में संगठन की कमान संभाले हुए हैं, मगर टिहरी संसदीय क्षेत्र में उनकी पकड़ जनजातीय क्षेत्र तक ही मानी जाती है। इसके अलावा कांग्रेस में धड़ेबाजी और सभी दिग्गजों को साधना उनके लिए चुनौतीभरा होगा।
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सामाजिक ताना-बाना
तीन जिलों उत्तरकाशी, टिहरी व देहरादून में फैली टिहरी सीट के सामाजिक ताने-बाने की बात करें तो यहां की 62 फीसद आबादी गांवों में रहती है, जबकि 38 फीसदी शहरी क्षेत्रों में। संसदीय क्षेत्र में लगभग 40 फीसद राजपूत, 32 फीसद ब्राह्मण, 17 फीसद एससी-एसटी, पांच फीसद मुस्लिम, पांच फीसद गोर्खाली और एक फीसद अन्य मतदाता हैं। हालांकि, इस सीट पर मतदाताओं की जागरूकता के चलते जातिगत समीकरण कभी उभरकर सामने नहीं आए।
मतदाता
मतदाताओं की संख्या-1477532
महिला मतदाता-691899
पुरुष मतदाता-773527
कुल सर्विस वोटर-12057
थर्ड जेंडर मतदाता-49
कमलेंदुमति पहली महिला सांसद
टिहरी संसदीय सीट के इतिहास में पहला लोकसभा चुनाव खासा रोचक रहा। तब यहां दो उपलब्धियां जुड़ीं। यहां से राजमाता कमलेंदुमति शाह पहली बार निर्दलीय सांसद चुनी गई। वह उत्तराखंड की पहली महिला सांसद बनीं और वह भी बगैर किसी पार्टी के टिकट से।
लोकशाही में राज परिवार की धमक
राजशाही खत्म होने के बाद टिहरी राजघराने ने लोकशाही में रुतबा कायम किया। टिहरी सीट पर 10 आम चुनाव तथा और एक उप चुनाव में राज परिवार के सदस्यों का सांसद चुना जाना इसकी तस्दीक करता है।
ये भी तथ्य
-आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में टिहरी सीट से जनता दल के त्रेपन सिंह नेगी जीते थे।
-1962 के चुनाव में टिहरी सीट से कांग्रेस प्रत्याशी मानवेंद्र शाह निर्विरोध चुने गए थे। वह इसलिए कि बतौर निर्दलीय प्रत्याशी स्वतंत्रता सेनानी एवं वरिष्ठ पत्रकार श्यामचंद नेगी ने अपना नामांकन वापस ले लिया था।
-1971 के लोकसभा चुनाव में मानवेंद्र शाह का जीत का रथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिपूर्णानंद पैन्यूली ने रोका था।
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