Lok Sabha Election 2024 अखिलेश 12 वर्ष बाद फिर इस सीट पर चुनावी मैदान में उतरे हैं। इससे भाजपा को चुनौती मिलना तय है। भाजपा को विकास राष्ट्रवाद और रामकाज के सहारे फिर विजयश्री का भरोसा है। सपा ने पीडीए (पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक) का नारा दिया है। हालांकि यहां उसकी जीत का आधार हमेशा से एमवाई (मुस्लिम व यादव) ही रहा है।
राजीव द्विवेदी, कन्नौज। After 12 years Akhilesh Yadav is contesting elections from the Kannauj seat: यूं तो इत्र नगरी कन्नौज सम्राट हर्षवर्धन और महाराजा जयचंद के काल से ही राजनीति का केंद्र रही है, लेकिन समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने साल 1967 में सीट गठन के बाद जब यहां से पहला चुनाव लड़ा और जीता तो यह फिर चर्चा के केंद्र में आ गई।
खुद को लोहिया का अनुयायी कहने वाले समाजवादी पार्टी (सपा) के संस्थापक मुलायम सिंह यादव, उनके पुत्र अखिलेश यादव और बहू डिंपल ने भी यहां से प्रतिनिधित्व किया। 2014 की नरेंद्र मोदी की लहर में भी सपा के पास रही यह सीट 2019 में राष्ट्रवाद के ज्वार में भाजपा के हाथ आ गई।
अखिलेश 12 वर्ष बाद फिर इस सीट पर चुनावी मैदान में उतरे हैं। इससे भाजपा को चुनौती मिलना तय है। भाजपा को विकास, राष्ट्रवाद और रामकाज के सहारे फिर विजयश्री का भरोसा है। सपा ने पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) का नारा दिया है। हालांकि, यहां उसकी जीत का आधार हमेशा से एमवाई (मुस्लिम व यादव) ही रहा है।
सपा ने बनाया यह मुद्दा
सपा मुखिया अखिलेश यादव ने सोची-समझी लंबी रणनीति के तहत कन्नौज लोकसभा सीट से दावेदारी ठोक दी है। सपा मोदी बनाम अखिलेश और बेरोजगारी को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है। लोग भारत के विदेश में बढ़े मान और प्रदेश की कानून एवं व्यवस्था के लिए मोदी-योगी सरकार को सराहते हैं।
वहीं, कन्नौज वालों के प्रति अखिलेश के सहज व्यवहार और लगाव के भी लोग कायल हैं। हालांकि, इस सीट का इतिहास रहा है कि आखिर में मतदान जातीय समीकरणों पर आकर टिक जाता है।
मकरंद नगर रोड पर प्रोविजन स्टोर और पान की दुकान चलाने वाले मनीष चौरसिया बेरोजगारी के मुद्दे को नकारते हैं। वह कहते हैं कि अगर रोजगार नहीं है तो आखिर युवाओं के हाथों में एक-एक लाख की बाइक कहां से आ जाती है? निजी कंपनी में नौकरी करने वाले शिवम का मानना है कि विपक्ष जरूर बेरोजगारी को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसका कोई असर नहीं होने वाला।
उनके मुताबिक, बेरोजगार वही है, जो सिर्फ सरकारी नौकरी ही करना चाहता है। ठठिया में मिले शिवेंद्र अग्निहोत्री भी जिले में सपा और देशभर में भाजपा के विकास की प्रशंसा करते हैं।
कन्नौज में कितने मतदाता हैं?
कन्नौज में करीब 17 लाख से अधिक हिंदू और ढाई लाख से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं। हिंदुओं में ढाई लाख यादव, दो लाख क्षत्रिय, दो लाख लोधी, पौने दो लाख ब्राह्मण, पाल और शाक्य ढाई लाख, अनुसूचित जाति के करीब तीन लाख मतदाता हैं।
साल 1998 से 2014 तक ज्यादातर यादव और मुस्लिम के साथ लोध, शाक्य और पाल सपा को वोट करते आए। 2014 की मोदी लहर में एमवाई और लोध, शाक्य व पाल गठजोड़ कमजोर पड़ गया। डिंपल यादव तो विजयी रहीं पर जीत का अंतर काफी कम रहा। 2019 लोकसभा चुनाव में यादव और मुस्लिम को छोड़कर बाकी जातियों में अपनी पैठ गहरी करके भाजपा के सुब्रत पाठक ने सपा से यह सीट छीन ली। वह इस बार भी चुनाव मैदान में हैं।
कन्नौज के सियासी समीकरण में माना जाता है कि बहुसंख्यकों के साथ छोटी जातियों को जिसने जोड़ लिया, चुनाव में वही जीतता है। भाजपा ने विधानसभा चुनाव से ही यादव और मुस्लिमों के अलावा अन्य जातियों में गहरी पैठ बनाई है। यादवों के प्रभावशाली स्थानीय नेताओं को भी भाजपा ने जोड़ा है।
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साल 2022 के विधानसभा चुनाव में कन्नौज लोकसभा क्षेत्र की पांच में से चार विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिलने के कारण भाजपा को सभी जातियों का समर्थन मिलने का भरोसा है। लोकसभा चुनाव से पहले इस बार भी भाजपा ने सपा के कई बड़े नेताओं को पार्टी में शामिल करके सपा पर मानसिक दबाव बनाने की कोशिश की है। हालांकि, समाजवादी पार्टी खामोशी से अपनी रणनीति बना रही है। पिछले दिनों तिर्वा के मूर्ति प्रकरण में लोधियों की नाराजगी भुनाने के लिए सपा ने अपने लोधी नेताओं को सक्रिय किया है। वहीं, भाजपा सांसद सुब्रत पाठक के विरोध में आए ब्राह्मणों को अपने खेमे में ले आए। सपा को अखिलेश सरकार में कराए गए विकास के साथ अपने ‘पीडीए’ समीकरण पर भरोसा है।
बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी इमरान बिन जफर को उतारकर मुकाबला रोचक बनाने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन उनकी सक्रियता न बढ़ने से लड़ाई अभी भाजपा और सपा के बीच सिकुड़ती दिख रही है।
2012 में अखिलेश ने छोड़ दी थी सीट
राज्य में पार्टी की सरकार बनने पर अखिलेश ने 2012 में कन्नौज लोकसभा सीट से त्यागपत्र दे दिया था। उपचुनाव में उनकी पत्नी डिंपल यादव निर्विरोध सांसद बनी थीं।
चुनाव के दौरान अब भी हैं ये मुद्दे
कन्नौज में इस बार भी आलू और इत्र दो प्रमुख मुद्दे हैं। आलू की सरकारी खरीद होने के बाद भी उचित कीमत नहीं मिलने से किसान असंतुष्ट हैं। आलू आधारित उद्योग न होना भी उनके घाव हरे कर देता है। स्थानीय स्तर पर फसल की खपत न होने के कारण किसान को भंडारण और भाड़े पर भी खर्च करना पड़ता है, जिससे उसकी लागत बढ़ जाती और लाभ न के बराबर रह जाता है। कई बार तो आलू फेंकने की स्थिति बन जाती है।
सरकार ने किसानों को इससे उबारने के लिए सरकारी खरीद शुरू जरूर की, लेकिन उसके लिए रखी शर्तों के कारण कोई लाभ नहीं हुआ। इत्र उद्योग को पंख देने के लिए कहने को इत्र पार्क जरूर बन गया, पर वहां रिसर्च सेंटर और व्यावसायिक केंद्र न बनने से इत्र कारोबारी वहां अभी तक नहीं पहुंच रहे।
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