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Lok Sabha Election 2024: 'जन्मभूमि' में धूप, 'कर्मभूमि' पर मुलायम की छांव, क्या सपा के इस किले को ध्वस्त कर पाएगी भाजपा?

UP Lok Sabha Election 2024 मोदी लहर में कांग्रेस का गढ़ रही अमेठी और सपा की मजबूती वाली कन्नौज से रामपुर और आजमगढ़ तक को भाजपा कब्जा चुकी है लेकिन सपा के सबसे पुराने किले मैनपुरी की मियाद कितनी बची है यह इस बार चुनावी हवा बता रही है। जानिए क्या हैं यहां पर स्थानीय लोगों के मुद्दे। पढ़ें ग्राउंड रिपोर्ट...

By Jagran News Edited By: Sachin Pandey Updated: Sun, 21 Apr 2024 12:46 PM (IST)
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Lok Sabha Election 2024: भाजपा सपा की मजबूती वाली कन्नौज, रामपुर और आजमगढ़ सीट को पहले ही कब्जा चुकी है।
जितेंद्र शर्मा, इटावा। राम मंदिर आंदोलन के शिखर पुरुष रहे पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का क्षेत्र एटा और आंदोलन की विपरीत धारा से जुड़े रहे मुलायम सिंह की कर्मभूमि मैनपुरी। एटा से मैनपुरी जाएं तो इन दोनों क्षेत्रों की सीमा पर है एटा का अलीगंज। इन दो दिग्गज सियासी पुरखों की परछाईं के साथ मुद्दे कैसे दिखते-छिपते हैं, यह फर्क इस कस्बे में दिखता है।

यहां छोटा सा बाजार राम ध्वजा से अटा पड़ा था, टेम्पो और ई-रिक्शा पर भी पताकाएं और जनसभाओं में भी 'कल्याण के राम' नारे की गूंज। मगर, कुछ फर्लांग चलकर जैसे ही मुलायम सिंह के प्रभाव वाले क्षेत्र में प्रवेश करें तो बहुत कुछ बदल जाता है। राम नवमीं जोरशोर से मनाए जाने के प्रतीक वह ध्वज तो हैं, लेकिन यहां आस्था का भाव मौन हो जाता है।

सैफई में छांव, इटावा में कड़ी धूप

समाजवादी पार्टी के पुराने किले मैनपुरी में मोदी की गारंटी और योगी की कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों की गूंज शुरू तो हुई है, लेकिन अभी इतनी नहीं कि जाति की गर्जना को दबा सके। यही वजह है कि सैफई परिवार यहां मुलायम की छांव में सुकून महसूस कर रहा है, जबकि जन्मभूमि इटावा में 'कड़ी धूप' फिर पसीने छुड़ा रही है।

मोदी लहर में कांग्रेस का गढ़ रही अमेठी और सपा की मजबूती वाली कन्नौज से रामपुर और आजमगढ़ तक को भाजपा कब्जा चुकी है, लेकिन सपा के सबसे पुराने किले मैनपुरी की 'मियाद' कितनी बची है, यह इस बार चुनावी हवा बता रही है। भाजपा ने प्रत्याशी जयवीर सिंह के समर्थन में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की जनसभा करवाकर और कई पुराने यादव नेताओं को तोड़कर रणनीति को धार जरूर दी है, लेकिन खास तौर पर सजातीय वोटबैंक पर अब तक बंधी सपा संस्थापक के पुराने रिश्तों की डोर पर प्रत्यक्ष कोई असर नहीं दिखता।

परिवार से जुड़ाव

यादव बहुल गांव नगला दौलत के कैप्टन जसकरन सिंह यादव और राम अवतार सिंह यादव जिस तरह से एक झटके में महंगाई, बेरोजगारी और अग्निवीर योजना से जुड़ी पीड़ा बयां करते हैं, उससे साफ है कि उनके मुंह के सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के बोल हैं। सैफई परिवार को एकजुट करने में सपा प्रत्याशी डिंपल यादव की सराहना का संदेश है कि बिरादरी का मजबूत जुड़ाव परिवार से है।

युवा बलराम सिंह बिना लाग-लपेट कहते हैं- 'यहां के लोगों पर 'नेताजी' के बहुत अहसान हैं, उन्हें कैसे भुला दें।' पुराने रिश्तों की इस नींव को जातीय आधार भी मजबूत सहारा दिए हुए है। परिसीमन में जिस तरह से यादव बहुल जसवंत नगर और करहल को मैनपुरी लोकसभा सीट में जोड़ दिया गया था, वहीं से सपा को निर्णायक बढ़त मिलती रही है। अगले परिसीमन के बाद होने वाला परिवर्तन काफी कुछ बदल सकता है।

राशन और आवास का मुद्दा

यहां दूसरी जातियों पर भी सपा के पुराने मुखिया का प्रभाव है, लेकिन इस वर्ग में मुद्दों ने सेंध लगाना शुरू कर दिया है। राशन की दुकान पर मुफ्त राशन लेने खड़ीं नगरिया निवासी रामसनेही दलित हैं। वह पीड़ा बताती हैं कि बीते कई महीनों से कालोनी (प्रधानमंत्री आवास योजना का घर) के लिए प्रयास कर रही हैं, लेकिन मिला नहीं। फिर भी कुछ लोगों ने बताया है कि चुनावी बाद मोदी घर दे देंगे। वह राशन को भी अपने वोट का आधार बताती हैं।

दन्नाहार में दलित आबादी बहुत है। वहां की शकुंतला देवी खुलकर कहती हैं कि हम तो हाथी को वोट देते रहे, लेकिन अब उसे वोट देना मतलब खराब करना है और साइकिल को दे नहीं सकते। कारण पूछने पर कहती हैं- हमने बहुत दबंगई झेली है। मारपीट-छेड़छाड़ सहा है, लेकिन अब किसी की मजाल नहीं।

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मुलायम का प्रभाव है सहारा

घिरोर के सुनील शाक्य हों या मैनपुरी किले के पास मिश्राना मोहल्ले के रहने वाले दीपेंद्र नाथ चतुर्वेदी, इनकी नजर में कानून व्यवस्था असली मुद्दा है। यह मुद्दे कितना असर डाल सकते हैं? इस प्रश्न पर मदार गेट के बुजुर्ग सुरेश चंद राजपूत कहते हैं- '2019 में सपा-बसपा का गठबंधन था, तब भी नेताजी लगभग 90 हजार वोटों से ही जीत पाए। वह तो मुलायम सिंह के निधन के बाद हर वोट उनकी श्रद्धांजलि में पड़ा, इसलिए डिंपल यादव को बड़ी जीत मिली। अभी भी सपा को मुलायम के प्रभाव का ही बड़ा सहारा है।'

मुलायम की कर्मभूमि से निकलकर जैसे ही उनकी जन्मभूमि इटावा क्षेत्र में आते हैं तो सबकुछ बदला नजर आता है। जिस इटावा से मुलायम ने राजनीति की, उसमें सैफई को लेकर 'सौतन' जैसी जलन भी महसूस होती है। इस सुरक्षित सीट को भाजपा 2014 और 2019 में जीत चुकी है। इस बार भाजपा ने फिर से रामशंकर कठेरिया पर दांव लगाया है तो सपा ने जितेंद्र दोहरे को प्रत्याशी बनाया है।

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कमजोर होते रिश्ते

बसपा से सारिका बघेल लड़ रही हैं, लेकिन यहां दलितों पर भाजपा की पकड़ अब दिखती है। सपा यहां क्यों कमजोर हुई? इस प्रश्न पर पक्का तालाब के अतुल मिश्रा कहते हैं- 'नेताजी यहां बहुत समय देते थे। हर वर्ग में रिश्ते थे, लेकिन सैफई को वीआईपी बनाकर परिवार से इटावा में रहना और समय देना लगभग बंद कर दिया तो रिश्ते भी कमजोर होते चले गए।' चितभवन के मनोज त्रिपाठी कहते हैं कि कानून व्यवस्था में आया बदलाव यहां बड़ी वजह है।

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