परिवर्तन की यह पुरवाई भाजपा खेमे को सुकून दे रही है लेकिन नागरिकता संशोधन कानून (CAA) यहां के लिए बहुत संवेदनशील मुद्दा है। इसके विरुद्ध स्थानीय संगठनों के आंदोलन को विपक्ष हवा देने को प्रयासरत है। इसका सामना भाजपा को करना है।
परिसीमन के बाद पहला चुनाव... इन दलों में मुख्य मुकाबला
वहीं, जिन क्षेत्रों में विपक्ष के लिए तुलनात्मक रूप से अधिक संभावनाएं बन सकती हैं, वहां एक-दूसरे के वोट में सेंध के हालात ने विपक्ष के लिए चुनौतियों को बढ़ा दिया है। परिसीमन के बाद असम में यह पहला चुनाव है, जहां लोकसभा की 14 सीटों पर भाजपा, कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) के बीच मुख्य रूप से मुकाबला है।
असम गण परिषद ( AGP), यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल ( UPPL), बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (BPF) और असम जातीय परिषद (AJP) जैसे क्षेत्रीय दलों को भी स्थानीय समीकरणों का कुछ सहारा है।
आंदोलन को हवा देने में जुटे ये दल
सबसे पहले इस राज्य को आबादी के दृष्टिकोण से समझते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, यहां की जनसंख्या तीन करोड़ 12 लाख के आसपास है। इसमें करीब 34 प्रतिशत आबादी मुस्लिमों की बताई जाती है। ऐसे में समझा जा सकता है कि सीमा पार घुसपैठ के मुद्दों से गर्माते रहे असम में नागरिकता संशोधन कानून चुनावी दृष्टि से भी कितना महत्वपूर्ण है।
यही वजह है कि सीएए को असमिया संस्कृति के लिए खतरा बताते हुए कुछ स्थानीय संगठन आंदोलनरत हैं तो उसे और हवा देने का प्रयास कांग्रेस व एआइयूडीएफ जैसे दल कर रहे हैं। यह हालात भाजपा के लिए चुनौती के रूप में दिखाई दे रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद भाजपा सीएए को लेकर दमखम से ताल ठोंक रही है तो उसकी उम्मीदें दूसरे पहलुओं से जुड़ी हैं।
जब CAA पर विरोध के बावजूद सत्ता पर लौटी भाजपा
दरअसल, राज्य की आबादी में 70 लाख से अधिक संख्या हिंदू बंगालियों की है। जिन्हें लंबे समय से सीएए जैसे कानून की प्रतीक्षा थी। एक यह तथ्य भी है कि 2019 में जब सीएए को मोदी सरकार ने संसद में पारित कराया, तब भी राज्य में इसके विरुद्ध उग्र आंदोलन हुए थे। उसके बावजूद 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता में लौटी।
चुनाव दर चुनाव ऐसे बदले समीकरण
यहां गौर करने वाली बात है कि जिस पूर्वोत्तर में कांग्रेस मजबूत और भाजपा शून्य जैसी स्थिति में थी, वहां परिस्थितियां तेजी से बदली हैं। 2009 में 34.89 प्रतिशत वोट के साथ कांग्रेस सात सीटें जीती। 2014 में 29.90 प्रतिशत वोट और तीन सीटें मिलीं, जबकि 2019 में 35.79 फीसद वोट के साथ तीन सीटों पर विजय मिली।2014 के मुकाबले 2019 में कांग्रेस को वोट प्रतिशत के हिसाब से फायदा तो मिला लेकिन उसने मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा का नहीं, बल्कि उसके ही लक्षित वोटबैंक पर नजर रखने वाले एआइयूडीएफ को कमजोर करके।
तीन लोकसभा चुनाव में कहां से कहां पहुंची भाजपा?
एआईयूडीएफ ने 2014 में तीन सीटें जीती थीं, जबकि 2019 में सिर्फ एक पर सिमट गई। वहीं, भाजपा ने अपनी ताकत बढ़ाई। 2009 में भाजपा ने चार सीटें जीती थीं और उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सहयोगी असम गण परिषद के हिस्से में एक सीट आई।2014 में भाजपा की सीटें बढ़कर सात हो गईं। उससे अलग होकर लड़ी एजीपी को कोई भी सीट नहीं मिल सकी। इसी तरह 2019 के चुनाव में भी भाजपा को लाभ हुआ और वह नौ सीटें जीतने में सफल रही।
इन सीटों पर बदला चुनावी समीकरण
अब परिसीमन के परिणाम की बात करें तो असम में कांग्रेस की सबसे मजबूत सीट कलियाबोर थी, जहां वह लगातार पिछले तीनों चुनाव जीती। कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई की यह सीट अब समाप्त हो गई है। इस सीट के कई हिस्से नवसृजित काजीरंगा सीट में मिला दिए गए हैं तो कुछ क्षेत्र नौगांव लोकसभा सीट में मिल गए। इसमें वह क्षेत्र भी था, जो कलियाबोर लोकसभा सीट पर कांग्रेस को अप्रत्याशित बढ़त दिलाता था।
ऐसे ही बदलाव से बारपेटा सीट भी प्रभावित हुई है। 70-80 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले बारपेटा के कुछ विधानसभा क्षेत्रों को अब धुबरी सीट में मिला दिया गया है। दूसरी तरफ बारपेटा में ऐसे क्षेत्र शामिल हो गए हैं, जहां असमिया आबादी अधिक है, जिसका झुकाव बीते चुनावों में भाजपा-एजीपी गठबंधन की ओर दिखाई दिया है। सिलचर, सोनितपुर (पूर्व में तेजपुर), दीफू (पूर्व में स्वायत्त जिला), लखीमपुर, डिब्रूगढ़ और जोरहाट जैसी सीटों में ज्यादा बदलाव नहीं किया गया है। हां, सिलचर को सुरक्षित सीट जरूर बना दिया गया है।
11 सीटों पर लड़ेगी भाजपा
असम के लिए भाजपा ने सहयोगियों से समझौता कर लिया है। भाजपा 11 पर, एजीपी दो पर लड़ेगी, जबकि राजग में शामिल नई पार्टी यूपीपीएल के लिए एक सीट छोड़ी है। वहीं, कांग्रेस ने 12 सीटों पर लड़ने का निर्णय किया है। डिब्रूगढ़ एजेपी को दी है, जबकि लखीमपुर अभी होल्ड पर है। यहां मैदान में कूद पड़ी टीएमसी, आम आदर्मी पार्टी और सीपीआई (एम) ने कांग्रेस और एआइयूडीएफ के समीकरणों पर घात लगा दी है।
बदरुद्दीन अजमल के सामने गढ़ बचाने की चुनौती
मसलन, धुबरी, करीमगंज और कोकराझार और बारपेटा सीट भाजपा के विरोधी दलों के लिए तुलनात्मक रूप से मुफीद मानी जा रही थीं। इनमें धुबरी एआईयूडीएफ प्रमुख बदरुद्दीन अजमल का गढ़ रहा है। वह लगातार तीन बार से जीत भी रहे हैं, लेकिन कांग्रेस की तरह राजग गठबंधन भी यहां से मुस्लिम प्रत्याशी ही लड़ा रहा है।
इन सीटों पर लड़ेगी तृणमूल
कोकराझार, बारपेटा, लखीमपुर और सिलचर पर तृणमूल कांग्रेस ने लड़ने का ऐलान कर दिया है। बारपेटा से सीपीआई (एम) भी मैदान में है। इसी तरह तीन प्रत्याशी पहले घोषित कर चुकी आम आदमी पार्टी ने आईएनडीआईए का लिहाज करते हुए गुवाहटी से प्रत्याशी वापस ले लिया है, लेकिन बताया गया है कि वह डिब्रूगढ़ और सोनितपुर पर दावा कर रही है।
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