Lok Sabha Election 2024 बिहार में सत्ता और विपक्षी पार्टियों के अधिकांश उम्मीदवार अपनी उपलब्धियों के बजाय चेहरों के नाम पर वोट मांग रहे हैं। ये प्रत्याशी केन्द्र एवं राज्य सरकार की योजनाओं की ही आगे रख रहे हैं। जबकि जनता के सवाल इन प्रत्याशियों के व्यक्तिगत प्रदर्शन को लेकर है। ऐसे में सवाल है कि बिहार में मुद्दे बनेंगे निर्णायक या चेहरे ही तय करेंगे नतीजे?
अरुण अशेष, बिहार। यह आश्चर्य का विषय है कि राज्य में लोकसभा चुनाव लड़ रहे पक्ष और विपक्ष के अधिसंख्य उम्मीदवारों के पास अपनी किसी उपलब्धि के नाम पर वोट मांगने का साहस नहीं है। राजग के उम्मीदवार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्धियों के नाम पर वोट मांग रहे हैं।
उधर, महागठबंधन के उम्मीदवार नीतीश की अगुआई वाली राज्य सरकार के उस 17 महीने की उपलब्धियों के नाम पर वोट मांग रहे हैं, जिसमें राजद और कांग्रेस की भागीदारी थी। सबसे बड़ी उपलब्धि यह कि इन्हीं 17 महीनों में करीब चार लाख युवाओं को सरकारी नौकरियां दी गईं, इनमें दूसरे राज्यों के अभ्यर्थी भी थे।
एनडीए ने बदले 12 चेहरे
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में राजग के 39 उम्मीदवारों को सफलता मिली थी। इनमें से 12 सांसदों को राजग ने इस बार बेटिकट कर दिया। भाजपा, जदयू और लोजपा के चार-चार सांसद बेटिकट हुए। इनमें से कुछ दूसरे दलों की शरण में जा रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो अपने दल में रह कर नेतृत्व की कृपा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।इन्हें राज्यसभा, राजभवन, विधान परिषद या मनोनयन के किसी अन्य पद की आकांक्षा है। इनमें रालोजपा के अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस भी हैं, जिन्होंने केंद्रीय मंत्रिपरिषद से त्याग पत्र दे दिया था। नफा-नुकसान जोड़ फिर मोदी की शरण में आ गए हैं। राजग के 39 में से 27 पुराने सांसद मैदान में हैं। एक-दो को छोड़ शेष सांसदों को कामकाज का हिसाब देना पड़ रहा है।
योजनाओं के सहारे माननीय
कई क्षेत्रों में तो इन्हें क्षेत्र भ्रमण में भारी परेशानी उठानी पड़ रही है। उनसे पूछा जाता है कि पांच साल पहले के वादों का क्या हुआ? कोरोना महामारी थी। मगर इन दिनों यह क्षेत्र से अनुपस्थित रहने वाले सांसदों का बचाव भी कर रही है। सांसदों को यह कहने पर थोड़ी राहत मिल रही है कि कोरोना के कारण उनकी सेवा में थोड़ी त्रुटि रह गई थी।
महामारी की अवधि में केंद्र और राज्य सरकार की ओर से दी गई सुविधाओं का विवरण देकर भी ये अपने लिए सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास कर रहे हैं। ये प्रति व्यक्ति पांच किलो राशन, हर घर बिजली, नल का जल, कृषि अनुदान, पक्का आवास, मुख्य सड़कें, अस्पताल, पुल-पुलियों सहित सरकार की ओर से उपलब्ध कराई गई अन्य सुविधाओं को अपनी उपलब्धि की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं।
जनता के सवाल
जनता यह पूछ कर सांसद के दावे को अस्वीकार कर रही है कि इसमें आपका क्या योगदान है। ये सभी योजनाएं केंद्र- राज्य सरकार की हैं, सबके लिए हैं, इसका लाभ किशनगंज की जनता को भी मिल रहा है, जहां के सांसद कांग्रेसी हैं।
असल में सांसदों से अधिक प्रश्न उनके व्यवहार को लेकर पूछे जा रहे हैं। सरकारी योजनाओं के कारण गांवों की बुनियादी नागरिक सुविधाएं लगातार सुधर रही हैं। नाली और गली तक का निर्माण राज्य सरकार की योजनाओं से हो रहा है।अधिक परेशानी इस प्रश्न पर हो रही है कि चुनाव जीतने के बाद कितनी बार क्षेत्र में आए। राजग के उन सांसदों की संख्या भी कम नहीं है, जो चुनाव जीतने के पांच साल बाद ही अपने संसदीय क्षेत्रों के सुदूर इलाके में दूसरी बार नजर आ रहे हैं। जदयू के एक सांसद के बारे में रिकार्ड में दर्ज है कि कार्यवाही के समय लोकसभा में उनकी उपस्थिति 35 प्रतिशत से कम थी।
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क्षेत्र से टूटा संबंध
संसद में प्रश्न पूछने और बहस में हिस्सा लेने में भी इनकी भूमिका ऐसी नहीं रही, जिसका उल्लेख किया जाए। इन प्रश्नों से महागठबंधन के उम्मीदवारों को भी दो चार होना पड़ता है। महागठबंधन के दलों ने जिन्हें उम्मीदवार बनाया है, उनमें कुछ पूर्व सांसद भी हैं। इनसे उनके कार्यकाल के कामकाज के अलावा यह भी पूछा जा रहा है कि चुनाव हारने के बाद उन्होंने क्षेत्र से संबंध क्यों तोड़ लिया?
पूर्व केंद्रीय मंत्री व लोकसभा चुनाव में राजद के बांका से उम्मीदवार जयप्रकाश नारायण यादव के टिकट का यह कह कर विरोध किया गया कि 2019 में हारने के बाद वह क्षेत्र से कट गए। विरोध करने वाले राजद के कार्यकर्ता थे। कुछ ऐसी ही शिकायत इस क्षेत्र के वर्तमान जदयू सांसद गिरिधारी यादव के बारे में भी की गई थी। दोनों आमने-सामने हैं।
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नाराजगी ने नहीं किया प्रभावित
ऐसे में कोई सोच सकता है कि नाराज लोग उन्हें वोट नहीं करेंगे। यह नहीं होता है। पिछले कई चुनावों में वोटरों की नाराजगी का प्रभाव मतदान के दिन नजर नहीं आया है। वोटरों का यही भाव उम्मीदवारों को जीतने के बाद क्षेत्र से विमुख कर देता है। इस बार भी यही हो रहा है।राजग के उम्मीदवारों को पता है कि लोग केंद्र में नरेन्द्र मोदी की तीसरी बार सरकार बनाने के लिए उन्हें वोट देंगे। दूसरी तरफ महागठबंधन के उम्मीदवारों का आकलन है कि मोदी और समग्रता में राजग के विरोधी मतदाताओं का समूह बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के वोट देगा।
इसका प्रभाव चुनाव प्रचार पर भी पड़ रहा है। कोई आदमी बिहार की यात्रा करे तो उसे प्रचार से यह पता नहीं चलेगा कि सप्ताह भर बाद यहां के चार लोकसभा क्षेत्रों में पहले चरण का मतदान होगा। प्रचार की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि कौन किसको वोट देगा, यह निर्णय हो चुका है।
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