जानें सियासी फॉर्मूला: बिहार में राजद को 'माय' से मिली निराशा, अब 'बाप' से उम्मीद; क्या नीतीश के काम आएगा 'लव-कुश' समीकरण?
Lok Sabha Election 2024 बिहार में लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) तीन दशक पुरानी लीक को छोड़कर अब नए सामाजिक समीकरण को बनाने के प्रयास में जुट गई है। इससे पहले उसे माय फार्मूले से इतनी सफलता नहीं मिली जितनी उम्मीद पार्टी को थी। यही वजह है कि पार्टी ने अब बाप समीकरण पर काम करना शुरू कर दिया है।
अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) फार्मूला से प्रेरणा लेकर बिहार की राजनीति में राजद भी नए प्रयोग के दौर से गुजर रहा है। लगभग तीन दशकों से भी ज्यादा पुरानी लीक से हटकर वोट के लिए सामाजिक समीकरण का नया फार्मूला गढ़ते दिख रहा है।
क्या है 'बाप' फार्मूला
1990 से ही बिहार में मुस्लिम-यादव (माय) समीकरण के सहारे बिहार की राजनीति की धूरी बने लालू प्रसाद इस बार के लोकसभा चुनाव में दूसरे समुदायों पर भी डोरे डाल रहे हैं, जो प्रतिद्वंद्वी भाजपा-जदयू की परेशानी का सबब हो सकता है। हाल में ही तेजस्वी यादव ने माय के साथ बाप (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी और पुअर यानी गरीब) का फार्मूला दिया था, जिसमें राजद की राजनीति में सबको हिस्सेदारी देने का वादा था। हालांकि इसकी परीक्षा होना बाकी है।
बिहार विधानसभा चुनाव पर लालू की नजर
प्रथम चरण की चार सीटों में दो पर कुशवाहा जाति के प्रत्याशी उतारकर लालू ने राजद के वोट बैंक में विस्तार के साथ नीतीश के आधिपत्य में भी सेंधमारी के इरादे स्पष्ट कर दिए हैं। यह नया प्रयोग है, जिसकी सफलता-असफलता की परख बाद में होगी। अभी इतना स्पष्ट है कि लालू की नजर लोकसभा से ज्यादा बिहार विधानसभा चुनाव पर है, जो लगभग डेढ़ वर्ष बाद होना है।'लव-कुश' के सहारे नीतीश ने 'माय' को दी चुनौती
बिहार में कुशवाहा वोट पर अब तक नीतीश कुमार का एकाधिकार माना जाता रहा है। इसे लव-कुश समीकरण से भी जोड़ते हैं। लव मतलब कुर्मी और कुश मतलब कुशवाहा। 1994 में लालू के आभामंडल से अलग होकर नीतीश कुमार ने इसी कुर्मी-कुशवाहा (लव-कुश) के सहारे माय समीकरण को चुनौती दी थी।
क्यों घटी लोकसभा में राजद सांसदों की संख्या?
दशक भर बीतते-बीतते अन्य समुदाय भी लालू के खेमे से नीतीश की तरफ खिसकते चले गए, जिससे बिहार में सत्ता परिवर्तन का माहौल बनता गया। उस वक्त से अभी तक लालू और उनके वारिस माय की जमीन पर ही राजनीतिक फसलें बोते-उगाते और काटते रहे हैं। कुछ अतिरिक्त नहीं किया। इसका नतीजा हुआ कि लोकसभा में राजद सदस्यों की संख्या घटती चली गई।वर्ष 2014 में चार सांसद जीतकर आए और 2019 में शून्य पर पहुंच गया। निंद्रा टूटी तो रणनीति बदलने पर विवश हुए। कुशवाहा के घरों पर दस्तक का संकेत है कि राजद का प्रयास जदयू और भाजपा को नियंत्रण में रखने का है, क्योंकि नीतीश के साथ भाजपा भी इस बार सम्राट चौधरी के हाथ में बिहार की कमान देकर और कई बार खेमा बदलकर पार्टी के साथ साख को भी दांव पर लगाने वाले उपेंद्र कुशवाहा से गठबंधन कर कुशवाहा फोबिया से ही ग्रस्त दिख रही है।
अब लालू की ट्रेन भी उसी पटरी पर आ गई है। अभी और कई जातियों को राजद से जोड़ने का सिलसिला जारी रह सकता है, किंतु परिणाम बताएगा कि मंजिल तक कौन पहुंचेगा और किसकी ट्रेन रास्ते में ही बेपटरी हो जाती है।