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Lok Sabha Election 2024: सत्ता युद्ध का अजेय अभिमन्यु, जिसने कभी नहीं देखी पराजय, लेकिन आज किला बचाने के लिए संघर्ष

Lok Sabha Election 2024 महाराष्ट्र की राजनीति का प्रमुख चेहरा रहे शरद गोविंदराव पवार ने राजनीति के गुर मां के गर्भ में ही सीख लिए थे। रक्षा मंत्री से लेकर कृषि मंत्री और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष पद पर कार्य कर चुके शरद पवार ने सदैव स्पष्ट रवैया रखा और यही वजह है कि छह दशकों की महाराष्ट्र की राजनीति उनके इर्द-गिर्द घूम रही है।

By OM Prakash Tiwari Edited By: Sachin Pandey Updated: Sun, 28 Apr 2024 07:43 AM (IST)
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Lok Sabha Election 2024: शरद पवार आज तक कोई चुनाव हारे नहीं हैं।
ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। यदि यह कहा जाए कि अभिमन्यु की तरह शरद पवार ने भी राजनीति का पाठ मां के गर्भ में सीखा है, तो गलत नहीं होगा। क्योंकि अपने माता-पिता की नौवीं संतान शरद पवार जब मां के गर्भ में थे, तो उनकी माता शारदा बाई पुणे के लोकल बोर्ड की सदस्य थीं।

12 दिसंबर, 1940 को शरद पवार का जन्म होने के तीसरे ही दिन उस लोकल बोर्ड की एक महत्वपूर्ण बैठक में हिस्सा लेने के लिए शारदा बाई अपने नवजात शिशु को गोद में लिए बारामती स्थित अपने घर से बस का सफर तय करके पुणे पहुंच गई थीं। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि आज भी कार द्वारा पुणे से बारामती जाने में ढाई घंटे लग जाते हैं। यानी राजनीति का पाठ तो शरद पवार को उनकी माता जी ने घुट्टी में पिला दिया था।

आज तक नहीं हारे चुनाव

शायद यही कारण है कि शरद पवार आज तक कोई चुनाव हारे नहीं हैं। यह और बात है कि जीवन के उत्तरार्ध में उन्हें अपनी बेटी की सीट बचाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। छह बार लोकसभा सांसद और चार बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके शरद पवार बारामती से पांच बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। वह केंद्र में नरसिंहराव की सरकार में रक्षा मंत्री एवं मनमोहन सिंह की सरकार में 10 साल कृषि मंत्री का दायित्व भी निभा चुके हैं।

विरोध का साहस

अपने इन दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र बारामती को ऐसा सजाया-संवारा है कि देश के अन्य सांसदों के लिए वह एक प्रेरणा क्षेत्र एवं सीखने की जगह हो सकती है। यही कारण है कि बारामती से अब तक शरद पवार को अजेय माना जाता रहा है। ये शरद पवार ही थे, जिन्होंने 1999 के लोकसभा चुनाव से कुछ ही माह पहले विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया गांधी के विरोध का साहस जुटाया और कांग्रेस से त्यागपत्र देकर अपनी नई पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का गठन कर लिया।

उस समय उनके साथ कांग्रेस के दो और दिग्गज नेता पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए.संगमा एवं तारिक अनवर ने भी कांग्रेस छोड़ पवार की राकांपा में जाने का फैसला किया था। तब शरद पवार, तारिक अनवर और पी.ए.संगमा को क्रमशः राजनीति का अमर, अकबर, एंथोनी कहा जाता था। उनके इस फैसले के बाद लग रहा था कि महाराष्ट्र की पूरी कांग्रेस ही शरद पवार के साथ चली जाएगी। क्योंकि उससे ठीक पहले हुए 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वह 33 सीटें जितवाकर लाए थे।

अनुभव की ताकत

यही नहीं, उनकी ही रणनीति का परिणाम था कि स्वतंत्रता के बाद पहली बार रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के चार सदस्य चुनकर आए, वह भी सामान्य सीटों से। जबकि भाजपा-शिवसेना गठबंधन 10 सीटों पर सिमटकर रह गया था, लेकिन उस समय के कांग्रेस नेताओं की दृढ़ता का ही परिणाम था कि उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस को बचाए रखा, बल्कि शरद पवार को पश्चिम महाराष्ट्र की कुछ सीटों तक ही समेट दिया।

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तब 1999 में हुए लोकसभा चुनावों में शरद पवार की पार्टी सिर्फ छह सीटों पर सिमट गई थी। इससे यह साबित हुआ कि शरद पवार अपना पूरा जलवा कांग्रेस जैसी पार्टी के साथ रहकर ही दिखा सकते हैं। उस समय लोकसभा के साथ ही हुए विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस को जहां 75 सीटें मिली थीं, वहीं पवार की राकांपा को 58 सीटें। यह सच है कि 83 वर्षीय शरद पवार इस समय महाराष्ट्र के सबसे अनुभवी और पके हुए नेता हैं, लेकिन यह भी सच है कि आज तक उनकी पार्टी लोकसभा सीटों के मामले में कभी दहाई का अंक प्राप्त नहीं कर सकी।

घात और प्रतिघात

विधानसभा चुनावों में भी वह सिर्फ एक बार 2004 में कांग्रेस से दो सीट आगे निकल पाए हैं। तब उनकी पार्टी को 71 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 69 सीटें। इसके बावजूद उन्होंने महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद पर दावा करने के बजाय केंद्र में कृषि मंत्री बनने में ज्यादा रुचि दिखाई। उनके भतीजे अजीत पवार आज भी इस बात का अफसोस जताते हैं कि काका ने उस समय उनसे मुख्यमंत्री बनने का अवसर छीन लिया।

तब पवार राज्य में मुख्यमंत्री लेकर भी केंद्र में अपने लिए कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय ले सकते थे। उसके बाद से उनकी पार्टी कभी भी 2004 जैसा उच्चांक प्राप्त नहीं कर सकी। वह जोड़-तोड़ की राजनीति का हिस्सा बनकर प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न जरूर देखते रहे। यह स्वप्न देखते-देखते ही उनकी पार्टी राष्ट्रीय दर्जा पाकर फिर से क्षेत्रीय दर्जे पर आ सिमटी और अब तो पार्टी और पार्टी का चुनाव चिह्न दोनों उनके हाथ से निकल चुका है।

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छिन गई पार्टी

चुनाव आयोग और विधानसभा अध्यक्ष के फैसलों में उनकी पार्टी और चिह्न पर अधिकार उनके भतीजे अजीत पवार को प्राप्त हो चुका है। कहा जाता है कि यह स्थिति इसलिए पैदा हुई, क्योंकि 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने ही उद्धव ठाकरे को फोड़कर भाजपा के हाथ में आई हुई सत्ता छीन ली थी। महाविकास आघाड़ी का गठन करके उन्होंने उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया था।

भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार देवेंद्र फडणवीस इस घात को कभी नहीं भूले। महाविकास आघाड़ी की सरकार बनने के बाद डेढ़ साल तो कोविड महामारी में गए, लेकिन उसके बाद न तो उद्धव ठाकरे की पार्टी एक रह सकी, न शरद पवार की। इन दोनों पार्टियों में हुई बड़ी टूट का श्रेय भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को दिया जाता है।

बारामती में कठिन चुनौती

अब शरद पवार के लिए चुनौती कठिन है क्योंकि जिस बारामती से वह स्वयं पांच बार और उनकी बेटी सुप्रिया सुले तीन बार चुनाव जीत चुके हैं, उसी सीट से अब उनकी बेटी को भतीजे की पत्नी सुनेत्रा पवार से कड़ी चुनौती मिल रही है। यदि सीट न बचा सके, तो इस मराठा छत्रप का राजनीतिक उत्तरार्ध अच्छा नहीं माना जाएगा।

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