सुमिर गणेश शारदा माई माई बापन कै शीश नवाई।
गावो लड़ाई अब नेतन की, पंचों सुनियो ध्यान लगाय।। गुजरते दशकों के साथ सबसे ज्यादा बदलाव प्रचार के तरीकों में ही हुआ है। एक जमाना था जब ठेठ देसी अंदाज में प्रचार किया जाता था। बात ऐसी जो सीधे मतदाता के दिल पर लगे। तब न तो इंटरनेट मीडिया वार रूम बनते थे और ना ही मतदाताओं को रिझाने के लिए आडियो-वीडियो जैसे संवाद संपर्क थे।
मुनादी से बुलाए जाते थे मतदाता
पहले के चुनावों में प्रचार बहुत दिलचस्प होता था। स्थानीय बोली में मुनादी कर किसी भी पार्टी की सभा या बड़े नेता के गांव आकर प्रचार करने की सूचना दी जाती थी। मुनादी करने वाला ढोल-नगाड़े बजाते हुए कहता ‘सुनो-सुनो-सुनो सुबह 10 बजे सभा होगी।' बीसवीं शताब्दी के सातवें-आठवें दशक में चुनाव की तारीख सुनने के लिए श्रोता रेडियो के पास बैठ जाते थे। उस जमाने में टीवी तो पूरी गली में किसी के यहां नहीं होता था। कई लोगों को तो यह पता भी नहीं होता था कि कौन चुनाव लड़ रहा है। तब तो विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के आधार पर वोटिंग हो जाया करती थी। बस सबका जोर चुनाव चिह्न याद कराने पर रहता। जनसंघ का दीपक, कांग्रेस का गाय-बछड़ा और सोशलिस्ट पार्टी का बरगद।
नुक्कड़ सभाओं और कवि सम्मेलनों का था दौर
पहले नुक्कड़ सभाएं होती थीं, स्थानीय बोली के कवि सम्मेलन होते थे, कई इलाकों में नाटकों से प्रचार होता था लेकिन इन सबकी शान होते थे लोक गायक और गीत-संगीत मंडली। कभी ऐसा भी समय था कि मुहल्लों में आगे-आगे रिक्शा या पार्टी की प्रचार गाड़ी चलती और उस पर माइक लेकर बैठा आदमी चुनाव चिन्ह वाले बिल्ले और स्टिकर उछालता जाता और चिल्लाता भी जाता-गली-गली में शोर है...(प्रत्याशी का नाम लेकर) का जोर है। यह गाड़ी जिस दिन मुहल्ले में घूम जाती, लड़कों की तो बस मौज आ जाती। सोचती हूं उस समय का बचपन भी कितना भोला था। लड़कों को पार्टी से क्या मतलब। वे तो शर्ट पर स्टिकर लगाते और हाथ में झंडा लेकर शान से घूमते। एक नारा देखें-दाल रोटी खाएंगे....जी को लाएंगे।
गीतों की चुनावी बहार
आज यूट्यूब पर दलों का प्रचार करने वाले गीतों और गायकों की भरमार है। सारे गायक अपने-अपने नेताओं का प्रचार करते हुए सुनाई देंगे। पहले भी ऐसा होता था कि लोकगायक नेताजी का नाम जोड़ गीत बनाते...। सांसद जी बेजोड़ बाटे, हमरी ...दीदी के विधायक बनाइहा, फिर से चली वोट के बयार, फिर से आई अबकी ...सरकार। ऐसा नहीं है कि सिर्फ लोककलाकार, बल्कि मुंबई के अनेक कलाकार भी चुनावी प्रचार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। देश के एक प्रसिद्ध कलाकार ने तो एक समय में भाजपा, कांग्रेस, जदयू, सपा-बसपा सभी दलों के लिए प्रचार गीत गाए।
दूसरी तरफ लोककलाकारों में दलों या नेताओं के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा पाई जाती है। बालेश्वर यादव का मुलायम सिंह यादव के लिए प्रचार करना और गीतों का निर्माण करना सपा को शिखर पर पहुंचाने में एक महत्वपूर्ण कारक रहा। कन्हैया मित्तल के गाए गीत 'जो राम को लाये हैं, हम उनको लाएंगे’, ने अपना प्रभाव दिखाया और फिर दिखा रहा है। यह गीत तो जहां जाओ, लगातार बजता मिलता है। फिर वह धार्मिक आयोजन हो या कोई और कार्यक्रम। लेकिन हां, पहले बड़े नेताओं को देखने-सुनने के लिए भीड़ बड़ी कमाल की जुटती थी। मुझे आज भी याद है, गोरखपुर के टाउन हाल में पिताजी का मित्रों के साथ प्रसिद्ध नेता राजनारायण जी को सुनने जाना।
नेता का करिश्मा ही उसका सबसे बड़ा प्रचारतंत्र
राजनारायण बहुत रोचक वक्ता थे। उनमें भाषण के बीच में ही नारे गढऩे का अद्भुत कौशल था। ऐसे ही थे अटल बिहारी वाजपेयी जिनकी चुनावी सभा में उन्हें सुनने हर व्यक्ति पहुंचना चाहता था। वह घंटों लेट आते, लेकिन लोग जमे ही रहते। इंदिरा गांधी हों या लालू यादव, बात यही है कि नेता का अपना करिश्मा ही उसका सबसे बड़ा प्रचारतंत्र है।आज यह करिश्मा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में है। उन्हें देखने सुनने दूर-दूर से भीड़ आती है। मतदाताओं तक पहुंचने की उनकी शैली आधुनिक और बहुमुखी है। हर चुनाव में उनके दिए नारे अपने-आप में गीतों की शक्ल में ढल कर लोकप्रिय हो गए। 'अबकी बार मोदी सरकार' हो या 'मैं देश नहीं झुकने दूंगा’, सब जुबान पर चढ़कर मन में उतरने वाले नारे हैं।
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सबके तरकश में शब्दबाण
व्यक्तिगत से इतर राजनीतिक दलों के नारों की बात करें तो भाजपा का ‘चप्पा-चप्पा-भाजपा’ और ‘एक ही नारा, एक ही नाम-जय श्रीराम जय श्रीराम’ तो छोटे बच्चे भी दोहराते थे। अब जरा दूसरे दलों के नारे भी देखते हैं। ‘जय अखिलेश-तय अखिलेश’ और ‘चल पड़ी है लाल आंधी, आ रहे हैं समाजवादी’ ने भी बड़ी प्रसिद्धि पायी थी। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी का भी एक नारा लोगों ने तत्काल पकड़ लिया था। यह था-‘दस मार्च-सब साफ, बहनजी आस’। असल में उस चुनाव में वोटों की गिनती दस मार्च को ही होनी थी। बसपा के ही एक और नारे ने सबका ध्यान खींचा था-‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’।
उधर कांग्रेस भला कैसे पीछे रहती। उसका एक नारा तो बिल्कुल बसपा के एक नारे से मिलता जुलता आया ‘जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ लेकिन पिछले चुनाव में ‘लड़की हूं-लड़ सकती हूं’-इस नारे ने तो महिला विमर्श के एक पूरे मनोविज्ञान को बहस में ला खड़ा किया था। कांग्रेस के विरोध में भी एक नारा कभी बहुत उछला था-‘पी गए राशन पी गए तेल, यह देखो इंदिरा का खेल’।
मनोविज्ञान पर गहरी पकड़
नारे बहुत मेहनत से लिखे जाते हैं। इनके लिखने वाले मनोविज्ञान, इतिहास और समाजशास्त्र की बड़ी गहरी पकड़ रखते हैं। ये शब्दों से खेलना जानते हैं और बखूबी समझते हैं कि किसी एक विषय पर किसी एक व्यक्ति या समूह का मनोभाव कैसे उभारा जा सकता है। हालांकि शुद्धतावादी कहते हैं कि कई बार नारे सत्य न होकर केवल प्रोपेगंडा होते हैं लेकिन यह भी सच है कि ये नारे ही हर आंदोलन का ईंधन होते हैं। याद करें-‘करो या मरो’ और ‘सत्यमेव जयते’ या ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’।
मन के भाव होते हैं नारे
आज ये पाठ्यक्रमों में हैं और वॉट्सएप के जमाने में पैदा हुआ बच्चा भी इन्हें जानता है। भारत ही नहीं, हर देश नारों का उपयोग करता आया है। दूसरे विश्व युद्ध के समय हिटलर की एक लाइन बहुत दूर तक गई थी। यह थी-‘अगर तुम जीतते हो तो तुम्हें सफाई देने की जरूरत नहीं और हारते हो तो तुम्हें सफाई देने के लिए होना ही नहीं चाहिए।‘ नारे हमारे मन के भाव होते हैं। एक लाइन और कभी-कभी तो दो या तीन शब्द ही सबके मन की बात कह जाते हैं। जैसे आजादी की लड़ाई के समय हमारा अपना नारा-‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’। सच है, नारे प्रजातंत्र का श्रृंगार है, मतदाता को आकर्षित करने की पुकार हैं। जब तक चुनाव होते रहेंगे, दिलचस्प नारे और गीत आते रहेंगे!
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