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रथयात्राओं के अडिग रथी लालकृष्ण आडवाणी, कैसे बदली थी सियासत की हवा? अटल जी से था अनूठा रिश्ता

देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देश की राजनीति की धारा मोड़कर रख देने वाले नेता के रूप में जाना जाता है। उन्हें आधुनिक भारत की राजनीति का रथयात्री भी कहा जाए तो बड़ी बात नहीं है। अगर उन्हें राजनीति का शिखर पुरुष कहा जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। पढ़ें उनकी राजनीतिक यात्रा पर शत्रुघ्न शर्मा का आलेख...

By Jagran News Edited By: Ajay Kumar Updated: Sat, 25 May 2024 04:48 PM (IST)
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लोकसभा चुनाव 2024: लालकृष्ण आडवाणी... रथयात्राओं के अडिग रथी।
लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय राजनीति का शिखर पुरुष कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकालकर उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को फर्श से अर्श तक पहुंचाया, साथ ही देश की राजनीति की धारा को मोड़कर रख दिया। ‘जय श्रीराम, सौगंध राम की खाते हैं- मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे हों या फिर देश में सुराज और स्वराज लाने की जिद, लालकृष्ण आडवाणी हर मंच पर अपनी बात मुखर होकर उठाते रहे।

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संघ से शुरू किया सार्वजनिक जीवन

देश में जब भारत छोड़ो आंदोलन की गूंज थी, तब लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़कर सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की। शिक्षक के रूप में काम शुरू करने के बाद संघ की विचारधारा से प्रेरित समाचारपत्र आर्गेनाइजर में बतौर पत्रकार जुड़ गए। इसके बाद वे दिल्ली के महापौर, राज्यसभा सदस्य, केंद्रीय मंत्री की जिम्मेदारी निभाते हुए देश के उपप्रधानमंत्री पद तक पहुंचे। वे तीन बार भाजपा के अध्यक्ष बने, चार बार राज्यसभा एवं कुल सात बार लोकसभा के लिए चुने गए।

अलग रहा उनका प्रभाव

सोमनाथ से अयोध्या की राम रथयात्रा के अलावा जनादेश, स्वर्ण जयंती, भारत उदय, भारत सुरक्षा तथा जनचेतना यात्रा उनके खाते में दर्ज हैं। उन्हें आधुनिक भारत की राजनीति का रथयात्री भी कहा जाए तो बड़ी बात नहीं है। देश की राजनीति में उनका स्थान अलग तरह का रहा।

जब संघ ने सौंपी राजस्थान की जिम्मेदारी

2024 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 96 वर्षीय लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा की तो लोग उनके जीवन से जुड़े विविध पहलुओं को जानने को उत्सुक नजर आए। आठ नवंबर, 1927 को अविभाजित भारत के सिंध प्रांत के कराची शहर में जन्मे लालकृष्ण आडवाणी को संघ ने 1947 से 1951 तक राजस्थान में जिम्मेदारी सौंपी तो वे अलवर, भरतपुर, कोटा, बूंदी, झालावाड़ आदि शहरों में संघ का काम करते रहे।

आपातकाल में जाना पड़ा जेल

25 जून, 1975 को आपातकाल घोषित होने के बाद वे जेल गए। जेल से बाहर आए तो जनता सरकार में केंद्र में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने। 1998 में देश के गृहमंत्री रहते हुए उन्होंने आतंकवाद, अपराध व भ्रष्टाचार को समाप्त करने को कई कदम उठाए। पोटा जैसा कानून लाकर आतंकवाद व उग्रवाद पर लगाम कसने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई।

अटल जी से अनूठा रिश्ता

लालकृष्ण आडवाणी को 1970 में पहली बार दिल्ली से ही राज्यसभा में भेजा गया, वरिष्ठ नेता एवं कवि-हृदय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उनका एक अलग रिश्ता था। अटल बिहारी से रिश्तों के बारे में लालकृष्ण आडवाणी खुद बताते हैं कि दोनों के विचारों में कोई फर्क नहीं था, राष्ट्रवाद के मुद्दे पर दोनों किसी तरह का कोई समझौता न करने को प्रतिबद्ध थे।

खरी-खरी बात करते आडवाणी

अपनी सख्त मिजाज वाली छवि के बारे में आडवाणी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि लोग अटल जी से काम निकालते वक्त इस बात का ध्यान रखते थे कि यहां पर ही मामला सुलझा लो, अगर लालकृष्ण आडवाणी के पास बात गई तो मामला और गंभीर हो जाएगा। दोनों नेताओं की विपरीत छवि को लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के लिए हितकर मानते थे। लालकृष्ण आडवाणी खरी-खरी बात करते थे, वहीं अटल बिहारी वाजपेयी लोगों की बात सुनकर जवाब देने की बजाय मुस्कुरा देते थे।

राजनीति के रथयात्री

लालकृष्ण आडवाणी गुजरात की गांधीनगर सीट से छह बार सांसद चुने गए। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह तब उनके खास सेनापति थे। लालकृष्ण आडवाणी खुद गुजरात की राजनीति व नेताओं से लगातार संपर्क में रहते। लोकसभा के नामांकन पत्र में उनका पता अहमदाबाद भाजपा का खानपुर कार्यालय दर्ज था इसलिए हर चुनाव में वे इस क्षेत्र में अपने परिवार के साथ मतदान करने भी आते।

रथयात्रा से बदली सियासी हवा

लालकृष्ण आडवाणी को देश की राजनीति में रथयात्राओं का जनक कहा जाए तो गलत नहीं होगा। गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक श्रीराम रथयात्रा निकालकर लालकृष्ण आडवाणी ने भारतीय राजनीति में बड़ा उलट- फेर किया और उसी का परिणाम रहा कि भाजपा पहली बार केंद्र में सत्ता में आई।

जब अचानक अटलजी को घोषित किया पीएम चेहरा

मुंबई के शिवाजी पार्क में आयोजित एक रैली के दौरान भाजपा अध्यक्ष के रूप में बोलते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने अपने वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया था। अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्काल लालकृष्ण आडवाणी से कहा, ये क्या किया, मुझसे पूछा भी नहीं। लालकृष्ण आडवाणी बताते हैं कि तब उनका जवाब था कि पार्टी के अध्यक्ष के रूप में यह मेरा अधिकार था।

राजनीति में नैतिकता सर्वोपरि

2004 में पार्टी एवं एनडीए की हार के बाद उन्होंने तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी की कमान संभाली, लेकिन पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची में जिन्ना की मजार पर जाने को लेकर उनके खिलाफ पार्टी व संघ में विरोध के सुर उठने लगे और उन्हें अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा।

वर्ष 2009 में उन्हें प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाया गया, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बाजी मार ले गए। इससे पहले हवाला कांड के आरोपी जैन बंधुओं की डायरी में उनका नाम आया तो उन्होंने नैतिकता के नाते सांसद पद से इस्तीफा दे दिया और इस केस से बरी होने के बाद ही संसद में गए।

जीवन के कालखंड को पांच पड़ाव में बांटा

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पुस्तक ‘मेरा देश मेरा जीवन’ में अपने जीवन के कालखंड को पांच पड़ाव में बांटा है। 1986 में भाजपा अध्यक्ष तक का सफर, 1990 में राम रथयात्रा, वर्ष 1997 तक स्वर्ण जयंती रथयात्रा, 1998-2004 अटल सरकार में मंत्री, 2002 से 2004 तक उपप्रधानमंत्री।

लालकृष्ण आडवाणी बेबाकी से बोलने वाले नेता रहे। इसी के चलते उन पर कभी भारत में असहिष्णुता के बीज बोने के आरोप लगे तो कभी उन्हें हिंदुत्व की राजनीति का झंडाबरदार कहा जाने लगा। मीडिया से बातचीत में वे अपनी सख्त छवि को स्वीकारते हैं, लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि लालकृष्ण आडवाणी ने भारत में सो रहे हिंदुत्व को 'स्वयमेव मृगेन्द्रता' में परिवर्तित किया!

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