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Anti Defection Law: देश में दल-बदल लॉ की जरूरत क्यों पड़ी और कैसे बना इस पर कानून? पढ़िए दिलचस्प बातें

Anti Defection Law पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले कई चेहरे पाला बदल कर अब भाजपाई हो चुके हैं तो किसी ने ‘कमल’ छोड़कर ‘हाथ’ थाम लिया है। नेता दल-बदल करते हुए उन मतदाताओं के बारे में भी नहीं सोचते हैं जिन्होंने उसकी पार्टी की नीतियों कार्यक्रमों और विश्वसनीयता के आधार पर वोट दिया था।

By Jagran News Edited By: Deepti Mishra Updated: Fri, 12 Apr 2024 05:16 PM (IST)
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Lok Sabha Election 2024: क्या है दल-बदल और कैसे बना इस पर कानून?

चुनाव डेस्‍क, नई दिल्‍ली। चुनाव का मौसम है। नेता हो या राजनीतिक दल सबके लिए चुनाव में जीत ही अंतिम लक्ष्य है। माननीय जीत की संभावनाओं की तलाश में रातों-रात पुरानी पार्टी छोड़ कर नए दल में शामिल हो रहे हैं। शर्त बस एक है टिकट मिले या बेहतर भविष्य की गारंटी हो। यहां पार्टी की विचारधारा, नीतियां, कार्यक्रम कुछ मायने नहीं रखते।

पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले कई चेहरे पाला बदल कर अब भाजपाई हो चुके हैं तो किसी ने ‘कमल’ छोड़कर ‘हाथ’ थाम लिया है। नेता दल-बदल करते हुए उन मतदाताओं के बारे में भी नहीं सोचते हैं, जिन्होंने उसकी पार्टी की नीतियों, कार्यक्रमों और विश्वसनीयता के आधार पर वोट दिया था। राजनीति के वर्तमान दौर में चुनावी मौसम में दल-बदल आम हो गया है।

क्या है दल-बदल?

दल-बदल शब्द विद्रोह, असंतोष और एक व्यक्ति या पार्टी द्वारा की गई बगावत का संकेत करता है। आम तौर पर दल-बदल एक संगठन को छोड़ कर दूसरे संगठन में शामिल होने को कहा जाता है। राजनीतिक परिदृश्य में जब एक राजनीतिक दल का सदस्य अपना दल छोड़ कर दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो यह दल-बदल कहा जाता है।

भारत में दल- बदल का इतिहास

भारत की राजनीति में दल-बदल का इतिहास काफी पुराना है। भारत में दल-बदल की वजह से कई बार राजनीतिक अस्थिरता का दौर देखा गया है इससे देश में अनिश्चितता का माहौल भी बना। इसकी वजह से सरकारें प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करने के बजाए सरकार बचाने पर ज्यादा जोर देती रही हैं। ‘आया राम गया राम’ का नारा 20 वीं सदी के छठे दशक में विधायकों के लगातार दल-बदल की पृष्ठभूमि में ही बना था।

केंद्रीय विधायिका के दिनों से शुरू होता है, जब केंद्रीय विधायिका के एक सदस्य श्याम लाई नेहरू ने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अपनी निष्ठा ब्रिटिश पक्ष के लिए बदल ली थी। दल- बदल का एक और उदाहरण 1937 का है।

उस समय मुस्लिम लीग के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए हाफिज मोहम्मद इब्राहिम दल बदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। 20 वीं सदी के छठे दशक में विचारधारा के बजाए अन्य वजहों से राजनीतिक दल बदलने के मामले तेजी से बढ़े।

चव्हाण कमेटी की रिपोर्ट (1969) के अनुसार, चौथे लोकसभा के बाद मार्च 1967 और फरवरी 1968 की छोटी अवधि के बीच राज्यों में विधायकों ने बड़े पैमाने पर अपनी दलीय निष्ठा बदल ली। पहले और चौथे लोकसभा चुनाव के बीच दो दशक की अवधि में दल बदल के कल 542 मामले सामने आए। इसमें से 438 दल-बदल अकेले इन 12 महीनों में हुए। दल-बदल के इन मामलों में सत्‍ता की चाहत ने अहम भूमिका निभाई।

इस बात का पता इस तथ्य से भी चलता है कि दल-बदल करने वाले 210 विधायकों में से 116 विधायकों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया। इन विधायकों ने दल-बदल करके मंत्रिपरिषद के गठन में मदद की थी। ऐसे में दल-बदल के बढ़ते मामलों को रोकने के लिए कानून बनाने पर चर्चा शुरू हुई।

संसद में कब पारित हुआ दल-बदल विरोधी कानून?

वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया। साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची, जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है, को संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ के मामलों पर अंकुश लगाना था।

दल-बदल विरोधी कानून के मुख्य प्रावधान क्या हैं?

दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदि:

  • एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
  • कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • कोई सदस्य सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट देता है।
  • कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
  • छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत
  • सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

अयोग्य घोषित करने की शक्ति

कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है। यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित कोई शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है।

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दल-बदल कानून की कमियां

विलय को लेकर समस्या: दसवीं अनुसूची का नियम 4 विलय से जुड़े मामलों में सदस्यों को अयोग्य ठहराए जाने से कुछ हद तक राहत देता है, लेकिन कानून में कुछ खामियां भी हैं। प्रावधान एक राजनीतिक दल के सदस्य को ऐसी स्थिति में अयोग्यता से बचाता है, जहां मूल राजनीतिक दल ने दूसरे दल में विलय किया हो।

इसके लिए जरूरी है कि संबंधित राजनीतिक दल के कम से दो-तिहाई विधायक विलय के लिए सहमत हुए हों। यहां कमी यह है कि अयोग्यता से राहत दल-बदल के पीछे के कारण के बजाए सदस्यों की संख्या पर आधारित है। आम तौर पर सदस्य मलाईदार पद या मंत्री पद के लिए दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं। संभव है कि दो-तिहाई सदस्य इसी कारण के लिए विलय पर सहमत हुए हों।

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निष्कासन

दल बदल विरोधी कानून की एक बड़ी कमी यह है कि इसमें राजनीतिक दल द्वारा सदस्य के निष्कासन की स्थिति से निपटने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है। राजनीतिक दल के पास पार्टी के संविधान के तहत सदस्य को निष्कासित करने का अधिकार है, लेकिन सदस्य को पार्टी संविधान के तहत कोई अधिकार नहीं मिला हुआ है।

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स्पीकर को व्यापक अधिकार

दसवीं अनुसूची का नियम 6 सदन के अध्यक्ष को दलबदल के मामले में सदस्य की अयोग्यता को लेकर व्यापक अधिकार देता है। यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि अध्यक्ष अब भी उस पार्टी का सदस्य है, जिसने उसे अध्यक्ष पद के लिए नामित किया है। ऐसे में यह उम्मीद करना मुश्किल है कि अध्यक्ष अपनी राजनीतिक पार्टी के मामले में निष्पक्ष होकर काम करेगा।

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कानून के अनुसार, इस मामले में अध्यक्ष का फैसला अंतिम होता है, लेकिन अध्यक्ष अपना फैसला सुनाने में कितना समय लेगा, इसके लिए कोई सीमा नहीं तय की गई है। पार्टी अदालत जा सकती है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि अध्यक्ष का फैसला आ गया हो।

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चुनाव सुधारों पर दिनेश गोस्वामी कमेटी और चुनाव आयोग ने सिफारिश की है कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के मुद्दे पर फैसला करने का अधिकार राष्ट्रपति या राज्यपाल को दिया जाए, जो चुनाव आयोग की सलाह पर काम करेगा। हालांकि अब तक, इस सिफारिश को लागू नहीं किया गया है।

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