चुनावी नाव: झील और रेतीली राहों पर रेंग रही ग्रामीणों की जिंदगी
टिहरी झील के कई गांव आज भी काला पानी की सजा भुगत रहे हैं। टिहरी झील को नाव से पार कर जाना इतना खतरनाक है कि ग्रामीण डर के साये में रहते हैं।
By Raksha PanthariEdited By: Updated: Sun, 07 Apr 2019 02:43 PM (IST)
टिहरी, अनुराग उनियाल। सुबह के साढ़े आठ बज चुके हैं। ग्रामीण कोटी कॉलोनी में टिहरी झील के बोट प्वाइंट से ऊपर चढ़ रहे हैं। रास्ता इस कदर खतरनाक है कि हल्की-सी भी चूक सीधे टिहरी झील की अथाह गहराई में पहुंचा देगी। रौलाकोट, कंगसाली आदि गांवों से आ रहे ग्रामीण नाव के किनारे लगते ही तेजी से उतर रहे हैं। मैं भी इन ग्रामीणों के साथ प्रतापनगर क्षेत्र से नाव में सवार होकर लौटा हूं। इस सफर में और फिर बोट प्वाइंट पर जब मैंने चुनाव को लेकर ग्रामीणों के मन की थाह लेने की कोशिश की तो चेहरों पर झलक रहा दर्द सीधे उनकी जुबान पर आ गया। कहने लगे, चुनावी वादे हमेशा झूठे होते हैं। अगर उनमें जरा भी सच्चाई होती तो क्या वह इस तरह कष्ट साध्य जीवन जी रहे होते।
इसी बीच मेरी बातों को गौर से सुन रही कंगसाली निवासी मीना देवी बोलीं, 'देश में विकास का हल्ला मचा है और हमारे गांव में आज भी अंधकार पसरा है। मेरी तबीयत खराब थी, लेकिन प्रतापनगर में डॉक्टर नहीं है। इसलिए सुबह सात बजे झील के किनारे पहुंच गई, क्योंकि मर्ज की दवा तो नई टिहरी में मिलनी है।' एक लंबी सांस लेने के बाद फिर मीना देवी ने बोलना शुरू किया, 'नाव के सफर के बारे में तो हम लोगों ने कभी सपने में नहीं सोचा था। लेकिन, आज हमारी जिंदगी नाव के इर्द-गिर्द घूम रही है।' ग्रामीण मान सिंह कहते हैं, 'देश में ऐसे-ऐसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, जिनसे आम आदमी का कोई लेना-देना नहीं। पहाड़ की परेशानियों पर कौन बात कर रहा है। सब अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं।'
मान सिंह की बात को आगे बढ़ाते हुए ग्रामीण गोपाल सिं ने कहा, 'सारे नेता चुनाव में झूठे वादे करते हैं। क्या उन्हें पता नहीं कि पूरा प्रतापनगर क्षेत्र काला पानी की सजा भुगत रहा है। शाम को वापस लौटते वक्त जब झील में लहरें उठने लगती हैं तो ग्रामीणों को रात कोटी में ही गुजारनी पड़ती है।' फिर कहते हैं, 'सुना है देश में पिछले पांच साल में काफी बदलाव आया है, लेकिन हमारे जीवन में कब बदलाव आएगा, इसका उत्तर किसी के पास नहीं।'
संपत्ति देवी भी हालात से त्रस्त ऐसी ही महिला हैं। व कहती हैं, 'टिहरी झील ने हमारे खेत-जमीन सब निगल लिए। हम लोग विस्थापन की मांग कर रहे हैं, लेकिन आज तक हमारे गांव का विस्थापन नहीं हुआ। अफसोस तो इस बात का है कि इस चुनाव में विस्थापन की बात भी कोई नहीं कर रहा। हमारे रास्ते-पुल सभी झील में समा गए, लेकिन हमारे आने-जाने की कोई व्यवस्था नहीं। हमारे लिए तो यह झील ही पाकिस्तान और चीन हो गई है।'
बातचीत के इस इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए ग्रामीण कुंवर सिंह ने कहा, 'झील बनने से पहले टिहरी आने में आधा घंटा लगता था। लेकिन, आज हम बस या टैक्सी से भी नई टिहरी जाते हैं तो चार घंटे से ज्यादा लग जाते हैं। आप ही बताइए! दुनिया-जहान के मुद्दों पर माथापच्ची करने की किसे फुर्सत है।'
मैं ग्रामीण जयदीप सिंह से मुखातिब हुआ तो वह भी अपना रोना रोने लगे। बोले, 'प्रतापनगर क्षेत्र में अगर रात के वक्त कोई बीमार हो जाए तो उसे सड़क के रास्ते नई टिहरी लाना पड़ता है। बीमारी अगर गंभीर हुई तो मरीज के बचने की उम्मीद ही छोड़ दीजिए।' मैंने ग्रामीणों को राष्ट्रीय मुद्दों पर टटोलने की काफी कोशिश की, लेकिन किसी ने भी अपनी पीड़ा बयां करने के सिवा और कोई बात करना जरूरी नहीं समझा। ग्रामीणों के साथ एक घंटा गुजारने के बाद मैं भी कोटी कॉलोनी के किनारे नाव से उतर गया। सोच रहा था, जब अपनी पीड़ा ही असहनीय हो तो किसे चुनावी मुद्दों में उलझने की फुर्सत होगी।
दूध और सब्जी भी लाते हैं बेचने प्रतापनगर के रौलाकोट, कंगसाली, गमरी, चांठी आदि गांवों के ग्रामीण नाव में ही दूध और सब्जियां बेचने के लिए नई टिहरी लाते हैं। झील बनने से पहले टिहरी बाजार में भी इसी क्षेत्र के लोग दूध और सब्जियों की सप्लाई करते थे। लेकिन, झील बनने के बाद उनके इस रोजगार पर भी संकट खड़ा हो गया। फिर भी कुछ लोग अपनी गुजर-बसर के लिए दूध, सब्जी आदि नाव में लेकर नई टिहरी आते हैं।
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