जब न प्रजा नतमस्तक हुई और न हुक्म कानून बना; राजघरानों को 'सिंहासन' की चाह में छोड़ना पड़ा शाही अंदाज, फिर बनाई ये रणनीति
Lok Sabha Election 2024 राजशाही से लोकशाही की इस यात्रा में राजपरिवार सत्ता के केंद्र में बने रहने को कसमसाते रहे।आगरा और अलीगढ़ मंडल में भदावर राजघराना मुरसान राजघराना अवागढ़ राजघराना भरतपुर राजघराना और गभाना राजघराना चुनावी दंगल में नजर आता रहा। राज की नीति को बरकरार रखने के लिए राजघरानों की यह राजनीति अब भी चल रही है। राजघरानों की राजनीति पर दैनिक जागरण की रिपोर्ट...
दिलीप शर्मा, आगरा। महल, किले, हवेलियां। हाथी, घोड़े, रथ और सेना। मंत्री, दरबारी और सिंहासन। राजा जिधर से गुजरें, प्रजा नतमस्तक हो जाए। जो हुक्म दे दिया, वो कानून बन गया। राजा-रजवाड़ों का वो दौर इतिहास के पन्नों में दर्ज है। आजादी के बाद जब भारत में लोकतंत्र का उदय हुआ, उसके बाद ज्यादातर रजवाड़ों का सूरज भी मद्धिम पड़ता गया।
राजशाही से लोकशाही की इस यात्रा में राजपरिवार, सत्ता के केंद्र में बने रहने को कसमसाते रहे। चुनावी युद्ध में उतरे तो जय के साथ पराजय का भी स्वाद चखना पड़ा। हार-जीत की इस लड़ाई में अलग-अलग बिसातें भी बिछाईं। कभी अकेले दम सियासी तलवारें खींची तो कभी दलपति बनकर मैदान में उतरे। निकाय, जिला परिषद से लेकर विधायकी और सांसदी के चुनाव भी लड़े।
आगरा और अलीगढ़ मंडल में भदावर राजघराना, मुरसान राजघराना, अवागढ़ राजघराना, भरतपुर राजघराना और गभाना राजघराना चुनावी दंगल में नजर आता रहा। राज की नीति को बरकरार रखने के लिए राजघरानों की यह राजनीति अब भी चल रही है। राजघरानों की राजनीति पर दैनिक जागरण की रिपोर्ट...
मुरसान राजघराना
मुरसान राजघराना भी सियासी आसमान पर चमका। मुरसान राजघराने में सबसे लोकप्रिय नाम राजा महेंद्र प्रताप सिंह का रहा है। राजा महेंद्र प्रताप ने स्वतंत्रता संग्राम में देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। बच्चे व पत्नी को छोड़कर विदेश चले गए। अफगानिस्तान में देश की पहली अपदस्थ सरकार बनाकर अंग्रेजों को कड़ा संदेश दिया था।
चुनाव से जुड़ी और हर छोटी-बड़ी अपडेट के लिए यहां क्लिक करें
आजादी के बाद से राजा महेंद्र प्रताप तो राजनीति में आए ही उनके स्वजन ने भी हाथ आजमाया। साल 1951 में हुए स्वतंत्र भारत के पहले लोकसभा चुनाव में राजा महेंद्र प्रताप सिंह मथुरा में निर्दलीय चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं पाए थे। वर्ष 1957 में वह फिर निर्दलीय मैदान में उतरे और कांग्रेस के चौ. दिगंबर सिंह को पराजित किया। उस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी भी मैदान में थे, उन्होंने अपनी सभा में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को चुनाव जिताने की अपील की थी।
साल 1962 के चुनाव में चौ. दिगंबर सिंह ने उनको पराजित कर दिया। इसके बाद 1967 के चुनाव में उन्होंने अलीगढ़ लोकसभा सीट से किस्मत आजमाई, परंतु उस चुनाव में भी उनको निर्दलीय प्रत्याशी शिवकुमार शास्त्री के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा था।1952 से लेकर अब तक के सभी लोकसभा चुनावों की जानकारी के लिए यहां क्लिक करें
उनके स्वजन राजा गोपाल प्रसाद 1957 से 88 तक मुरसान के चेयरमैन रहे। राजा गोपाल प्रसाद के पिता किशोरी रमण 1957 में इगलास विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए थे। साल 1959 में राजा गोपाल प्रसाद मृत्यु के बाद उपचनाव में पत्नी रानी हरीश कुमारी ने चुनाव लड़ा, लेकिन वह कांग्रेस श्यौदान सिंह के हार गईं। राजा गोपाल प्रसाद के नाती गरुणध्वज वर्तमान में मुरसान में जिला पंचायत सदस्य हैं।
भरतपुर व अवागढ़ राजघराना
आगरा मंडल की मथुरा लोकसभा सीट पर अवागढ़ और भरतपुर राजघराने के सितारे भी चमके। 1967 के चुनाव में भरतपुर राजघराने के गिर्राज शरण उर्फ बच्चू सिंह चुनाव में निर्दलीय उतरे और जीत गए। वर्ष 1991 में जब इस राजघराने के विश्वेंद्र सिंह कांग्रेस से चुनाव लड़े तो उनको पराजय मिली। मथुरा सीट पर वर्ष 1984 में एटा के अवागढ़ राजघराने के मानवेंद्र सिंह कांग्रेस से चुनाव जीते। वर्ष 1989 में उन्हें दोबारा जनता दल की टिकट पर जीत मिली। वर्ष 2004 में भी वह कांग्रेस से चुनाव जीते। मानवेंद्र सिंह के छोटे भाई कुंवर नरेंद्र सिंह वर्ष 2019 में रालोद से मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।भदावर राजघराना
भदावर राजघराने का राजनीति से साथ पुराना है। इस राजघराने के लोग बाह विधानसभा सीट का प्रतिनिधिनित्व करते रहे हैं। वर्तमान में इसी राजघराने की पक्षालिका सिंह भाजपा से विधायक हैं। स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव में ही यह राजघराना राजनीति के मैदान में उतर गया था। 1951 में हुए उस चुनाव में राजा महेंद्र रिपुदमन सिंह पहली बार विधायक चुने गए थे। उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था। इसके बाद वह जनता पार्टी में शामिल हो गए थे और वर्ष 1980 तक चार बार विधायक बने। वर्ष 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। 1985 में यहां से कांग्रेस उम्मीदवार अमरचंद की जीत हुई थी। इसके बाद उनकी राजनीतिक विरासत को पुत्र अरिदमन सिंह ने संभाली। 1989 के चुनाव में अरिदमन सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और विधायक बने। वर्ष 1991 में वह जनता दल के प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे और जीत हासिल की। 'मेरा पावर वोट' अभियान से जुड़ी खबरों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंपहली बार शाही परिवार के सदस्य ने खाई मात
वर्ष 1996 के चुनाव से ऐन पहले अरिदमन सिंह भाजपा में शामिल हो गए और पार्टी की टिकट पर विधायक बने। 2002 का चुनाव भी भाजपा प्रत्याशी के रूप में जीते थे। परंतु वर्ष 2007 में बसपा के सोशल इंजीनियरिंग के दांव ने राजघराने को चुनौती दी और अरिदमन सिंह को हार का सामना करना पड़ा था। यह पहली बार था, जब भदावर घराने के सदस्य के चुनाव मैदान में होते हुए कोई दूसरा जीत हासिल करने में कामयाब रहा था। इसके बाद 2012 से पहले सपा का दबदबा बढ़ा तो अरिदमन सिंह ने भाजपा से किनारा कर लिया। 2012 का चुनाव सपा के टिकट पर जीता था और अखिलेश यादव की सरकार में मंत्री पद भी संभाला था।हालांकि, अगले चुनाव से पहले वह फिर भाजपा में शामिल हो गए। वर्ष 2017 में बाह से अरिदमन सिंह की पत्नी पक्षालिका सिंह भाजपा उम्मीदवार के रूप में विधायक चुनी गईं। 2022 में भी उन्होंने लगातार दूसरी जीत हासिल की। हालांकि, लोकसभा चुनावों में भदावर राजघराना कमाल नहीं दिखा सका। वर्ष 2009 में भाजपा की टिकट पर अरिदमन सिंह ने और 2014 में सपा की टिकट पर पक्षालिका सिंह ने फतेहपुर सीकरी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। दोनों बार राजघराने के सदस्य तीसरे स्थान पर ही रहे।यह भी पढ़ें -Lok Sabha Election 2024: हिमाचल में किसके नाम दर्ज है सबसे बड़ी और सबसे छोटी जीत, क्या जानते हैं आप?गभाना राजघराना
अलीगढ़ जिले के गभाना राजघराने का भी राजनीति से काफी पुराना नाता रहा है। इस घराने के राजा कुंवर लक्ष्मीराज सिंह जनपद में पहले जिला परिषद के अध्यक्ष रहे। उनकी राजनीतिक विरासत उनके बेटे कुंवर चेतन्यराज सिंह ने संभाली, वे विधायक रहे। उन्होंने 1962 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय मैदान में उतरकर कांग्रेस प्रत्याशी पंडित मोहनलाल गौतम को पराजित किया था।वर्ष 1980 में कुंवर चेतन्यराज सिंह की पत्नी रानी इंद्रा कुमारी जनता पार्टी से सांसद बनीं। उनके पोते कुंवर अभिमन्युराज सिंह ने अपने दादा-दादी के नक्शे कदम पर चलते हुए 2023 में नगर निकाय चुनाव में भाग्य आजमाया। गभाना नगर पंचायत अध्यक्ष पद के लिए हुए पहले चुनाव में पूर्व विधायक ठाकुर दलवीर सिंह की पुत्रवधू व पूर्व ब्लाक प्रमुख चंडौस भाजपा प्रत्याशी पुष्पलता सिंह को मात दी थी।जनता के राज ने बदले तौर तरीके
आजादी के बाद राजघराने जब चुनावी मैदान में उतरे तो ज्यादातर का शाही अंदाज कायम रहा। कई घरानों के प्रत्याशियों ने वर्षों तक हाथ जोड़कर वोट ही नहीं मांगे। प्रचार के दौरान राजघराने के सदस्य ऊपर बैठते थे और उनके कार्यकर्ता वोट देने का फरमान सुनाते थे। हालांकि, वक्त गुजरने के साथ अब खुद वोटों की अपील करने का सिलसिला शुरू हो गया है।यह भी पढ़ें -Bihar News: चुनावी रण में नजर नहीं आ रहे NDA के एक तिहाई सांसद; क्या बगावत कर के भी महासमर में कूद सकते हैं ये नेता?(इनपुट- अलीगढ़ से मुकेश चतुर्वेदी, आगरा से यशपाल सिंह चौहान, मथुरा से विनीत मिश्र)