यह बात है साल 1962 की और नया नवेला बना राज्य मध्यप्रदेश अपने तीसरे विधानसभा चुनाव देख चुका था। कांग्रेस पार्टी इस चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर सकी थी। तब के मुख्यमंत्री रहे कैलाश नाथ काटजू के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया था और हार का उपहार मिला था।
खंडवा के भगवंतराव मंडलोई को 18 महीनों के लिए दूसरी बार सूबे की कमान मिली। इससे पहले, राज्य के पहले सीएम रविशंकर शुक्ल के निधन पर उन्हें 20 दिन के लिए मुख्यमंत्री बनाया गया था।अक्टूबर, 1963 में कांग्रेस का कामराज प्लान आया तो मंडलोई को कुर्सी छोड़नी पड़ी। एक बार फिर कैलाशनाथ काटजू को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। लेकिन राजनीति के चाणक्य डीपी मिश्र (द्वारका प्रसाद मिश्र) ने ऐसा इंतजाम किया कि काटजू का नाम कट गया और शपथ मिश्र जी ने उठाई। यह 12 साल बाद यह कांग्रेस में उनकी शानदार वापसी थी।
यहां आपको वापसी शब्द खटका या नहीं? खटकना चाहिए। दरअसल द्वारका प्रसाद मिश्र कट्टर कांग्रेसी थे। फिर भी साल 1951 में नेहरू की चीन और पाकिस्तान को लेकर बनाई नीतियों के विरोध में उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। लोक कांग्रेस नाम की पार्टी बनाकर चुनाव में उतरे, लेकिन वोट देना तो दूर जनता ने उनके भाषण को भी नहीं सुना। खैर, 1963 में इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप से उनकी कांग्रेस पार्टी में वापसी हुई।
चार साल बाद जब डीपी मिश्र के नेतृत्व में चुनाव हुए तो कांग्रेस को 170 सीटें मिलीं। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 24 विधायक दल-बदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए। इस तरह से एक बार फिर 1967 में मिश्र मुख्यमंत्री बन गए।
रजवाड़े कभी कांग्रेस के नहीं हो सकते
डीपी मिश्र के अक्खड़ मिजाज के कई किस्से काफी चर्चित हैं। राजमाता विजयाराजे सिंधिया और उनके बीच का टशन का किस्सा। मिश्र ने ग्वालियर की राजमाता के सामने राज परिवारों को काफी खरी-खोटी भी सुनाई थी। ऐसा ही एक वाकया पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले पचमढ़ी में युवा कांग्रेस का सम्मेलन के दौरान भी हुआ था।
मिश्र ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था 'ये रजवाड़े कभी भी कांग्रेस के नहीं हो सकते, क्योंकि ये लोग लोकतंत्र के विरोधी हैं। लोकतंत्र में हम किसी को ना नहीं कह सकते, इसलिए हमें इनको पार्टी में लेना पड़ा, लेकिन जल्द ही हम इनको निपटा देंगे। इनका भरोसा नहीं किया जा सकता।'उस सम्मेलन में ग्वालियर रियासत की पूर्व राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहली पंक्ति में ही बैठी थीं। सब उनकी तरफ देखने लगे। राजमाता को यह बेहद अपमानजनक लगा। विजयाराजे में अपनी आत्मकथा में लिखा था, 'मैंने तभी तय कर लिया था कि मैं ये टिप्पणी हवा में नहीं जाने दूंगी।'
राजमाता के सामने कभी खड़े नहीं हुए
द्वारका प्रसाद मिश्र मिलने आनी वाली महिलाओं के सम्मान में हमेशा खड़े हो जाते थे। लेकिन राजमाता के लिए खड़ा होना उन्हें पसंद नहीं था। तो उन्होंने इसका भी एक तोड़ निकाल लिया था। उन्होंने अपने कार्यालय में एक चेंबर भी बनवा रखा था। जब भी उन्हें पता चलता कि विजयाराजे मिलने आई हैं तो वो अपनी कुर्सी से उठकर चेंबर में चले जाते थे।ऐसा ही एक किस्सा था कि राजमाता मिश्र जी से मिलने पहुंचीं तो वो अपने चेंबर में चले गए। मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली देख राजमाता आगंतुक कुर्सी पर बैठ गईं। उनके बैठने के बाद डीपी मिश्र चेंबर से बाहर आए, तो सम्मान के नाते राजमाता को उनके सामने खड़ा होना पड़ता था। जब भी विजयाराजे आतीं तो वो ऐसा ही करते थे।
महारानी को कराया इंतजार
डीपी मिश्र और राजमाता के बीच खटपट कभी कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ती ही गई। सितंबर 1966 में ग्वालियर में एक छात्र आंदोलन हुआ। पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दीं। राजमाता (उस वक्त की ग्वालियर की सांसद) जब इस मसले पर मिश्र से मिलने भोपाल पहुंची।
यहां डीपी मिश्र ने उन्हें लंबे इंतजार के बाद अपने ऑफिस में बुलाया। डीपी मिश्र भीतर के कमरे से आए और बिना अभिवादन किए ही बोले- 'छात्र आंदोलन के अलावा कुछ चर्चा करनी हो तो बताइए।' राजमाता समझ गईं थी कि दिखावे का वक्त जा चुका है, लेकिन चुनाव सिर पर थे। इसलिए वह चुप रहीं।साल 1967 में विधानसभा चुनाव हुए तो टिकट बंटवारे को लेकर दोनों के बीच ठन गई। राजमाता अपने लोगों को टिकट दिलाना चाहती थीं। इस पर तंज कसते हुए मिश्र ने कहा कि आपकी रियासत तो जा चुकी है। इससे नाराज विजयाराजे सिंधिया ने बगावत कर दी।
उन्होंने ग्वालियर के आसपास के जिलों में अपने प्रत्याशी उतार दिए। उन दिनों जो पोस्टर चिपकाए गए थे, उन पर लिखा था- राजमाता का आशीर्वाद प्राप्त कैंडीडेट। विजयाराजे और माधवराव सिंधिया ने खूब प्रचार भी किया, लेकिन डीपी का सितारा बुलंदी पर था। नतीजा यह हुआ कि राजमाता के प्रत्याशी हार गए।
महारानी का बदला
1967 का चुनाव जीतकर मिश्र ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की कुर्सी संभाली। लेकिन कुछ ही महीनों बाद राजमाता ने 36 विधायकों को तोड़कर द्वारका प्रसाद की सरकार गिरा दी। गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व संविद सरकार बनी, लेकिन कूटनीतिक दांव-पेंच चलकर चाणक्य मिश्र ने 19 महीने में संविद किला ढहा दिया।सरकार गिरते ही कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई, जिसमें मुख्यमंत्री के लिए मिश्र के नाम का प्रस्ताव दिया गया। तभी एक चुनावी याचिका पर फैसला आया, जिससे प्रदेश की राजनीति में भूकंप आ गया।
250 रुपये ने डुबो दिया करियर
चुनावी खर्च को लेकर अदालत में एक याचिका दायर की गई थी, जिस पर यह फैसला आया कि डीपी मिश्र ने चुनाव में निर्धारित खर्च सीमा से 249 रुपये 72 पैसे ज्यादा खर्च किए थे। अब मिश्र को छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दे दिया था। यह याचिका कमल नारायण शर्मा ने लगाई थी।वह साल 1963 में कसडोल सीट पर हुए उपचुनाव में मिश्र के प्रतिद्वंदी थे। हालांकि, इसके बाद भी वे राजनीति में सक्रिय रहे। इंदिरा गांधी के बाद उन्होंने राजीव गांधी के साथ भी कुछ दिन तक काम किया, लेकिन राजनीति की मुख्यधारा से दूर होते गए।
नेहरू के विरोधी और इंदिरा के चाणक्य बने
मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, संजय गांधी और राजीव गांधी, इन सभी नेताओं से उनका रिश्ता अलग-अलग तरह का रहा। मोतीलाल को अपना नेता माना तो उनके बेटे का जमकर विरोध किया और गुस्से में पार्टी भी छोड़ दी।इंदिरा के मनाने पर फिर पार्टी में आए तो साल 1972 तक राजनीतिक सलाहकार रहे, लेकिन संजय गांधी से उनकी नहीं बनी तो इंदिरा गांधी से भी नमस्ते कर ली। हालांकि, आखिरी दिनों में राजीव गांधी ने उन्हें दिल्ली बुलाया।
जिंदगी की ढलती शाम और वो खबर
डीपी मिश्र अच्छे और ड्राई क्लीन कपड़े पहनने के शौकीन थे। समय के बहुत पाबंद और दिन की शुरुआत हमेशा लजीज नाश्ते से ही करते थे। इतना ही नहीं, एयर कंडीशनर दफ्तर, घर और होटल में ठहरना पसंद करते थे। लेकिन उनके जीवन ने आखिरी दिन बहुत अच्छे नहीं रहे।कुछ किस्से ऐसे भी हैं, जिनको पढ़ने और सुनने वाले कहते हैं कि एक स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, कवि, कृष्णायन के रचयिता और राजनीति में महान हस्ती की अंतिम विदाई ऐसी नहीं होनी चाहिए थी।यह बात है साल 1988 की। निधन से कुछ वक्त पहले द्वारका प्रसाद बीमार थे। अस्पताल का बिल 15 हजार आया, जिसका भुगतान मध्यप्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने किया। यह खबर अगले दिन अखबारों में छपी, जिसके बाद हंगामा मच गया। इससे डीपी मिश्र इतना दुखी हुए कि उन्होंने अपनी पेंशन राशि से यह पैसा लौटाने की पेशकश की।
मृत्यु पर कफन भी नसीब नहीं हुआ
5 मई, 1988 को दिल्ली में डीपी मिश्र ने आखिरी सांस ली। उनका शव दिल्ली से जबलपुर लाया गया। शव यात्रा पूरे शहर से गुजरी। न शहर की दुकानें बंद हुईं और न इतनी बड़ी हस्ती के जाने पर हुजूम उमड़ा। अंतिम यात्रा में बमुश्किल 200 से 250 लोग शामिल हुए।पूर्व सीएम डीपी मिश्र के तीनों बेटे पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने जबलपुर आए। राज्य सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उन्हें अंतिम विदाई देने का ऐलान किया। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि अंतिम संस्कार के लिए कफन न उनके बेटे लाए का इंतजाम न उनके बेटों को करना पड़ा। शहर के विक्टोरिया अस्पताल से एक धुली चादर मंगाकर काम चलाया गया था।
अधूरी रही अंतिम इच्छा
पचमढ़ी शहर कभी मध्यप्रदेश की राजधानी हुआ करता था। गर्मियों में डीपी मिश्र कामकाज यहीं से चलाया करते थे। उनको पचमढ़ी बेहद प्रिय था। वह अपने जीवन के आखिरी दिन यहीं बिताना चाहते थे। उन्होंने पचमढ़ी में ही अपने अंतिम संस्कार की इच्छा जताई थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उनका अंतिम संस्कार जबलपुर में हुआ था।
मिश्र का बेटा बना बाजपेयी सरकार में संकटमोचक
डीपी मिश्र के बेटे ब्रजेश मिश्र आईएएस अधिकारी बने। पिता कट्टर कांग्रेसी थे, लेकिन बेटा साल 1991 में भाजपा में शामिल हुआ। ब्रजेश मिश्र ने सात साल बाद अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधान सचिव बनने के लिए भाजपा छोड़ दी थी। वह अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत के मुख्य सचिव तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे।मई, 1998 में परमाणु परीक्षण किए जाने पर विकसित देशों के विरोध को खत्म करने में अहम भूमिका निभाई थी। ब्रजेश मिश्र राजग सरकार में विदेश नीति को एक नई दिशा देने वाली अहम हस्ती व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के संकटमोचक माने जाते थे।
यह भी पढ़ें - Madhya Pradesh assembly election 2023: पत्रकार से पार्षद और फिर रातोंरात मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनने की कहानी(सोर्स: राजनीतिनामा मध्यप्रदेश, मेरा जिया हुआ युग, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के, प्रिंसेस: द ऑटोबायोग्राफी ऑफ द डॉवेजर महारानी ऑफ ग्वालियर)