प्रणब मुखर्जी भी किसी एक नाम पर सभी को सहमत नहीं करा पाए। ऐसे में संजय गांधी के कहने पर अर्जुन को विधायक दल का नेता बना दिया गया। कैलाशनाथ काटजू के बाद अर्जुन सिंह पहले सीएम थे, जो पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाए थे।
परिवार सामंती, लेकिन बेटा निकला विरोधी
अर्जुन सिंह का जन्म 5 नवंबर, 1930 सामंती खानदान में हुआ था। पिता राव शिव बहादुर सिंह चुरहट गढ़ी के जागीरदार और कांग्रेसी नेता थे। आजादी के बाद वह विंध्य प्रदेश के पहले मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री भी बने।
उस वक्त खानदानी सामंत रईसी से रहते थे और लोगों से बेगारी लेते थे। आदिवासियों की पीठ पर सामान ढोते और शिकार के लिए हांका लगवाते, लेकिन अर्जुन सामंती नहीं थे, बल्कि वह इस व्यवस्था के विरोधी थे।
गांधी ने पकड़ी टाई तो फिर कभी नहीं पहनी
अर्जुन सिंह के सामंती विरोधी होने के कई किस्से बड़े ही चर्चित हैं। बताया जाता है कि जब सात साल के थे, तब उनको इलाहाबाद (प्रयागराज) पढ़ने भेज दिया गया। उन दिनों महात्मा गांधी इलाहाबाद आए। अर्जुन दोस्तों संग गांधी को देखने पहुंचे।
महात्मा गांधी जब उनके सामने से गुजरे तो अर्जुन सिंह की टाई पकड़ ली। बालक अर्जुन को लगा कि गांधी जी को उनका टाई पहनना पसंद नहीं है। उस दिन के बाद अर्जुन सिंह ने कभी टाई नहीं पहनी।
पिता के खिलाफ जाकर माफ किया किसानों का लगान
10 साल के हुए। परिवार के संग दशहरे के एक कार्यक्रम में जाना था। अर्जुन को राजसी कपड़े पहनने को दिए गए तो उन्होंने साफ मना कर दिया और बड़े ही साधारण से कपड़े पहन कार्यक्रम में पहुंचे।
जब कॉलेज में पढ़ रहे थे तो पिता राव शिव बहादुर सिंह ने जायदाद का बंटवारा कर दिया। उसी साल इलाके में अकाल पड़ गया।अर्जुन ने किसानों का लगान माफ कर दिया। पिता को बड़ा गुस्सा आया, लेकिन अर्जुन के फैसले को मानना पड़ा।
पिता को नेहरू ने किया था भरी सभा में बेइज्जत
रीवा में एक चुनावी सभा में गुस्से से तमतमाते हुए नेहरू ने कहा, ''चुरहट से खड़ा होने वाला उम्मीदवार कांग्रेस का प्रत्याशी नहीं है। हैरानी है, जिस इंसान के खिलाफ हाईकोर्ट में मुकदमा चल रहा है, उसे पार्टी का चुनावी टिकट कैसे दे दिया गया? वह हमारा अधिकृत उम्मीदवार नहीं है।''
जिस कांग्रेसी उम्मीदवार को नेहरू ने मंच से नकार दिया था, वह कोई और नहीं, मंच के नीचे खड़े छात्र नेता अर्जुन सिंह के पिता थे। उसी वक्त अर्जुन सिंह ने कसम खाई कि आज परिवार पर जो कलंक लगा है, उसे जनता की सेवा करके एक दिन धो डालूंगा।
क्या था मामला?
अप्रैल, 1949 की एक सुबह इलाहाबाद के एक अखबार में पहले पन्ने पर खबर छपी कि राव शिव बहादुर सिंह को दिल्ली में 25 हजार रुपये की रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार कर लिया गया है। दरअसल, अर्जुन सिंह के पिता पर पन्ना की हीरा खदानों की लीज के मामले में 'पन्ना डायमंड माइनिंग सिंडिकेट' के नगीनदास मेहता से पैसे लेने का आरोप लगा था।
इसी के साथ शुरू हुए अर्जुन सिंह के परिवार के बुरे दिन। कांग्रेस ने टिकट दिया, लेकिन नेहरू ने अपना प्रत्याशी मानने से मना कर दिया। 1952 में शिव बहादुर सिंह चुनाव हारे। 1954 में मुकदमा हार गए और तीन साल की जेल हुई।देश में पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने वाले वह पहले नेता होने का धब्बा लग गया। शिव बहादुर टूट गए और साल 1961 में उनकी मौत हो गई। पिता के रिश्वत मामले की वजह से बेटे पर भी ताउम्र कीचड़ उछलता रहा।
अर्जुन सिंह के पिता को जब नेहरू ने सबके सामने बेइज्जत किया था, उस वक्त अर्जुन की उम्र 22 साल थी और वह छात्र नेता थे। पिता के अपमान और परिवार पर लगे दाग को मिटाने के लिए वह जनता के बीच जाने लगे और उनके सुख-दुख में शामिल होने लगे। जनता की समस्याएं कम करने के लिए जो बन पड़ता वह भी करते। इस तरह अर्जुन सिंह की अपनी एक पहचान बन चुकी थी।
नेहरू के प्रस्ताव को ठुकरा दिया
अर्जुन सिंह की सक्रियता को देखते हुए पांच साल बाद प्रदेश कांग्रेस नेताओं ने नेहरू से सिफारिश की। 1957 के चुनाव में नेहरू ने अर्जुन को नेहरू से टिकट देने के लिए अपने घर बुलाया, लेकिन उन्होंने इस ऑफर को ठुकरा दिया। उन्होंने नेहरू जी को 1952 की चुनावी सभा के दौरान कही गई उनकी बात भी याद दिलाई। साथ ही यह वादा भी किया कि निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद ही कांग्रेस पार्टी में आ जाऊंगा।
अर्जुन सिंह सीधी जिले की मझौली विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीतकर विधानसभा पहुंचे। कांग्रेस के उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई। इसी के साथ अर्जुन सिंह ने यह भी साबित कर दिया कि उनके परिवार पर जनता को भरोसा है।इसके बाद वह आनंद भवन गए। नेहरू से मिले और कांग्रेस विधायक दल में शामिल हुए। 1962 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस की टिकट पर लड़े और जीते। राज्य मंत्री भी बने, लेकिन 1967 का चुनाव हार गए।यह चुनाव हराने वाला कोई और नहीं उनके अपने राजनीतिक गुरु द्वारका प्रसाद मिश्र थे। डीपी मिश्र को लगता था कि अर्जुन सिंह विजयाराजे सिंधिया खेमे के हैं। चुनाव नतीजे आने के कुछ दिन बाद ही डीपी सरकार भी गिर जाती है। इसके बाद अर्जुन सिंह उमरिया सीट से उपचुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। 1972 में फिर चुनाव जीते और पीसी सेठी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे।यह वो समय था जब मध्यप्रदेश को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। साल 1977 में कांग्रेस चुनाव हार गई। सिटिंग सीएम श्यामाचरण शुक्ल अपनी सीट तक नहीं बचा पाए। तब तक अर्जुन सिंह संजय गांधी के दरबार में जगह बना चुके थे और उन्हें इसका फायदा भी मिला। कांग्रेस ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष बना दिया।
भोपाल में अर्जुन सिंह के घर रुकीं इंदिरा गांधी
समय का चक्र घूमा। अर्जुन सिंह, इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी बन गए। इंदिरा गांधी जब दतिया के मंदिर में पूजा करने गईं तो भोपाल में अर्जुन सिंह के यहां रुकीं। 1980 के चुनाव में संजय गांधी खुद अर्जुन सिंह के लिए चुनाव प्रचार करने चुरहट आए।कांग्रेस पार्टी जीती तो विधायक दल का नेता चुनने की प्रक्रिया शुरू हुई। केपी सिंह, विद्याचरण शुक्ल, प्रकाश चंद सेठी, शिवभानु सिंह सोलंकी, अर्जुन सिंह और कमलनाथ के नाम सामने आए। लेकिन अर्जुन सिंह को कांग्रेस हाईकमान का साथ मिला और वह मुख्यमंत्री बन गए।
जब एक दिन के सीएम बने
इसके बाद, साल 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को ही जीत मिली। 11 मार्च, 1985 को अर्जुन सिंह ने दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 12 मार्च 1985 को वह संभावित मंत्रियों की सूची लेकर दिल्ली पहुंचे, जहां राजीव गांधी ने उन्हें सीएम पद से इस्तीफा दिलाकर पंजाब का राज्यपाल बना दिया।इसके बाद ही मोतीलाल वोरा को सीएम की कुर्सी और दिग्विजय सिंह को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया या। हालांकि, फरवरी 1988 में अर्जुन सिंह बतौर मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश लौट आए। इसी के साथ ही उन्होंने तीसरी बार सीएम पद की शपथ ली।
भोपाल गैस त्रासदी का दाग
साल 1984 में 2-3 दिसंबर की रात भोपाल की हवा में मौत बह रही थी। भोपाल शहर के बैरसिया इलाके के पास बने यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैस मिथाइल आइसो साइनाइड रिसकर हवा में घुलने लगी।आसपास के लोग सोते-सोते ही मौत के आगोश में चले गए। कुछ घबराकर भागे और हांफते-हांफते मर गए।सरकारी आंकड़ों में भोपाल गैस त्रासदी में मरने वालों की संख्या 3,787 बताई गई है, जबकि सुप्रीम कोर्ट में पेश की गई एक रिपोर्ट में यह संख्या 15,724 से ज्यादा बताई गई है।हजारों लोगों के मरने से पहले ही इस फैक्ट्री हटाने की बात हुई थी। आईएएस अधिकारी एमएन बुच ने जब फैक्ट्री हटाने के लिए कहा तो उनका ट्रांसफर कर दिया गया। इसके बाद भी यूनियन कार्बाइड का विरोध जारी था। तब अर्जुन सरकार के श्रममंत्री ने कहा था, ''यूनियन कार्बाइड 25 करोड़ की संपत्ति है, पत्थर का टुकड़ा नहीं, जिसे इधर से उधर रख दूं।''
बंगले से भाग गए थे अर्जुन सिंह
गैस रिसने की अगली दोपहर फिर अफवाह फैली कि फैक्ट्री की टंकी फूट गई। लोग जान बचाकर भागने लगे। अफसर ने इसे अफवाह बताया। हालांकि, कुछ लोग बताते हैं कि तब अर्जुन सिंह खुद अपने केरवा डैम वाले बंगले से भाग गए थे। परिवार को सरकारी हवाई जहाज में लेकर इलाहाबाद (मौजूदा प्रयागराज) चले गए थे।फिर कानूनी कार्रवाई का ड्रामा चला। 6 दिसंबर 1984 को मुख्य आरोपी यूनियन कार्बाइड के सीईओ वॉरेन एंडरसन को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी ऐसी कि तत्कलीन एसपी स्वराज पुरी और डीएम मोती सिंह मुख्य आरोपी को रिसीव करने पहुंचे। फिर एंबेसडर में बैठाकर यूनियन कार्बाइड के गेस्ट हाउस ले गए।अगले ही दिन राज्य सरकार के विमान में बिठाकर एंडरसन को दिल्ली भेज दिया गया और वहां से वो अमेरिका चला गया। इसके बाद एंडरसन कभी भारत नहीं आया। यह सब अर्जुन सिंह के कार्यकाल में ही हुआ था।
चुरहट लॉटरी कांड में गई कुर्सी
अर्जुन सिंह को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि चुरहट लॉटरी कांड का जिन्न बोतल से बाहर आ गया।दरअसल, 1982 में अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह ने चुरहट चिल्ड्रेन वेलफेयर सोसाइटी बनाई। बनाने मकसद बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य के लिए काम करना था। हालांकि, 17 करोड़ रुपये के गबन की बात सामने आई। इस कांड में अर्जुन सिंह को कुर्सी छोड़नी पड़ी। इस कुर्सी पर दोबारा बैठे कभी उनके शिष्य और फिर विरोधी बन चुके मोतीलाल वोरा।हालांकि, बाद में इस मामले में अर्जुन सिंह को कोर्ट ने बरी भी कर दिया था, लेकिन तब तक सत्ता पलट चुकी थी। इसके बाद अर्जुन सिंह फिर कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए।
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