Move to Jagran APP

महाराष्ट्र में चुनाव नजदीक; लेकिन सीटों पर तकरार नहीं हो रही खत्म; उद्धव ठाकरे और कांग्रेस को लेने होंगे कड़े फैसले

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे पर शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस के बीच हो रही तकरार उस बेमेल गठबंधन का कुफल है। 2019 में जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद पाने के लिए अपने दल शिवसेना का गठबंधन कांग्रेस और राकांपा के साथ किया तभी ये आशंका जताई जाने लगी थी कि एक-दूसरे से लड़कर आए ये दल भविष्य में एक साथ कैसे चल पाएंगे।

By Jagran News Edited By: Jeet Kumar Updated: Sun, 20 Oct 2024 05:45 AM (IST)
Hero Image
चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे पर शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस के बीच हो रही तकरार

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे पर शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस के बीच हो रही तकरार उस बेमेल गठबंधन का कुफल है, जो 2019 में विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद हुआ था। ये बेमेल गठबंधन अविभाजित शिवसेना का कांग्रेस और राकांपा के साथ हुआ और एक साल बाद राकांपा (अजीत) का भाजपा एवं शिवसेना (शिंदे) के साथ भी हुआ।

2019 में जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद पाने के लिए अपने दल शिवसेना का गठबंधन कांग्रेस और राकांपा के साथ किया, तभी ये आशंका जताई जाने लगी थी कि एक-दूसरे से लड़कर आए ये दल भविष्य में एक साथ कैसे चल पाएंगे, क्योंकि 30 साल से महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा का गठबंधन चलता आ रहा था और पिछले 20 साल से राकांपा और कांग्रेस भी सत्ता में साथ-साथ ही रहते आए थे।

भाजपा के साथ गठबंधन कर कांग्रेस या राकांपा के विरुद्ध चुनाव लड़े थे

1999 में शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी भले अलग बना ली थी। उन्होंने चुनाव भी कांग्रेस से अलग लड़ा था। लेकिन चुनाव के बाद सरकार उन्होंने कांग्रेस के साथ ही बनाई थी। तबसे 2014 तक राज्य में कांग्रेस-राकांपा की ही सरकार रही थी। वैचारिक धरातल पर भी वह कांग्रेस से अलग नहीं थे। लेकिन शिवसेना का राकांपा और कांग्रेस के साथ जाना न तो शिवसेना के अधिसंख्य मतदाताओं को पसंद आया था न ही उसके ज्यादातर विधायकों को, क्योंकि वे भाजपा के साथ गठबंधन कर कांग्रेस या राकांपा के विरुद्ध चुनाव लड़े थे।

शिवसेना विधायकों को उसी समय आशंका थी कि पांच साल बाद उनकी सीट पर कांग्रेस या राकांपा के वे नेता भी दावेदारी करेंगे, जिन्हें हराकर वह विधानसभा में पहुंचे हैं। यही कारण रहा कि ढाई साल बाद जब एकनाथ शिंदे ने शिवसेना से बगावत की तो शिवसेना जैसी सुगठित मानी जाने वाली पार्टी को तोड़कर 40 विधायक अपने साथ जोड़ने में उन्हें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी।

जीशान सिद्दीकी को अब कांग्रेस से निकाला जा चुका है

अब 2024 के विधानसभा चुनाव से पहले टिकट वितरण के अवसर पर शिंदे के साथ आए ज्यादातर विधायकों को तो टिकट मिलने की संभावना बनी हुई है, लेकिन उद्धव ठाकरे को वह सीटें पाने के लिए कांग्रेस के साथ तकरार करनी पड़ रही है, जहां पिछली बार वह कांग्रेस से लड़कर जीती थी या दूसरे स्थान पर रही थी। बांद्रा (पूर्व) की सीट ऐसी ही एक सीट है, जहां कांग्रेस के उम्मीदवार जीशान सिद्दीकी ने शिवसेना को हराया था। जीशान सिद्दीकी को अब कांग्रेस से निकाला जा चुका है। लेकिन कांग्रेस इस सीट पर अपना दावा छोड़ना नहीं चाहती है। जबकि शिवसेना ने इस सीट पर अपनी दावेदारी मानते हुए अपनी युवा सेना के अध्यक्ष वरुण सरदेसाई की उम्मीदवारी घोषित भी कर दी है।

बांद्रा पूर्व जैसी कई सीटें हैं, जिन्हें कांग्रेस अपने पास रखना चाहती है

बांद्रा (पूर्व) जैसी और भी कई सीटें हैं, जिन्हें कांग्रेस अपने पास रखना चाहती है। खासतौर से मुस्लिम बहुल सीटें, जहां उसे समुदाय विशेष का भरपूर समर्थन मिलने की उम्मीद है। लेकिन शिवसेना दबंगई दिखाकर वो सीटें हासिल करना चाहती है। लोकसभा चुनाव में भी शिवसेना ने उत्तर-पश्चिम मुंबई, उत्तर-मध्य मुंबई और सांगली की सीटों पर पहले ही अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे। इनमें से सिर्फ उत्तर-मध्य की सीट से ही वह जीत सकी, बाकी दोनों सीटें वह हार गई थी।

कांग्रेस विधानसभा चुनाव में शिवसेना की यह दबंगई स्वीकार नहीं करना चाहती। खासतौर से मुस्लिम बहुल सीटों पर वह शिवसेना (यूबीटी) को वाकओवर देकर अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहती, क्योंकि लोकसभा चुनाव में कम सीटों पर लड़कर भी उसका जीत प्रतिशत शिवसेना (यूबीटी) के बेहतर रहा है।

बेमेल गठबंधन का कुफल महाविकास आघाड़ी में सामने आ रहा है

सत्तारूढ़ महायुति में भी दिख चुकी है यह स्थिति जिस तरह से बेमेल गठबंधन का कुफल महाविकास आघाड़ी में सामने आ रहा है, उसी तरह से यह कुफल सत्तारूढ़ महायुति में लोकसभा चुनाव में भी दिखाई दे चुका है। यह बेमेल गठबंधन राकांपा (अजीत) का भाजपा और शिवसेना (शिंदे) के साथ था। भाजपा नेता स्वीकार कर चुके हैं कि उन्हें अजीत पवार को साथ लेने का कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। हालांकि, विधानसभा चुनाव भी भाजपा अजीत पवार के साथ ही लड़ रही है।