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Rajasthan elections 2023: क्रिकेटर का बेटा जिसे मंदिर के महंत ने पाला, 17 साल तक रहे राजस्थान के CM; शादी के विरोध में बंद था पूरा शहर

Rajasthan Assembly elections 2023 CM Ki Kursi or vo Kahani सीएम की कुर्सी और वो कहानी... में आज आप पढ़ेंगे राजस्थान के उस मुख्यमंत्री का किस्सा जो एक मशहूर क्रिकेटर के बेटे थे। जब उनकी शादी हुई तो विरोध में पूरा शहर बंद रहा। पढ़िए सबसे लंबे समय तक राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे मोहन लाल सुखाड़िया की राजनीतिक जिंदगी से जुड़े किस्‍से...

By Deepti Mishra Edited By: Deepti Mishra Updated: Wed, 08 Nov 2023 12:08 PM (IST)
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Rajasthan Assembly elections & CM Ki Kursi or vo Kahani : राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे मोहनलाल सुखाड़िया से जुड़े किस्‍से...

 ऑनलाइन डेस्क, नई दिल्‍ली। सीएम की कुर्सी और वो कहानी... में आज आप पढ़ेंगे राजस्थान के उस मुख्यमंत्री का किस्सा, जो एक मशहूर क्रिकेटर के बेटे थे। उनके पिता झालावाड़ नरेश के बुलावे पर गुजरात से राजस्थान आए तो फिर यहीं के हो गए। जब उनकी शादी हुई तो विरोध में पूरा शहर बंद रहा।

जब राजनीति में आए तो जमे जमाए दिग्गजों की छुट्टी कर दी। कम उम्र में मुख्यमंत्री बने और 17 साल तक राज्य के मुखिया बने रहे। नेहरू और इंदिरा भी उन्हें किनारे नहीं कर सके। ये ऐसा नेता थे जो पैदल ही रास्ते नाप लिया करते थे। खेतों में जाकर किसानों से मिलते और कार में फाइलों का काम निपटाते थे। जहां भूख लगती, वहीं दरी बिछाकर खाना खा लेते थे।

पढ़िए, सबसे लंबे समय तक राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे मोहन लाल सुखाड़िया की राजनीतिक जिंदगी से जुड़े किस्‍से...

राजस्थान के गठन के बाद जब पहली बार चुनाव हुए तो जयनारायण व्यास मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। ढाई साल बाद यानी नवंबर, 1954 में विधायकों ने बगावत कर दी और उन्हें पद से हटना पड़ा।

ऐसे में जवाहर लाल नेहरू ने बलवंत राय मेहता को पर्यवेक्षक बनाकर जयपुर भेजा। जयपुर में हवा महल के पास बने सवाई मानसिंह टाउन हॉल में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कौन बैठेगा, यह फैसला लेने के लिए वोटिंग कराई गई।

एक तरफ नेहरू के चहेते जयनारायण व्यास थे तो दूसरी ओर एक 38 साल का एक युवा विधायक। जब नतीजा आया तो सब हैरान रह गए। जयनारायण व्यास के पक्ष में 51 विधायक थे और युवा विधायक के पक्ष में 59 विधायक। इसी के साथ राजस्‍थान को नया मुख्‍यमंत्री मिल गया था। 13 नवंबर, 1954 को मोहन लाल सुखाड़िया ने 38 वर्ष की उम्र में सीएम पद की शपथ ली और अगले 17 साल तक सरकार चलाई।

राजनीति से पहले का सफर

मोहनलाल सुखाड़िया का जन्‍म 31 जुलाई 1916 को राजस्‍थान के झालावाड़ में हुआ था। हालांकि, उनका परिवार मूलरूप से गुजरात के सूरत का रहने वाला था। पिता पुरुषोत्तम दास सुखाड़िया जाने-माने क्रिकेटर थे और मुंबई और सौराष्ट्र टीम के लिए खेला करते थे।

बताया जाता है कि साल 1915 में झालावाड़ के राजा ने पुरुषोत्तम दास सुखाड़िया को क्रिकेट की ट्रेनिंग देने के लिए राज्य में बुलाया था। यहीं मोहनलाल का जन्‍म हुआ। कुछ साल बाद नाथद्वारा मंदिर के प्रमुख महंत तिलकायत गोवर्धनलाल ने पुरुषोत्तम दास को बतौर कोच अपने यहां बुला लिया। इस कारण मोहनलाल की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई नाथद्वारा में हुई। कुछ साल बाद पुरुषोत्तम का निधन हो गया तो मोहनलाल का पालन-पोषण महंत ने ही किया।

इसके बाद मोहनलाल ने मुंबई से पॉलिटेक्निक डिप्लोमा किया। इसी दौरान वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य भी बन गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने उदयपुर में इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स की दुकान खोली, लेकिन वहां सामान की बिक्री कम होती और राजनीतिक गपशप ज्‍यादा। जल्द ही उन्होंने राजनीति में कदम रखा। शुरुआत में उदयपुर और नाथद्वारा में प्रजामंडल आंदोलन में हिस्सा लिया।

पत्‍नी इंदुबाला के साथ पूर्व सीएम मोहनलाल सुखाड़िया।

शादी के विरोध में पूरा शहर बंद रहा

आंदोलन में भाग लेने के दौरान ही उनकी मुलाकात आर्य समाज परिवार से आने वाली इंदुबाला से हुई। दोनों को प्यार हो गया और फिर शादी का मन बना लिया। अब समस्या ये थी कि मोहनलाल जैन परिवार से थे, जहां मान्‍यता से सभी कट्टर वैष्‍णव थे। छुआ-छूत इस कदर थी कि जब मोहनलाल या फिर घर का कोई अन्‍य सदस्‍य खाना खाने बैठता तो उसकी थाली में रोटियां ऊपर से गिराई जाती थीं।

ऐसे में अंतरजातीय विवाह के लिए परिवार का मानना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन था। एक जून, 1938 को मोहनलाल और इंदु ने पास के शहर ब्यावर के आर्य समाज मंदिर में शादी कर ली।

खबर घर पहुंची तो मोहनलाल की मां, महंत और पूरा नाथद्वारा नाराज हो गया। शादी के विरोध में अगले दिन पूरा नाथद्वारा बंद रहा, लेकिन अंतरजातीय शादी करके मोहनलाल युवाओं के हीरो बन गए।

मोहनलाल सुखाड़िया ने एक इंटरव्‍यू में बताया था, ''नाथद्वारा जाकर मां का आशीर्वाद लेना मेरा कर्तव्‍य था। दोस्‍तों की मदद और आग्रह के बाद मैंने नाथद्वारा जाने की योजना बनाई। हालांकि, मैं जानता था कि नाथद्वारा का वैष्‍णव समाज मेरा विरोध करेगा। दोस्तों ने भी इसकी चिंता नहीं की। मुझे दूल्‍हे और इंदु को दुल्‍हन की वेशभूषा में एक बग्गी में बैठा दिया गया। फिर मेरे चारों और एक घेरा बनाकर पूरे बाजार में जुलूस निकाला गया। देखते-देखते ही युवाओं को हुजूम उमड़ पड़ा और मोहन भइया जिंदाबाद के नारे लगे। इसके बाद से मुझे कभी किसी के विरोध से डर नहीं लगा।''

हस्ताक्षर के नीचे लिखते थे 'कार में'

यूं तो मोहनलाल सुखाड़िया की राजनीतिक जिंदगी और उनके शासन को लेकर कई किस्‍से खासा चर्चित हैं, लेकिन जनता और प्रशासन के काम को तत्परता से करने को लेकर उनका एक किस्सा बहुत चर्चित और मजेदार है।

जैसा कि सब जानते हैं मोहनलाल सुखाड़िया की कोशिश रहती कि सरकार संबंधित जरूरी काम को जहां भी वक्त मिले, फटाफट निपटा दिया जाए। इसलिए जब भी जयपुर से बाहर या फिर कार से कहीं जाते तो उनके साथ फाइलों का एक बैग भी रहता। कार में यात्रा करने के दौरान ही वे फाइल पढ़कर उस पर साइन भी करते जाते।

होता यूं था कि चलती कार में दस्तखत करने की वजह से कई बार अधिकारी हस्ताक्षर पहचान नहीं पाते थे। जब फाइलें सचिवालय में अधिकारियों के पास पहुंचतीं तो उनको शक होता कि ये मुख्‍यमंत्री के साइन नहीं हैं।

जब इस बारे में जब मोहनलाल को पता चला तो उन्होंने एक रास्ता निकाला। अब जब भी वो कार में किसी फाइल पर दस्तखत करते तो नीचे ब्रैकेट में 'कार में' लिख देते थे। इससे अधिकारी समझ जाते कि साहब ने यात्रा के दौरान यह फाइल देखी और साइन किए हैं।

समय पर पहुंच जाती फाइलें...

मोहनलाल कार में बैठकर जिन फाइलों पर हस्ताक्षर करते, उनको संबंधित अधिकारी तक जल्दी से पहुंचाने के लिए भी वह अनूठा तरीका अपनाते। वे जो फाइल पढ़ और साइन कर चुके होते, उन्हें रास्ते में पड़ने वाले जिले के कलेक्टर को सौंप दिया करते थे।

अगर वे जयपुर से उदयपुर की ओर जा रहे होते और उनके हाथ में जयपुर की ही फाइल होती तो वे फाइल पर साइन कर उसे अजमेर कलेक्टर या जिलाधिकारी को सौंप देते। इसके साथ ही उसे निर्देश भी देते कि फाइल जल्‍दी से जल्‍दी जयपुर पहुंचा दी जाए।

पूर्व सीएम मोहनलाल सुखाड़िया का मंत्रिमंडल। (चतुर्थ पारी)

घर से टिफिन लेकर ही निकलते

मोहनलाल सुखाड़िया सुबह घर से निकलते तो अपने साथ बड़ा सा टिफिन साथ लेकर चलते थे। अगर किसी गांव का दौरा होता तो वो पैदल-पैदल पूरा गांव घूमते थे। मेड़-मेड़ चलते हुए खेतों में जाकर किसानों से मिलते थे। जब भूख लगती तो जहां भी होते, वहीं दरी बिछाकर खाना खाने बैठ जाते।

उनके टिफिन में इतना खाना होता था कि स्टाफ और कार्यकर्ताओं का पेट भी भर जाता था। जनता से उनके जमीनी संबंध और तौर-तरीकों ने उनकी लोकप्रियता बढ़ा दी थी।

साल 1957 के चुनाव मोहन सुखाड़िया के नेतृत्व की परीक्षा थे। हालांकि वो इसमे अच्छे नंबरों से पास भी हुए। सुखाड़िया के नेतृत्व में हुए चुनाव में 22 लोकसभा सीटों में से 18 कांग्रेस ने जीतीं। दूसरी ओर 176 विधानसभा सीटों में से 119 पार्टी के खाते में आईं।

नेहरू को पसंद नहीं थे फिर भी बनाना पड़ा सीएम

नेहरू, सुखाड़िया को बिल्‍कुल भी पसंद नहीं करते थे, लेकिन इस जीत के बाद उनके पास मोहनलाल को हटाने का कोई कारण नहीं दिख रहा था। इसलिए सुखाड़िया ने दोबारा सीएम पद की शपथ ली। इसके बाद वह लगातार 1971 तक राजस्‍थान के मुख्‍यमंत्री रहे। फिर 1972 से 1977 तक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के राज्यपाल भी रहे।

साल 1977 के अंत में वो उदयपुर लौट आए। फिर इंदिरा के अनुरोध पर पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीतकर संसद पहुंचे। 2 फरवरी, 1982 को एक कार्यक्रम भाषण देने के दौरान ही उन्हें हार्ट अटैक आया और 66 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

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(सोर्स: जागरण नेटवर्क की खबरें, वरिष्ठ पत्रकार विजय भंडारी की किताब 'राजस्थान की राजनीति सामंतवाद से जातिवाद के भंवर में', श्याम आचार्य की किताब 'तेरा तुझको अर्पण' से साभार)