अनेक भाषाओं की साझा विरासत टप्पा गायकी
खूबसूरत बन्दिशों और विभिन्न शैलियों से सजी है टप्पा गायन की हर तान। टप्पा गायन का सबसे कठिन रूप है जिसमें सप्तकों में द्रुत उतार-चढ़ाव सांस पर नियंत्रण के अलावा निरंतर नवाचार की मांग करता है। सुप्रसिद्ध गायिका मीता पंडित का आलेख ...
By Keerti SinghEdited By: Updated: Sat, 01 Oct 2022 08:34 PM (IST)
टप्पा पंजाब की लोकप्रिय लोक गायन शैली है, लेकिन हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन में प्रचलित टप्पा उससे बहुत अलग है। इन बन्दिशों के शब्द अविभाजित भारत के मुल्तान इलाके और उस के आसपास की भाषा में होते हैं और औसत रूप से रूमानी होते हैं। पंजाब की कुछ लोक-शैलियों में, खासतौर पर उत्तर पश्चिमी सीमांत की,जमजमा का उपयोग दिखता है। माना जाता है कि टप्पा शैली का नवप्रवर्तन गुलाम नबी उर्फ शोरी मियां ने किया, जो नायक गुलाम रसूल के बेटे थे। शोरी मियां की आवाज बहुत पतली थी लेकिन उसमें बहुत लोच था, उन्हें लगता था कि उनकी आवाज की वजह से उनके गायन में असर नहीं आता। वह किसी ऐसी गायन शैली की तलाश मेंथे जिसमें उनकी आवाज की तासीर उभर कर दिखे। वह लखनऊ से पंजाब गए और वहाँ की भाषा और लोक-संगीत से बहुत प्रभावित हुए। उन्होने भाषा पर पकड़ बनाई और लोकप्रिय लोक गायन शैली टप्पा में कुछ बदलाव करके उसे टप्पा का नाम दिया। उन्होने बहुत सी बन्दिशें तैयार करके इस शैली को अमर बना दिया।
भारतीय संगीत के इतिहास के अवलोकन से लगता है कि किसी एक व्यक्ति को इस शैली का सर्जक कहना उचित नहीं है, क्योंकि टप्पा की कुछ बन्दिशें शोरी मियां के समय से पहले की भी मिलती हैं। इसलिए शोरी मियां को टप्पा का नवप्रवर्तक कहना ज़्यादा उपयुक्त है। उनके दो शिष्य मियां गम्मू और ताराचंद अपनी गायकी के लिए बहुत प्रसिद्ध हुए। मियां गम्मू के बेटे शादी खाँ टप्पा के उस्ताद गायक थे और उन्हें बनारस में राजा उदित नारायण सिंह का संरक्षण प्राप्त था। इस तरह टप्पा लखनऊ से बनारस पहुंचा। खयाल, तराना, ठुमरी, अष्टपदी और पद शैलियां भी टप्पा से प्रभावित हुईं। ग्वालियर में महाराज दौलतराव सिंधिया (1794-21 मार्च, 1827) के दरबार में प्रश्रय पाए पीर-ओ-मुर्शिद उस्ताद नत्थन पीर बख्श शोरी मियां की परंपरा से थे। टप्पा शैली को लोकप्रिय बनाने में उनके पोतों हद्दू खाँ और हस्सू खाँ ने भी योगदान किया। बाद में पंडित शंकर राव पंडित और उस्ताद निसार हुसैन खाँ ने भी संस्कृत, हिन्दी और मराठी में बहुत से खयाल, तराने, पद, अष्टपदी और श्लोक रचे, जिनमें टप्पा गायकी का जमजमा शामिल है। सच तो यह है कि टप्पा गायकी का प्रभाव इतना स्पष्ट था कि पंगत के दौरान पढे़ जाने वाले श्लोकों तक पर यह दिखता था।
विचित्र ही है कि यह शैली जो पंजाब में उपजी और ग्वालियर, लखनऊ, बनारस और कलकत्ता में इतनी फली-फूली, पंजाब में ही उतनी लोकप्रिय या मजबूत न हो सकी। टप्पा ‘टप्पना’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है ‘टापना’ या ‘कूदना’। टप्पा सुनते हुए हम लहराती-बलखाती तानें, मुरकी और खटके, जमजमा वगैरह सुनते हैं। इसका मिजाज ध्रुपद या खयाल शैलियों से बिलकुल अलग है। टप्पा गायन का सबसे कठिन रूप है, जिसमें सप्तकों मे द्रुत उतार-चढ़ाव सांस पर नियंत्रण के अलावा निरंतर नवाचार की मांग करता है। टप्पे की हर तान की खूबसूरती यह है कि हर सुर, माला के मोतियों की तरह अलग ही चमकता है (दानेदार तान)।
टप्पा खास तालीम और रियाज चाहता है, इसकी तानें, मुरकी और खटके, जमजमा खयाल की तान, मुरकी और खटके, जमजमा से अलग होती हैं। शास्त्रीय गायन का प्रशिक्षण पाया हर कोई टप्पा नहीं गा सकता। हर टप्पे में मुखड़े के सम पर पहुँचने का तरीका महत्त्वपूर्ण होता है। बोल-तान........टप्पे पंजाबी के अलावा पश्तो, हिन्दी, उर्दू में भी लिखे गए और भैरवी, खमाज, झिंझोटी, बरवा, पीलू, तिलंग रागों में निबद्ध किए गए। ग्वालियर में टप्पे का व्यापक उपयोग टप-ठुमरी, टप-खयाल और टप-तराना जैसी विधाओं में हुआ। भारत में और जगह भी टप्पा की लोकप्रियता दिखती है। बंगाल में रवीद्रनाथ टेगोर और काजी नजरुल इस्लाम ने टप्पा के तत्वों का उपयोग रवीन्द्र संगीत और नजरुल गीति में किया। निधु बाबू (रामनिधि गुप्तों) तो टप्पा के ऐसे रसिक थे कि उन्होने बांग्ला में बहुत सी बन्दिशें तैयार कीं।