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आजाद हिंद फौज की विरांगना डॉ. लक्ष्मी सहगल पर बनेगी फिल्म, देश के लिए युद्ध भूमि में दिखाया था शौर्य

भारत की स्वाधीनता के लिए जब नेताजी विदेश से ताकत जुटा रहे थे तब उन्होंने आजाद हिंद फौज में महिलाओं को शामिल करना जरूरी समझा। उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई रेजिमेंट बनाई। इस रेजिमेंट की मुखिया उन्होंने दक्षिण भारत की युवा महिला डा. लक्ष्मी स्वामीनाथन को बनाया।

By Ruchi VajpayeeEdited By: Updated: Fri, 12 Nov 2021 04:55 PM (IST)
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डॉ. लक्ष्मी सहगल पर जल्द बनेगी फिल्म

स्मिता श्रीवास्तव, मंबई ब्यूरो। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज की महिला ब्रिगेड रानी लक्ष्मी बाई रेजिमेंट की कैप्टन डा. लक्ष्मी सहगल ने देशसेवा के लिए सर्वस्व समर्पित कर दिया। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के मौके पर उनकी स्मृतियों को सहेजने के साथ उनके आदर्र्शों को जीवन में उतारने का संकल्प जरूरी है। डा. लक्ष्मी सहगल के जीवन से परिचित कराने के लिए उनके नाती व फिल्मकार शाद अली फिल्म बनाने की तैयारी में हैं... युद्ध के मैदान में महिलाओं की तैनाती को लेकर भले ही आज भी संशय की स्थिति हो, लेकिन उनकी ताकत को आजाद हिंद फौज (आईएनए) के अगुवा नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बहुत पहले पहचान लिया था।

भारत की स्वाधीनता के लिए जब नेताजी विदेश से ताकत जुटा रहे थे तब उन्होंने आजाद हिंद फौज में महिलाओं को शामिल करना जरूरी समझा। उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई रेजिमेंट बनाई। इस रेजिमेंट की मुखिया उन्होंने दक्षिण भारत की युवा महिला डा. लक्ष्मी स्वामीनाथन को बनाया जिन्हें कैप्टन डा. लक्ष्मी सहगल के नाम से जाना जाता है। इस रेजिमेंट ने आजाद हिंद फौज के पुरुष साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध भूमि में शौर्य दिखाया।

बचपन से ही थे प्रगतिशील विचार:

24 अक्टूबर, 1914 में मद्रास (अब चेन्नई) में जन्मी लक्ष्मी के पिता एस स्वामीनाथन मद्रास हाई कोर्ट में जाने माने

वकील थे जबकि मां ए.वी. अम्मूकुट्टी सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्रता सेनानी थीं। लक्ष्मी बचपन से ही मां के प्रगतिशील विचारों से प्रभावित थीं। लक्ष्मी ने जाति प्रथा के खिलाफ आवाज बचपन में केरल में अपने घर में ही बुलंद की थी। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि समाज के जिस वर्ग के लोगों की छाया को उस दौर में अशुभ माना जाता था, एक दिन वह उनमें से एक लड़की का हाथ पकड़कर घर ले आईं और उसके साथ खेलने लगीं। यह देखकर दादी आगबबूला हो गईं। लक्ष्मी को भी काफी गुस्सा आया। आखिर में जीत लक्ष्मी की ही हुई। वहां से उन्होंने अन्याय के खिलाफ न झुकने के अपने व्यक्तित्व का परिचय दे दिया था। उसके बाद महात्मा गांधी से प्रेरित होकर ‘स्वदेशी’ का नारा बुलंद करते हुए विदेशी कपड़ों की होलिका जलाई।

साम्यवाद का प्रभाव:

वर्ष 1938 में उन्होंने मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री ली। स्त्रीरोग और प्रसूति रोग चिकित्सा में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की। उसके बाद वह सिंगापुर चली गईं। वहां पर उन्होंने क्लीनिक खोला। जहां मजदूरों और गरीबों का इलाज किया। वह 1941 में रास बिहारी बोस द्वारा स्थापित इंडिया इंडिपेंडेंस लीग से जुड़ीं। साम्यवाद से उनका परिचय सरोजिनी नायडू की बहन सुहासिनी नांबियार के माध्यम से हुआ था। साम्यवादी आंदोलन पर एडगर स्नो की पुस्तक रेड स्टार ओवर चाइना ने भी उनके विचारों को दिशा दी।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात:

1942 में सिंगापुर पर जापान के कब्जे के दौरान डा. लक्ष्मी ने युद्ध बंदियों को चिकित्सा सहायता प्रदान की। सुभाष चंद्र बोस ने जुलाई 1943 में सिंगापुर का दौरा किया और आजाद हिंद फौज के साथ लीग का नेतृत्व संभाला। नेताजी के करिश्माई नेतृत्व से लक्ष्मी काफी प्रभावित हुईं। जब नेताजी ने झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नाम पर आईएनए की आल वूमेन इनफैंट्री रेजिमेंट का गठन किया तो डा. लक्ष्मी बड़े उत्साह के साथ रेजिमेंट में शामिल हुईं। उन्हें कमांडिंग आफिसर नियुक्त किया गया, जिसमें 1200 महिलाएं शामिल थीं। वर्ष 1944 में रेजिमेंट ने बर्मा में अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ा। कैप्टन लक्ष्मी को ब्रिटिश सशस्त्र बलों ने जुलाई, 1945 में गिरफ्तार किया। मार्च 1946 में उन्हें भारत भेज दिया गया। भारत लौटने पर वह आईएनए के निराश्रित परिवारों के लिए धन जुटाने में सक्रिय रहीं।

शरणार्थियों की मदद:

डा. लक्ष्मी ने 1947 में आईएनए में तैनात कर्नल प्रेम सहगल से विवाह कर लिया था। उसके बाद वे लाहौर से आकर कानपुर में बस गए। देश विभाजन से दुखी कैप्टन लक्ष्मी ने बड़ी संख्या में पाकिस्तान से कानपुर आए

शरणार्थियों के लिए खुद को समर्पित कर दिया। 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान वह बंगाल की जन राहत समिति में शामिल हो गईं और पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से भारत आए लाखों शरणार्थियों के लिए पश्चिम बंगाल में राहत शिविर और चिकित्सा सहायता का प्रबंध किया। 23 जुलाई 2012 को उनका निधन हो गया। डा. लक्ष्मी सहगल ने अपने अनुभवों को ए रिवोल्यूशनरी लाइफ- मेमायर्स आफ ए पालिटिकल एक्टिविस्ट (1997) में लिखा है।

सामने आनी चाहिए वीरांगनाओं की कहानी

डा. सहगल अपने समय से आगे की महिला थीं। उनका जीवन, व्यक्तित्व और विचारधाराएं आदर्श उदाहरण हैं। उनकी जिंदगानी पर उनके नाती और फिल्ममेकर शाद अली फिल्म बनाने की तैयारी में हैं। शाद अली कहते हैं कि नानी की कहानी कहे बिना मेरी जिंदगी अधूरी है। मुझसे बेहतर यह कहानी कोई और नहीं कह सकता है। जो बातें मुझे उनके बारे में पता है, वे किसी को पता नहीं होंगी। फिर भी मैंने बहुत रिसर्च की है। निजी अनुभवों को पिरोने के साथ ही निष्पक्ष तरीके से इस फिल्म को बनाऊंगा। वीरांगनाओं की कहानियां आज की पीढ़ी के सामने आनी चाहिए। कोरोना के बाद अब माहौल सामान्य हो रहा है। मैं जल्द ही फिल्म शुरू करूंगा।