वैश्विक स्तर पर भारतीय फिल्मों की बढ़ती धमक के बीच अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारतीय सिनेमा की उपस्थिति से जुड़े विभिन्न पहलुओं की पड़ताल कर रहे हैं स्मिता श्रीवास्तव व दीपेश पांडेय...
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कान्स में दिखेगा भारत का जलवा
फ्रांस के खूबसूरत तटवर्ती शहर में मंगलवार से आयोजित होने वाले प्रतिष्ठित कान्स फिल्म फेस्टिवल में जार्ज लुकास, डेमी मूर, मेरिल स्ट्रीप सहित दुनियाभर से नामचीन कलाकार व फिल्मकार पहुंचेंगे, तो वहीं भारतीय कलाकारों में रेड कारपेट की शान बढ़ाएंगी ऐश्वर्या राय बच्चन और अदिति राव हैदरी। माना जाता है कि कान्स फिल्म फेस्टिवल में कलात्मक दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट विश्व सिनेमा को ही प्रदर्शित व पुरस्कृत किया जाता है। इस बार कान्स में भारत की उपस्थिति को लेकर भारतीय सिनेजगत के साथ ही सिनेप्रेमियों में भी उत्साह है, क्योंकि इसके सर्वोच्च पुरस्कार 'पाम डी ओर' के लिए भारतीय फिल्म भी नामित है।
भारतीय फिल्मों की दावेदारी
पाम डी ओर के लिए नामित पायल कपाड़िया की फिल्म 'आल वी इमेजिन एज लाइट' केरल की दो नर्सों की कहानी है जो मुंबई के एक नर्सिंग होम में काम करती हैं। पायल ने उनकी इच्छाओं व आकांक्षाओं की कहानी कही है, वहीं भारतीय मूल की अमेरिकी फिल्मकार संध्या सूरी की फिल्म 'संतोष', एक विधवा औरत की कहानी है, जिसे मृतक आश्रित के तौर पर पुलिस में नौकरी मिलती है। इस फिल्म में मुख्य पात्र निभा रहीं शाहना गोस्वामी कहती हैं कि कान्स का हिस्सा बनना बड़ी बात है। इससे अच्छे काम की ललक बढ़ जाती है।
ये फिल्में पहुंची कान्स्स
संतोष फिल्म को कान्स में 'अन सर्टेन रिगार्ड' श्रेणी में प्रदर्शन के लिए चुना गया है, जबकि तमिल व अंग्रेजी में बनी फिल्म 'इरुवम' को 'लेट्स स्पूक कान्स' श्रेणी के अंतर्गत प्रदर्शित किया जाएगा। करीब 30 वर्ष पहले 1994 में शाजी एन करुण की मलयालम फिल्म 'स्वाहम' को 'पाम डी ओर' श्रेणी में नामित किया गया था। पायल को इस बार पाम डी ओर के लिए मजबूत दावेदार माना जा रहा है। पूर्व में वर्ष 2021 में डाक्यूमेंट्री फिल्म 'ए नाइट आफ नोइंग नथिं' के लिए उन्हें कान्स में सर्वश्रेष्ठ डाक्यूमेंट्री फिल्म का 'गोल्डन आई' पुरस्कार मिल चुका है।
कान्स्स से भारत का रिश्ता
कान्स से भारत का रिश्ता गहरा रहा है। भारतीय सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में कान्स के 66वें संस्करण (2013) में भारत आधिकारिक अतिथि देश बना था। इसके उद्घाटन अवसर पर अमिताभ बच्चन ने मातृ भाषा हिंदी में वैश्विक दर्शकों को संबोधित करके भारत का मान बढ़ाया था, वहीं भारत के साथ फ्रांस के राजनयिक संबंधों की 75वीं वर्षगांठ (2022) का जश्न भी कान्स में मनाया गया था। कला फिल्मों को मिले बढ़ावा: कान्स में प्रदर्शित हो चुकी फिल्मों 'अगली' और 'कैनेडी' के अभिनेता राहुल भट्ट कहते हैं कि भारतीय सिनेमा की शुरुआत से ही सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋषिकेश मुखर्जी ने बेहतरीन फिल्में दी हैं।
नई पीढ़ी लाएगी बदलाव
वर्तमान में हम मसाला फिल्मों को अधिक महत्व दे रहे हैं। कलात्मक सिनेमा बनाने वाले फिल्मकारों को सहयोग नहीं करते हैं। ऐसे में हम कैसे वैश्विक स्तर पर दावा ठोंक पाएंगे। कान्स फेस्टिवल में दुनियाभर से फिल्में आती हैं। उनका निर्णयाक मंडल कहानी के मुद्दों को देखता है। नई पीढ़ी से उम्मीद है कि वे बदलाव लाएंगे। ओटीटी से भी फर्क आएगा। वहां पर फार्मूला फिल्मों के बजाय कथ्य को महत्व मिलता है।
प्रतिस्पर्धा में खरे उतरने की चुनौती
अभिनेता मनोज बाजपेयी का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ गई है। अब हमारी फिल्में अवार्ड जीतने लगी हैं। हालांकि देश की आधिकारिक प्रविष्टि बनाने को लेकर राजनीति भी खूब होती है। जब आस्कर जैसे पुरस्कारों के लिए प्रविष्टि भेजने की बारी आती है तो हमारे यहां ऐसे लोग सक्रिय हो जाते हैं और एक लॉबी काम करती है। हम स्तरहीन फिल्मों को वहां भेज देते हैं। जब उनके बारे में खबरें सामने आती हैं तो हम ये मान बैठते हैं कि हमें पुरस्कार नहीं मिलने वाला। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि तय करने के लिए पारदर्शी और निष्पक्ष कमेटी होनी चाहिए।
बढ़ रही है उपस्थिति
इस बारे में ट्रेड एनालिस्ट गिरीश जौहर कहते हैं कि ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कमर्शियल सिनेमा कम होता है और कलात्मक सिनेमा ज्यादा चलता है। अभी हमारे यहां का सिनेमा उनके विषयों और सोच से जुड़ नहीं पाया है। हमारे फिल्मकारों की प्राथमिकता घरेलू दर्शक होते हैं। अंततः फिल्म निर्माण भी तो एक तरह का व्यापार है। इसलिए फिल्मकार यह भी सोचते हैं कि बाहर के अप्रत्याशित बाजार के लिए फिल्में बनाने से अच्छा है कि अपने यहां के दर्शकों के लिए फिल्में बनाई जाएं।
हालांकि कुछ फिल्मकार यहां भी हैं जो अंतरराष्ट्रीय मंचों को ध्यान में रखते हुए फिल्में बना रहे हैं। अवार्ड पाने के मामले में हमारी फिल्मों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन अब प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में हमारी फिल्मों की उपस्थिति बढ़ रही है। यह सुखद है।
चेतन आनंद, सत्यजीत राय ने रखी नींव
वर्ष 1946 में चेतन आनंद की 'नीचा नगर' कान्स फिल्म फेस्टिवल का सर्वोच्च पुरस्कार 'पाम डी ओर' जीतने वाली पहली भारतीय फिल्म थी। बिमल राय की फिल्म 'दो बीघा जमीन', 'वी शांताराम की अमर भूपाली' ने कान्स की शोभा बढ़ाई तो सत्यजीत राय की 'पाथेर पांचाली' (1956) ने सर्वश्रेष्ठ ह्यूमन डाक्यूमेंट अवार्ड जीता। वर्ष 1983 में मृणाल सेन की 'खारिज' को विशेष जूरी पुरस्कार, मीरा नायर की 'सलाम बाम्बे' (1988) और शाजी एन करुण की 'पिरावी' (1989) को 'कैमरा डी ओर' (स्पेशल मेंशन) प्राप्त हुआ था।
जन सहयोग की मिसाल
कान्स क्लासिक्स श्रेणी के तहत इस बार श्याम बेनेगल की फिल्म 'मंथन' (1976) प्रदर्शित की जाएगी। भारत में दुग्ध क्रांति के प्रणेता वर्गीज कुरियन के योगदान को दर्शाती इस फिल्म के निर्माण के लिए पांच लाख दुग्ध उत्पादकों ने दो-दो रुपए का सहयोग दिया था।यह भी पढ़ें-
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स्वतंत्र सिनेमा को मिले बढ़ावा
डर्बन अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में 'जोराम' फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से सम्मानित मनोज बाजपेयी कहते हैं कि बहुत से लोग कलात्मक फिल्मों के निर्माण में रुचि रखते हैं। अगर उन्हें ओटीटी का साथ और सहयोग मिले, उनका मार्गदर्शन करें, तो ऐसी फिल्मों में आपके सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाने की ताकत होती है। सिनेमा में कला को जिंदा रखने के लिए स्वतंत्र सिनेमा को जिंदा रखना जरूरी है।