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जरूरी है खुद की खोज, एक ही छवि में अटके रह जाएंगे तो विकास कैसे होगा- शेफाली शाह

अभिनेत्री शेफाली शाह ने ग्लैमर की दुनिया में काफी नाम कमाया है। वह एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का जाना माना चेहरा हैं। पिछले वर्ष उनकी फिल्म डार्लिंग्स रिलीज हुई थी जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया था। यहां तक कि उनकी फिल्म थ्री ऑफ अस को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली।

By Jagran NewsEdited By: Karishma LalwaniUpdated: Sun, 29 Jan 2023 11:15 PM (IST)
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File Photo of Actress Shefali Shah. Photo Credit: Instagram
नई दिल्ली, जेएनएन। अभिनेत्री शेफाली शाह उन कलाकारों में से हैं, जिन्होंने टीवी के बाद फिल्मों की दुनिया में काफी नाम कमाया है। बीते दिनों उनकी फिल्म थ्री आफ अस को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (इफ्फी) में काफी सराहना मिली। आज उनकी फिल्म डार्लिंग्स का टीवी प्रीमियर है। टीवी जगत से जुड़ी यादों, आगामी फिल्मों और निजी जीवन से जुड़े मुद्दों पर शेफाली ने स्मिता श्रीवास्तव के साथ साझा किए जज्बात...

आपकी फिल्म अब टीवी पर आएगी। इसे कैसे देखती हैं?

मेरा मानना है कि अभी भी बहुत सारे लोगों के पास ओटीटी सब्सक्रिप्शन नहीं है। आज जीिसनेमा पर आने से वो भी इसे देख पाएंगे। खास तौर पर देश के अंदरूनी और सुदूर इलाकों में। यह अच्छा अनुभव है।

टीवी कलाकारों को शिकायत रही है कि उन पर इसका ठप्पा लगा दिया जाता है। जब आपने टीवी से फिल्मों का रुख किया था, तब क्या स्थिति थी?

मैंने टीवी पर बहुत ज्यादा काम नहीं किया है। पिछले दो-तीन वर्षों में काम को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया और तारीफ मिली है, पहले इतना नहीं हुआ करता था। मुझे नहीं लगता कि इसका टीवी से कोई संबंध है। टीवी करने के बाद मैंने लंबा गैप लिया था। जिसके बाद मैं कभी टीवी की ओर वापस नहीं गई।

थ्री आफ अस में आपका पात्र स्वयं की खोज करता है। सिनेमा में महिला पात्रों द्वारा स्वयं की खोज करने वाली कहानियों को कैसे देखती हैं?

न सिर्फ औरतों को, हर किसी को खुद को खोजना चाहिए। यह आवश्यक है। अगर आप एक जगह पर एक ही छवि या विचार में अटके रह जाएंगे तो विकास कैसे होगा। पहले अधिकांश कहानियां मर्दों पर केंद्रित होती थीं, अब औरतों को केंद्र में रखकर भी कहानियां बन रही हैं, यह अच्छा बदलाव है।

फिल्म थ्री आफ अस की लोकेशन बहुत मनमोहक है...

पूरी फिल्म कोंकण में वेंगुर्ला सहित कई जगहों और गांवों में शूट की गई है। मुझे लगा कि इस फिल्म की बहुत ज्यादा तैयारी न करते हुए प्रवाह के साथ चलना चाहिए, जब यह नहीं पता होता कि आगे क्या होगा। दरअसल, यही मेरे किरदार शैलजा की स्थिति है। उसे नहीं पता कि उसकी यात्रा क्या है तो वही चीज फिल्म में काफी काम आई।

वेब शो ह्यूमन हो या थ्री आफ अस, अब प्रोजेक्ट की पूरी जिम्मेदारी आपके कंधों पर आ रही है...

डिजिटल प्लेटफार्म ने बहुत बड़ा बदलाव ला दिया है। अगर कुछ साल पहले कहा जाता कि 40 या उससे अधिक उम्र की अभिनेत्रियां प्रमुख भूमिकाओं में होंगी तो शायद अविश्वसनीय होता। मेरे शो डेल्ही क्राइम के अलावा न जाने कितने शो हैं, जिनके केंद्र में महिला चरित्र हैं। हालांकि मेरा यह मानना है कि कोई एक इंसान ही लीड नहीं करता है, यह सबकी मेहनत होती हैं। आप डेल्ही क्राइम शो देखो या ह्यूमन, डार्लिंग्स या थ्री आफ अस, ये किसी एक इंसान की कहानियां नहीं हैं। व्यापार की मुझे समझ नहीं है, लेकिन मुझे डिजिटल प्लेटफार्म बहुत पसंद है। यहां थिएट्रिकल फिल्म का दायरा टूट गया है। कहानी में हर पात्र का महत्व है। अब शुक्रवार को फिल्म का भाग्य तय नहीं होता।

आप हिंदी, अंग्रेजी के साथ मराठी और गुजराती भी बोलती हैं। क्षेत्रीय फिल्में करने में कितनी दिलचस्पी है?

मैंने अपनी पहली गुजराती फिल्म विपुल (निर्माता और शेफाली के पति विपुल अमृतलाल शाह)के साथ की थी। मैं निश्चित रूप से क्षेत्रीय भाषा की फिल्में करना चाहती हूं। न सिर्फ वो भाषाएं जिन्हें मैं बोल लेती हूं, उसके अलावा दक्षिण या बांग्ला में भी फिल्म करने के लिए तैयार हूं। उसके लिए भाषा सीखनी पड़े तो कोई समस्या नहीं। मुझे जब भी अवसर मिलेगा तो भाषा सीखना चाहूंगी, क्योंकि तभी आप उसके भावों को सही तरीके से व्यक्त कर पाएंगे।

डार्लिंग्स में आपका पात्र बेटी पर नियंत्रण रखता है। असल जीवन में आपकी मां आप पर कितना नियंत्रण रखती थीं?

मैं बहुत लाड़-प्यार में पली थी। मेरे सारे फैसले मम्मी-डैडी लेते थे। मैंने कालेज जाकर कुछ नियमों को तोड़ा। बाकी आपका व्यक्तित्व कैसा बनता है, यह निर्भर करता है कि आपका जीवन कैसे बढ़ रहा है। मेरी मम्मी डाक्टर हैं, लेकिन आर्ट की तरफ उनका भी झुकाव रहा। उनके अभिभावकों ने इसे पूरा करने की अनुमति नहीं दी, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं था। समय के साथ चीजें बदलती हैं।

बतौर मां आपको बच्चों के पालन-पोषण में क्या चुनौतियां लगती हैं?

जैसे मैं अच्छे बच्चों की तरह सब सुन लेती थी, वैसा आज के जमाने में नहीं है। मेरा मानना है कि बच्चों को जड़ों से जोड़कर रखना बहुत जरूरी है, लेकिन उन्हें पंख देना भी उतना ही अहम है। उन्हें गलती करके फिर सीखना होगा, आप उन पर अपनी चीजें थोप नहीं सकते।

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