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इन फिल्मों में टूटा है उम्र की सीमा का ब्रह्म, मचा चुकी हैं धमाल

बॉलीवुड में 102 नाट आउट सांड की आंख पंगा और कौन प्रवीण तांबे जैसी कई फिल्मों में ऐसी ही कहानियां बयां की गईं। आने वाले दिनों में जर्सी धावक फौजा सिंह की बायोपिक समेत कई फिल्में आएंगी जो पर्दे पर अलग दिखने वाली हैं।

By Anand KashyapEdited By: Updated: Thu, 14 Apr 2022 04:49 PM (IST)
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बॉलीवुड फिल्म दसवीं और 102 नाट आउट, Instagram : bachchan/sonypicsfilmsin
प्रियंका सिंह व दीपेश पांडेय। उम्र महज एक नंबर है। यह साबित किया है कई प्रेरक व्यक्तित्वों ने, जिन्होंने उम्र और समाज की सीमाओं की परवाह न करते हुए अपने सपनों को साकार किया है। '102 नाट आउट', 'सांड की आंख', 'पंगा' और 'कौन प्रवीण तांबे' जैसी कई फिल्मों में ऐसी ही कहानियां बयां की गईं। आने वाले दिनों में 'जर्सी', धावक फौजा सिंह की बायोपिक समेत कई फिल्में आएंगी। इन्हें गढ़ने की प्रक्रिया व उनके प्रभावों की पड़ताल की प्रियंका सिंह व दीपेश पांडेय ने...

साल 1998 में फिल्मकार राजकुमार संतोषी ने '36 चाइना गेट' बनाई थी। जिसमें कुछ रिटायर्ड फौजी मिलकर डाकुओं का मुकाबला करते हैं। सलमान खान अभिनीत 'सुल्तान' (2016) का नायक पहलवानी छोडने के वर्षों बाद रिंग में वापसी करता है और कुश्ती चैंपियनशिप जीतता है। 60 साल की उम्र के बाद निशानेबाजी सीखने वाली शूटर दादी के नाम से मशहूर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर के जीवन पर 'सांड की आंख' (2019) बनी। कंगना रनोट अभिनीत 'पंगा' (2020) की नायिका गृहस्थी संभालने की वजह से कबड्डी से वर्षों पहले दूरी बना चुकी होती है। वह फिर से कबड्डी के मैदान पर उतरती है और टीम को विजेता बनाती है।

फिल्म 'कौन प्रवीण तांबे' में 41 वर्ष की उम्र में पहली बार आईपीएल में खेलने वाले क्रिकेटर प्रवीण तांबे की कहानी दिखाई गई है। ये फिल्में उस सोच पर प्रहार करती हैं, जहां लोग सोचते हैं कि उम्र बढ़ रही है तो अब कुछ नहीं हो पाएगा। यह फिल्में लोगों में ऊर्जा का नया संचार करती हैं। साल 2018 में फिल्मकार उमेश शुक्ला ने अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के साथ 102 वर्षीय पिता और रिटायर्ड बेटे की कहानी पर '102 नाट आउट' बनाई। ऐसी फिल्मों पर उमेश का कहना है, 'हमारे समाज में उम्र को लेकर जो सीमाएं तय की गई है, पर ऐसा नहीं कहा गया फलां उम्र में आप अपने सपनों के लिए जीना छोड़ दो। हमने इस फिल्म को सौम्य जोशी के लिखे नाटक के आधार पर बनाया था। उन्होंने यह कहानी उनके पिता के एक दोस्त की जिंदगी से प्रेरित होकर लिखी थी। यह फिल्म बनाकर मैं लोगों तक यह संदेश पहुंचाना चाहता था कि अगर उम्र ज्यादा है तो क्या हुआ, जीना छोडना या दूसरों के ऊपर निर्भर होना सही नहीं है। बिना युवा हीरो, हीरोइन या या आइटम सांग यह फिल्म एक नया प्रयोग थी।'

दिल को छू लेने वाला विषय

जीवन में संघर्ष और असफलताओं का सामना करने के बाद जब कहानी का नायक या नायिका सफलता अर्जित करते हैं तो दर्शकों का भावनात्मक जुड़ाव बन जाता है। ऐसी कहानियां उन्हें प्रेरित करती हैं। शाहिद कपूर की फिल्म 'जर्सी' भी ऐसे ही एक नायक की कहानी है, जो 30 वर्ष की उम्र के बाद बेटे की नजर में हीरो बने रहने के लिए टीम में चयन के लिए संघर्ष करता है। यह इसी नाम से बनी तेलुगु फिल्म ही हिंदी रीमेक है। शाहिद का कहना है, 'इस फिल्म से मैंने व्यक्तिगत जुड़ाव महसूस किया है। 20 की उम्र में तो सभी के अंदर आग होती है। फिर आगे बढने पर परिवार, परिस्थितियां या जिम्मेदारियों की वजह से 95 प्रतिशत मर्द और औरतें वह काम नहीं कर पाते हैं, जो वे करना चाहते थे। कुछ लोग बदलते वक्त के साथ भीतर की आग को एडजस्ट करके जिंदगी चलाते रहते हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके अंदर की आग कभी जाती ही नहीं है। 'जर्सी' का नायक वैसा ही है। जब मैंने ओरिजिनल फिल्म देखी तो यह चीज मेरे दिल को छू गई।'

मनोरंजक कहानियों का ज्यादा असर

'सुल्तान', 'पंगा', '102 नाट आउट' और 'सांड की आंख' समेत इस विषय पर आधारित फिल्मों को हल्के-फुल्के मनोरंजक अंदाज में बनाया गया। इंडस्ट्री के विशेषज्ञों के मुताबिक, गंभीर फिल्मों की तुलना में हल्की-फुल्की और मनोरंजक कहानियों से दर्शक खुद को सहजता से जोड़ पाते हैं। 'सांड की आंख' के लेखक जगदीप सिद्धू कहते हैं, 'जब इस तरह की बुजुर्गों की कोई कहानी आती है, तो उसको बहुत गंभीर बना दिया जाता है। मेरे पास जब 'सांड की आंख' आई थी, तो निर्देशक ने जो ड्राफ्ट लिखा था, वह गंभीर ही था। मैंने कहा कि इस फिल्म को लाइटली ट्रीट करना चाहिए। शूटर दादियों की कहानी प्रेरणादायक थी, लेकिन बड़ी समस्या स्टारकास्ट को लेकर थी। कलाकारों में खुद से उम्र में बड़े किरदारों को करने में एक झिझक होती थी। उन्हें लगता था कि आगे भी उसी उम्र के किरदार ही मिलने न लग जाएं। अब कलाकार इस तरह की कहानियों को चुनौतीपूर्ण समझते हैं।'

चुनौतीपूर्ण काम

उम्र की सीमा को धता बताती कहानियों में नायक या नायिका के संघर्षों से लेकर सफल होने तक का सफर दिखाया जाता है। ऐसे में जहां निर्देशक और लेखक के सामने संबंधित परिवेश को प्रस्तुत करने की चुनौती होती है, वहीं कलाकारों के लिए भी अपनी उम्र से बड़े किरदार निभाना बड़ी चुनौती होती है। 'सांड की आंख' में भूमि पेडणेकर ने करीब 30 साल की उम्र में 60 साल से ज्यादा की उम्र की शूटर दादी चंद्रो तोमर का किरदार निभाया। भूमि कहती हैं, 'यह किरदार मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण था। जब निर्देशक का आपके ऊपर और कहानी पर विश्वास हो तो लगता है कि हो जाएगा। जब निर्देशक ने दादियों की कहानी बताई और सोच साझा की तो आत्मविश्वास आ गया।'

मानसिकता में बदलाव

जब भी समाज में कोई मानकों से हटकर कुछ करता है, उसे हंसी का पात्र समझा जाता है। जब वही व्यक्ति लक्ष्य को प्राप्त कर सफलता अर्जित करता है तो वह आदर्श उदाहरण बन जाता है। 41 की उम्र में पहली बार आईपीएल मैच खेलने वाले क्रिकेटर प्रवीण तांबे की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही। इस फिल्म के अभिनेता श्रेयस तलपड़े कहते हैं, 'हम कहीं न कहीं मानसिक रूप से तय कर चुके हैं कि कौन सी उम्र में हमें क्या करना और क्या नहीं करना है। जिसकी कोई जरूरत नहीं है। क्रिकेट मैच के दौरान भी लोग प्रवीण की सफलता या असफलता के बारे में कम और उनकी उम्र के बारे में ज्यादा चर्चा करते थे। मैं मानता हूं कि आपकी उम्र जो भी हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क परफारमेंस से पड़ता है।'

बाक्स आफिस पर स्वीकृति

पहले जहां ऐसी मसाला रहित फिल्मों को सिर्फ आर्ट या फेस्टिवल फिल्मों के वर्ग में रखा जाता था। अब युवा हीरो और हीरोइन के बिना इन प्रेरणादायक फिल्मों फिल्मों को दर्शक मुख्यधारा की मसाला फिल्मों के साथ देखना पसंद कर रहे हैं। ऐसे विषयों के प्रति फिल्मकारों की दिलचस्पी का यह भी एक बड़ा कारण है। फिल्मकार उमेश शुक्ला कहते हैं, 'अब लोगों को रियलिस्टिक फिल्में ज्यादा पसंद आ रही हैं। पहले ज्यादा थिएटर नहीं थे तो इस तरह की फिल्मों को स्क्रीन मिलने में भी दिक्कत होती थी। अब दर्शक हर किस्म की फिल्में समझते हैं और देखने के लिए तैयार हैं।'

जमीन पर दिखते प्रभाव

समाज में हो रही घटनाओं को सिनेमा में दिखाया जाता है और उनका प्रभाव भी समाज पर देखा जा सकता है। अभिषेक बच्चन अभिनीत फिल्म 'दसवीं' में एक अधेड़ उम्र के राजनेता को दसवीं की परीक्षा देते दिखाया गया। फिल्म के निर्देशक तुषार जलोटा कहते हैं, 'एक 40-45 साल के व्यक्ति का जेल जाकर दसवीं की पढ़ाई करने का आइडिया ही मुझे अनोखा लगा था। हमने फिल्म की स्क्रीनिंग आगरा जेल में की थी, जहां हमने फिल्म को शूट किया था। वहां के सुपरिटेंडेंट ने बताया कि फिल्म की शूटिंग होने के बाद कई लोगों ने दसवीं की परीक्षा दी और वे पास भी हो चुके हैं। वह सुनकर अच्छा लगा।'

पूरी जिंदगी एक मैराथन की तरह

निर्देशक राज शांडिल्य 89 साल की उम्र में मैराथन दौडऩे वाले फौजा सिंह की बायोपिक बना रहे हैं। राज कहते हैं कि फिल्म में 109 वर्ष के फौजा सिंह के जीवन को दिखाया जाएगा, जिन्होंने विश्वयुद्ध, देश विभाजन समेत कई चीजें देखी हैं। हमने फौजा सिंह से भी मुलाकात की। इस उम्र में भी वह बहुत ऊर्जावन लगे। उनकी पूरी जिंदगी ही एक मैराथन की तरह है, उन्होंने अपनी जिंदगी के बारे में कई बातें बताईं।