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Fatima Sana Shaikh ने बताया- कैसे की 'लूडो' और 'सूरज पे मंगल भारी' के लिए तैयारी

Fatima Sana Shaikh दंगल से सफलता और ठग्स ऑफ हिंदोस्तान से विफलता का स्वाद चख चुकीं फातिमा दोनों पहलुओं को समझते हुए आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही हैं। आइए पढ़ते हैं उनकी और स्मिता श्रीवास्तव की ख़ास बातचीत . . .

By Rajat SinghEdited By: Updated: Sun, 01 Nov 2020 11:44 AM (IST)
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फातिमा सना शेख ( फोटो क्रेडिट - फाइल )
नई दिल्ली, जेएनएन। यह दीवाली 'दंगल' फेम फातिमा सना शेख के लिए खास है। उनकी 'लूडो' नेटफ्लिक्स पर और 'सूरज पे मंगल भारी' सिनेमाघरों में रिलीज होने को तैयार हैं। 'दंगल' से सफलता और 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' से विफलता का स्वाद चख चुकीं फातिमा दोनों पहलुओं को समझते हुए आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही हैं। आइए पढ़ते हैं उनकी और स्मिता श्रीवास्तव की ख़ास बातचीत...

लॉकडाउन से लेकर अनलॉक होने तक आपका क्या अवलोकन रहा?

लॉकडाउन के दौरान मैंने काफी आराम किया। अभी तो पूरी दुनिया कमोबेश एक ही हालात से गुजर रही है। ऐसे में काम को लेकर दिमाग में कोई प्रेशर नहीं था। अनलॉक होने के बाद मैं धर्मशाला गई। मेरा भाई और दोस्त वहां हैं। मैं शहर से दूर आना चाहती थी।

आपकी दो फिल्में एक दिन के अंतराल पर रिलीज हो रही हैं। कैसा अनुभव कर रही हैं?

दो फिल्मों की रिलीज से बड़ा तोहफा दीवाली पर और क्या हो सकता है! मैं तो दीवाली की रात बाकायदा तैयार होकर अपनी फिल्में देखूंगी।

'सूरज पे मंगल भारी' से कैसे जुड़ना हुआ?

यह महज संयोग था। मैं एक रेस्त्रां में अभिषेक व्यास से टकरा गई। वह उस समय एक चैनल के साथ काम कर रहे थे। उन्होंने मेरे काम के बारे में पूछा तो मैंने बताया कि फिलहाल बेरोजगार हूं और काम ढूंढ रही हूं। तब उन्होंने कहा कि वे एक फिल्म बना रहे हैं और मैं ऑडिशन के लिए आ जाऊं। वहां मैं निर्देशक अभिषेक शर्मा से मिली। मुझे इस फिल्म का नरेशन दिया गया। जिसके बाद फिल्म मुझे मिल गई।

निर्देशक अभिषेक शर्मा के साथ सेट पर कैसा माहौल रहता था?

वह बहुत जिंदादिल और खुशमिजाज इंसान हैं। उनकी कॉमिक टाइमिंग और याददाश्त जबरदस्त है। उन्हें चीजें यथावत चाहिए होती हैं। वह काफी सजग रहते हैं। अन्नू कपूर जी ही सीन के बीच में कुछ ऐसा कर जाते थे कि हम सब हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे। सेट का माहौल बेहद खुशनुमा होता था।

'सूरज पे मंगल भारी' की कहानी बीसवीं सदी के नौवें दशक में सेट है। उस दौर की क्या चीजें अच्छी लगीं?

जैसे तब लैंडलाइन फोन होते थे। मुझे याद है कि बचपन में किसी का फोन आता था तो हम तार खींचकर खिड़की पर बैठ जाते थे। चोरी से कई बार दोस्तों से बात करते थे। फिल्म के जरिए यह सब अनुभव दोबारा मिले तो बहुत अच्छा लगा।

'दंगल' के लिए आपने काफी तैयारी की थी। यहां सीधी-सादी लड़की का किरदार है तो ज्यादा तैयारी की जरूरत नहीं रही होगी?

इस किरदार के लिए भी मुझे तैयारी की जरूरत थी। दरअसल, मेरा किरदार मराठी है। मुझे उसकी भाषा और तौर-तरीकों पर काम करना पड़ा। इसमें सामने वाले कलाकार के साथ कॉमिक टाइमिंग का मैच होना जरूरी था। इस लिहाज से आसान कुछ नहीं है।

इस फिल्म के लिए सबसे ज्यादा चैलेंजिंग क्या रहा?

चैलेंज यही था कि इसमें मनोज बाजपेयी, दिलजीत दोसांझ, अन्नू कपूर, सुप्रिया पिलगांवकर जैसे मंझे कलाकार थे। उनके सामने काम करने को लेकर नर्वस थी। मुझे डर लगता था कि मैं उनके स्तर का काम कर पाऊंगी। सेट पर वह डर निकल गया। सभी कलाकारों के साथ अच्छा वक्त बीता, बढ़िया कनेक्शन बन गया।

'लूडो' में चार लघुकहानियां हैं, इसका कैसा अनुभव रहा?

मेरा सपना था कि अनुराग बासु की फिल्म का हिस्सा बनूं। इस फिल्म से वह साकार हुआ। मैं उनके साथ और भी फिल्में करना चाहूंगी।

'दंगल' की सफलता के बाद आपसे होने वाली अपेक्षाओं को कैसे संभालती हैं?

मैं दूसरों की बात का दबाव नहीं लेती। मैं अपने काम को लेकर बहुत मेहनती हूं। मैं खुद से बहुत उम्मीदें रखती हूं। उन्हें पूरा कर पाऊं, यही मेरे लिए सबसे अहम है।

बीते दिनों सिनेमा को लेकर तमाम बहस हुई। आपका इस पर क्या विचार है?

हर क्षेत्र में हर तरह के लोग होते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि आप किसी खास इंडस्ट्री को एक श्रेणी में रखकर उसकी छवि बना दें। हमें भूलना नहीं चाहिए कि सभी के निजी संघर्ष और विचार होते हैं। आप किसी को इंडस्ट्री का ध्वजवाहक नहीं बना सकते हैं।