Gandhi Jayanti 2024: 'स्वदेस' से लेकर 'लगे रहो मुन्ना भाई' तक, महात्मा गांधी के विचार बने सिनेमा की ढाल
Gandhi Jayanti 2024 दो अक्टूबर को धूमधाम से गांधी जयंती मनाई जाती है। मनमोहन दास करमचंद गांधी के विचारों का प्रभाव सिर्फ आम लोगों पर ही नहीं सिनेमा पर भी काफी पड़ा। हिंदी सिनेमा में अलग-अलग फिल्में बनाई गईं जिसमें गांधी जी के विचारों का वर्णन उनके जीवन से जुड़ी कई चीजें दिखाई गई हैं। चलिए इस मौके पर देखते हैं उन फिल्मों की लिस्ट-
एंटरटेनमेंट डेस्क, मुंबई। गांधी पर कई फिल्में बनीं, बेन किंग्सले की ‘गांधी’ जैसी प्रत्यक्ष उपस्थिति वाली और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ जैसी फैंटसी वाली भी। ‘जागृति’ से लेकर ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ तक महात्मा गांधी की चर्चा कई जगह है, परंतु साहित्य के विपरीत अत्यंत सावधानीपूर्वक सिनेमा उनकी छवि भंजन करने से बचता रहा। क्या हैं इसके पीछे के कारण, गांधी जयंती से पूर्व चर्चा कर रहे हैं विनोद अनुपम...
महात्मा गांधी व्यक्ति नहीं प्रतीक हैं, अच्छाई के, समर्पण के, संघर्ष के, सबसे बढ़कर देश के। पीढ़ियों से महात्मा गांधी को हम बस स्वीकार करते हैं, कभी विमर्श नहीं करते। जाहिर है सिनेमा का प्रखर आलोचक होने के बावजूद भारतीय सिनेमा कभी महात्मा गांधी पर विमर्श को तैयार नहीं दिखा।सिनेमा को पता है कि महात्मा गांधी भारतीय समाज के अवचेतन में भी सुरक्षित हैं, वह चाहे-अनचाहे उनके विचारों के साथ खड़ा दिखता है। क्या आश्चर्य कि महात्मा गांधी भारतीय सिनेमा में साकार तो गिनती की फिल्मों में दिख सके, लेकिन उनके विचार सिनेमा की धुरी बने रहे।
वॉटर फिल्म में दिखी महात्मा गांधी की झलक
दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ में महात्मा गांधी का संदर्भ कई बार आता है, अंतिम दृश्यों में महात्मा गांधी दिखते भी हैं। एक बच्ची को सुरक्षित जीवन देने के लिए आखिरी उम्मीद यहां महात्मा गांधी में ही दिखती है, ये गांधी नितांत अलग हैं। वे ट्रेन से बनारस आए हैं, वे लोगों को संबोधित कर रहे हैं और नायक उस बच्ची को उनके कदमों के पास छोड़ निश्चिंत हो जाता है।
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यह है महात्मा गांधी के प्रति विश्वास, सिनेमा ने हर रूप में जिसकी सराहना की है। हालांकि यह भी सच है कि महात्मा गांधी को संपूर्णता में पर्दे पर उतारने की हिम्मत हिंदी सिनेमा कभी नहीं कर सका। लेकिन जब भी महात्मा गांधी दिखे, सिनेमा ने उनकी छवि अक्षुण्ण रखी।
भगत सिंह पर हिंदी में कई फिल्में बनती हैं, अलग-अलग कालखंड में महात्मा गांधी सभी फिल्मों में दिखते हैं, लेकिन भारतीय इतिहास में भगत सिंह और महात्मा गांधी की वैचारिक भिन्नता पर चाहे जितने विमर्श दिखें, सिनेमा में भरसक उनसे बचने की कोशिश की जाती रही।1993 में केतन मेहता की सरदार पटेल पर बनी बायोपिक ‘सरदार’ हो या श्याम बेनेगल की फिल्म ‘बोस-द फारगेटेन हीरो’ या फिर बीते वर्ष आई ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’, इनमें दो समकालीन नेताओं की वैचारिक भिन्नता से बचने की भरसक कोशिश देखी गई। वास्तव में जब सिनेमा में हमने सुना कि ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...’तो सिर्फ सुनते ही नहीं, यकीन भी करते हैं। हिंदी सिनेमा कभी दर्शकों के यकीन को चुनौती देने का जोखिम नहीं उठाती।