Move to Jagran APP
5/5शेष फ्री लेख

Indian Paratroopers: 1965 भारत-पाक युद्ध के बाद बनी थी स्पेशल फोर्स

हेलिकाप्टर से शत्रु के क्षेत्र में उतरने के वीडियो फुटेज रोमांचित करते हैं पर असल जिंदगी में उनकी राह बेहद जोखिमभरी होती है। ये सैनिक किन कठिन परीक्षाओं को पास करके पैराट्रूपर बनते हैं इसे दर्शाया है निर्देशक जोड़ी प्रभु असगावकर और मनिका बेरी असगावकर ने अपनी कई डाक्यूमेंट्रीज में।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 15 Jul 2022 06:19 PM (IST)
Hero Image
डाक्यूमेंट्री 'इंडियाज पैराट्रूपर्स- अर्निंग ए बैज' में स्मिता श्रीवास्तव का आलेख...

स्मिता श्रीवास्तव। हिंदी सिनेमा में भारतीय सैनिकों की वीरता, साहस और शौर्य पर अनेक फिल्में बनी हैं। फिल्म उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक में सैनिकों को हेलिकाप्टर से उतरते दिखाया गया था। आगामी दिनों में कार्तिक आर्यन अभिनीत कैप्टन इंडिया भी सच्ची घटना से प्रेरित है। इसमें कार्तिक पायलट की भूमिका में नजर आएंगे जो हजारों लोगों की जान बचाता है। हालांकि इन मिशन को अंजाम देने वाले असल सैनिकों को रफ एंड टफ बनने के लिए बेहद कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। निर्देशक जोड़ी प्रभु असगावकर और मनिका बेरी असगावकर ने पैराट्रूपर बनने को लेकर भारतीय सैनिकों की ट्रेनिंग पर कई डाक्यूमेंट्रीज का निर्देशन किया है। मनिका ने उसकी स्क्रिप्ट भी लिखी है। पैराट्रूपर यानी सैन्य पैराशूटर को सैन्य अभियान में पैराशूट से उतरने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। पैराट्रूपर का इस्तेमाल पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर किया गया था। पैराट्रूपर्स का उपयोग अचानक से किए जाने वाले हमलों में किया जाता है ताकि रणनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल होने वाले हवाई क्षेत्रों या पुल आदि को बंद किया जा सके।

डाक्यूमेंट्री 'इंडियाज पैराट्रूपर्स- अर्निंग ए बैज' में बताया गया है कि वर्ष 1965 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के बाद इनकी एक स्पेशल फोर्स बनाई गई जिसे नाम दिया गया पैरा कमांडोज। ये हमेशा आतंकवाद के खिलाफ जंग और बार्डर पर होने वाले खास आपरेशंस में में सबसे आगे रहते हैं। आज इन्हें पैरापर स्पेशल फोर्सेज आपरेटिव्स या सिर्फ पैरा एस एफ कहा जाता है। यह सेना के सबसे मजबूत, सबसे ज्यादा प्रशिक्षित सैनिकों में से होते हैं। दुनियाभर में पैराट्रूपर मरून रंग की बैरे (कैप) पहनते हैं जो उनके आपसी भाईचारे की निशानी है। इस बैरे को पाने के लिए फौजियों को कठिन शारीरिक और मानसिक ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है। यह सैनिक अपने सीने पर विंग ब्लेड लगाते हैं यानी बलिदान बैच। इसके हर स्क्वायड में छह सैनिक होते हैं। यह भारतीय सेना का सबसे खतरनाक लड़ाकू दल है। इनकी खासियत यह होती है कि ये छह सैनिक दुश्मन के हजारों सैनिकों से ज्यादा दमखम रखते हैं। इनकी ट्रेनिंग की

प्रक्रिया को इंडियाज पैराट्रूपर- अर्निंग ए बैज में दर्शाया गया है। इस डाक्यूमेंट्री को बनाने को लेकर मनिका बताती हैं कि मेरे पिता ब्रिगेडियर वी के बेरी पैराट्रूपर रहे हैं। उन्होंने शत्रुजीत ब्रिगेड को वर्ष 1984 में कमांड किया था। उन्हें 1971 युद्ध के बाद महावीर चक्र से नवाजा गया था। वह बचपन से मेरे हीरो रहे हैं। प्रभु भी इस विषय को लेकर रोमांचित थे।

पैराट्रूपर के सेलेक्शन की प्रक्रिया बहुत कठिन होती है। ये तभी सेलेक्ट होते हैं जब यह 90 दिनों तक चलने वाली कड़ी ट्रेनिंग को पास कर पाते हैं। यह किसी ने नहीं देखा होगा कि ट्रेनिंग के दौरान कई किमी भागना, 14 घंटे तक बिना पानी के रहना, कीचड़ में रहना, पानी में डुबो कर उनके मानसिक स्ट्रेंथ को जानने और 36 घंटे तक बिना खाए और सोए लगातार टास्क को करना होता हैं। हम चाहते थे कि हमारे देश के नौजवान देखें कि सिर्फ सेलेक्ट होने के लिए इनमें कितना जोश है। आगे प्रभु बताते हैं कि मरुन बैरे मिलने के बाद जरुरी नहीं कि यह पैराट्रूपर ही रहें। इसके बाद इन्हें आगरा स्थित हेडक्वार्टर आकर हवाई जहाज से छलांग लगाने का अभ्यास करना पड़ता है। अगर उन्होंने उसमें कामयाबी हासिल कर ली तभी वो पैराट्रूपर बनते हैं। इसके लिए सबसे पहले बैच हासिल करने की परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है। पैराट्रूपर को लेकर ही ब्रेकिंग प्वाइंट के तहत बनी डाक्यमेंट्री शत्रुजीत ब्रिगेड है। इस ब्रिगेड में सेना के बेहतरीन पैराट्रूपर शामिल होते हैं। इस ब्रिगेड की खासियत है जल्द से जल्द तैनात होना। यह ब्रिगेड हमेशा चौकन्ना रहती है। शत्रुजीतब्रिगेड का प्रतीकात्मक चिन्ह धनुष बाण थामे राजा शत्रुजीत का शरीर और उसका निचला हिस्सा बना है पौराणिक अश्व कुवल्य के शरीर से। यह प्रतीकात्मक चिन्ह शत्रुओं पर जीत का प्रतीक है। प्रभु कहते हैं पैराट्रूपर का मकसद ही यही है कि दुश्मन की सीमाओं से परे जाकर अपने लक्ष्य को अंजाम देना। यह हरदम किसी भी बुलावे के लिए तैयार रहते हैं। मिसाल के तौर पर साल 1971 में युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पैराट्रूपर को उतारा गया था। आज भी कई आपरेशंस में इनका इस्तेमाल होता है। 30 हजार फीट की ऊंचाई से हवाई जहाज से छलांग लगाने के लिए जिगरा चाहिए। मनिका आगे कहती हैं कि यह सैनिक अपने पास 30 किलो का बैग लेकर छलांग लगाते हैं जिसमें हथियार के साथ युद्ध के लिए जरूरी चीजें होती हैं। छलांग लगाने के बाद उन्हें अपने लक्ष्य पर पहुंचना होता है। यह सैन्य उपकरण और विशेष सैन्य वाहन भी यह उतारने में सक्षम होते हैं। यह सैन्य अभियान दिन में नहीं रात के अंधेरे में होते हैं। इनमें 18 से लेकर 21 साल के युवा होते हैं। यह इतनी कम उम्र में देश की इतनी जिम्मेदारी लेते हैं। देशरक्षा की खातिर यह अपनी जान को हथेली पर लेकर चलते हैं।

प्रभु कहते हैं कि अब महिलाएं भी इसमें आ रही हैं। शत्रुजीत ब्रिगेड में दो हजार से ज्यादा सैनिक होते हैं। यह बड़ी लड़ाई को अंजाम दे सकते हैं। इस डाक्यूमेंट्री में एक महिला सैन्य अफसर भी है। उनकी ट्रेनिंग भी वैसे ही होती है जैसे पुरुष सैन्यकर्मियों की। उसमें कोई रियायत नहीं होती। लड़कियां भी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर ट्रेंनिंग कर रही है। यही हम चाहते थे कि देश देखें। इस डाक्यूमेंट्री को बनाने के लिए हमें सेना की अनुमति लेनी पड़ती है। उसकी प्रक्रिया होती है। हम यह सब लाइव एक्शन शूट करते हैं। जैसे अर्निंग ए बैच में सौ किमी की दौड़ थी तो हमने उसे पूरा शूट किया। सुबह सात बजे से शूटिंग आरंभ करके रात बारह बजे तक इसे पूरा किया है। वह हमारे लिए अपनी ट्रेनिंग नहीं रोकते हैं। वही हमारे लिए सबसे बड़ा चैलेंज होता था। उसे हम कई कैमरों के साथ शूट करते हैं। ताकि किसी भी हिस्से को मिस न करें। 44 मिनट की डाक्यूमेंट्री के लिए हमारे पास काफी फुटेज होता है। भागने से पहले और आखिर में उनके साथ क्या हुआ? उनकी हालत कैसी होती है? यह सब दर्शाया है। अगर 36 घंटे की एक्सरसाइज है तो हम भी हमारा क्रू भी नहीं सोया है। हमने भी खाना नहीं खाया है। ताकि उनकी असल मेहनत को दिखा सकें। हम कुछ रीक्रिएट नहीं करते। ब्रेकिंग प्वाइंट के तहत ही अपनी तीन अन्य डाक्यूमेंट्री में हमने दिखाया है कि कैसे युवा ट्रेनी को

हेलिकाप्टर की ट्रेनिंग देते हैं? टैंक की कैसे ट्रेनिंग होती है। कितनी मेहनत होती है कितना खून पसीना बहाना पड़ता है। इसकी शूटिंग में हमारा क्रू भी दिलचस्पी रखता है। हमारे कैमरामैन करीब बीस साल से हमारे साथ काम कर रहे हैं। वे काम में प्रशिक्षित हैं। वे सुबह चार बजे से रात के बारह बजे तक काम हो या 36 घंटे बिना झिझक के करते हैं।