इधर ओटीटी पर ट्रेंडिंग कोर्ट रूम ड्रामा फिल्म नीरू में न्याय पाने की जंग लड़ती नेत्रहीन लड़की की कहानी रोमांचित करती है, तो तीन दशक पहले बनी फिल्म दामिनी का संवाद तारीख पे तारीख... आज भी दर्शकों को याद है। न्याय पाने की लड़ाई जितनी जटिल होती है, उतना ही चुनौतीपूर्ण है कोर्ट रूम ड्रामा फिल्मों का निर्माण।
मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता हूं....कहते गवाह हों या फिर या ऑर्डर ऑर्डर कहते न्यायाधीश, इन्हें आपने कोर्ट रूम आधारित फिल्मों में बहुत बार देखा होगा।
करीब तीन दशक पहले आई फिल्म मेरी जंग में वकील बने अनिल कपूर मुवक्किल को निर्दोष साबित करने के लिए जब दवा पी जाते हैं तो दर्शकों की सांसें अटक जाती हैं। वहीं दामिनी में नौकरानी को इंसाफ दिलाने की लड़ाई लड़ रही दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्रि) का संबल बने वकील गोविंद श्रीवास्तव (सनी देओल) अदालत में गरजते हैं तो दर्शक तालियां बजाने लगते हैं।
अब तक कोर्टरूम ड्रामा पर बनी हैं ये फिल्में
न्याय की लड़ाई में किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है? कितने दांवपेच खेलने पड़ते हैं, इस पर कानून, बात एक रात की, मोहन जोशी हाजिर हो, शाहिद, पिंक, आर्टिकल 375, सिर्फ एक बंदा काफी है, मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे, कागज, ओएमजी जैसी कई शानदार फिल्में बनी हैं।
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वहीं इन दिनों कोर्ट रूम ड्रामा फिल्म सेक्शन 84 की शूटिंग चल रही है। जॉली एलएलबी 3 और सेक्शन 108 के निर्माण की भी खबरें हैं। ओएमजी 2 के लेखक और निर्देशक अमित राय कहते हैं कि कोर्ट रूम ड्रामा इसलिए दर्शकों को पसंद आता है, क्योंकि वे जीत और हार की लड़ाई देखना चाहते हैं। ऐसी फिल्मों में हर पात्र उलझा होता है। ये आपको ऐसे स्तर पर ले जाती हैं कि रोमांच बना रहता है।
कोर्ट में वकील चिल्ला नहीं सकता- मनीष गुप्ता
वास्तविकता के निकट कोर्ट रूम को दर्शाने की हर फिल्मकार की अपनी शैली रही है। राजकुमार संतोषी निर्देशित दामिनी में जहां सनी देओल के पात्र का आक्रामक अंदाज दिखता है, वहीं अपूर्व सिंह कार्की निर्देशित सिर्फ एक बंदा काफी है में मनोज बाजपेयी का पात्र अदालत में शांत भाव से रामायण को उद्धृत करते हुए दलील पेश करता है।
अदालत के दृश्य रचने को लेकर फिल्म सेक्शन 375 के लेखक और आईपीसी 420 के निर्देशक मनीष गुप्ता कहते हैं कोर्ट रूम में कोई भी वकील चिल्ला नहीं सकता, लेकिन पहले की फिल्मों में ऐसा दिखाते थे।
कोर्ट का सम्मान बनाए रखना जरूरी
अब की फिल्मों में कोर्ट रूम वास्तविकता के करीब दिखाए जाते हैं। सेक्शन 375 हो या आईपीसी 420, दोनों में हमने हूबहू वैसा ही दिखाया है, जैसा असली कोर्ट में होता है। वहीं ओएमजी 2 में
कोर्टरूम को दर्शाने को लेकर अमित राय कहते हैं कि मैं जब शोध कर रहा था, तो उज्जैन में इतना बड़ा कठघरा देखा था कि उसमें 20 लोगों को खड़ा किया जा सकता था, वैसा ही हमने फिल्म में रखा।
फिल्म में हमने शहरी कोर्ट दिखाया है। प्रयागराज में पुराने वास्तुशिल्प की इमारत ने मुझे आकर्षित किया था, जिसमें कोर्ट है। मैंने फिल्म में खुली कचहरी भी लगाई थी। वहां अधिक सामान नहीं रखा था। मुझे डर था कि ज्यादा सजावट से लोगों को मजाक न लगे। कोर्ट का सम्मान बनाए रखना होता है।
न्यायपालिका की छवि कोर्टरूम ड्रामा के लिए फिल्मकार गहन शोध पर जोर देते हैं। मनीष कहते हैं कि सेक्शन 375 बनाने के लिए मैं करीब 160 सुनवाइयों में बैठा था। वहां से कोर्ट रूम के बारे में बहुत सारी चीजें समझ में आईं, तब जाकर मैंने फिल्म लिखी थी। आईपीसी 420 के लिए भी मैं बहुत सारी सुनवाइयों में गया था।
सेंसर बोर्ड भी रहता है सतर्क
जब हम गहन शोध के साथ दर्शकों के सामने कुछ प्रस्तुत करते हैं तो उनका भरोसा बढ़ता है। कोर्ट रूम ड्रामा से जुड़ी चीजें न्यायपालिका को प्रदर्शित करती हैं। ऐसे में सेंसर बोर्ड सतर्क रहता है कि फिल्मों में न्यायपालिका की छवि के साथ खिलवाड़ ना किया गया हो।कोर्ट रूम ड्रामा दिखाना पेचीदा काम है। अगर आप गलती करेंगे तो मुकदमा हो सकता है और फिल्म का प्रदर्शन अटक जाएगा। इस तरह की फिल्मों के लेखन व निर्देशन के लिए कानून की समझ होना आवश्यक है।
फिल्म का संवाद दमदार होना चाहिए
दमदार संवाद लिखने वाले अमित कहते हैं कि संवाद कोर्ट रूम ड्रामा का सबसे अहम हिस्सा होते हैं। किस तरह से उसे प्रस्तुत किया जा रहा है, मतलब, कटाक्ष है या सिस्टम के विरोध में है, उससे बहुत फर्क पड़ता है।मुझे जिस कोर्ट रूम ड्रामा ने प्रभावित किया था, वह विश्वनाथ फिल्म थी। उसमें फिल्म की शुरुआत ही कोर्ट से होती है, जहां वकील विश्वनाथ की प्रतीक्षा हो रही होती है। वह आकर संवाद बोलते हैं कि जली को आग कहते हैं...।
संवाद दमदार होना चाहिए ताकि बात जेहन में बैठ जाए। दामिनी की तारीख पे तारीख संवाद यादगार है। ओएमजी 2 के संवाद लिखने में काफी वक्त लगा था। फिल्म में कोई खलनायक नहीं था। यामी गौतम समाज का सत्य प्रस्तुत कर रही हैं, वहीं पंकज त्रिपाठी उसके आदर्श रूप की बात कर रहे हैं। कोर्ट रूम ड्रामा की फिल्में मनोरंजन के साथ विमर्श का भी माध्यम बनती हैं।
सामाजिक मुद्दों की बात
सेक्शन 375 में वकील बनीं रिचा चड्ढा कहती हैं कि अधिकांश कोर्ट रूम ड्रामा सामाजिक मुद्दों की बात करते हैं। जब बहस के तौर पर कोर्ट में उस पर बात होती है, तो ऐसी फिल्मों से फर्क पड़ता है। ये फिल्में मनोरंजन के साथ काफी कुछ सिखा जाती हैं। जब पिंक फिल्म में अमिताभ बच्चन कहते हैं कि नो का मतलब सिर्फ नो होता है, तो लोगों पर उसका प्रभाव पड़ता है।
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