'मुगल ए आजम' में दिखे थे सोने के श्रीकृष्ण, फिल्म के लिए के.आसिफ ने दिन-रात कर दिया था एक, तनातनी के बीच हुई थी शूटिंग
वे सिनेमा के उस काल में परिपूर्णता का प्रतिबिंब थे जब ऐसा कोई सोचता भी नहीं था। यह निर्देशक करीम आसिफ उर्फ के. आसिफ का परिपूर्णतावादी सोच ही था जिसने ‘मुगल ए आजम’ को केवल एक फिल्म नहीं बल्कि शाहकार बना दिया। यह फिल्म आज के जमाने में बनने वाली फिल्मों के बीच भी हिट है। के. आसिफ की जन्मतिथि (14 जून) पर अनंत विजय का आलेख...
अनंत विजय, मुंबई। उत्तर प्रदेश के इटावा में पैदा हुए। अपने मामू नसीर अहमद खान के साथ 17 बरस की उम्र में बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंचे। नसीर खान अपने समय के जाने-माने फिल्म निर्माता-निर्देशक थे। कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था। करीम आसिफ अपने मामू के साथ बॉम्बे पहुंचते हैं, तो वहां कुछ समय के लिए एक फिल्म कंपनी में सिलाई का काम करते हैं। इसी दौर में वो करीम आसिफ से के.आसिफ हो जाते हैं। उन्होंने अपने जीवन में दो ही फिल्में निर्देशित कीं, ‘फूल’ और ‘मुगल ए आजम’।
'मुगल ए आजम' को बनने में लगे 10 साल
फिल्म ‘फूल’ सफल रही। दूसरी ने तो इतिहास ही रच दिया। इस बात की चर्चा होती है कि के. आसिफ ने ‘मुगल ए आजम’ के निर्माण में 10 वर्ष लगा दिए। फिल्म पर होने वाले खर्च को लेकर निर्माता और निर्देशक के बीच मतभेद के कारण काम रुक जाता था। फिल्म की भव्यता को लेकर के. आसिफ छोटे से छोटा समझौता भी नहीं करना चाहते थे। ये कम ज्ञात है कि के. आसिफ ने पहले भी ‘मुगल ए आजम’ के नाम से फिल्म बनाने का असफल प्रयास किया था।
मधुबाला और पृथ्वीराज नहीं थे 'मुगल ए आजम' के लिए पहली पसंद
पहली बार के. आसिफ ने सिराज अली हाकिम को अपनी फिल्म में पैसा लगाने के लिए राजी किया था। हाकिम बॉम्बे के बेहद धनवान व्यक्ति थे। 1946 में ही के. आसिफ की फिल्म ‘मुगल ए आजम’ फ्लोर पर चली गई थी। यह जानना दिलचस्प है कि ‘मुगल ए आजम’ में अनारकली की भूमिका के लिए मधुबाला निर्देशक के. आसिफ की पहली पसंद नहीं थीं। न ही बादशाह अकबर के लिए पृथ्वीराज कपूर और शहजादे सलीम के लिए दिलीप कुमार। अगर के. आसिफ की मूल परिकल्पना साकार होती, तो अकबर की भूमिका चंग्रमोहन निभाते और सलीम की सप्रू। अनारकली के रूप में आज हम नर्गिस को देख रहे होते। नियति को कुछ और ही मंजूर था।
निवेशक हिंदुस्तान छोड़कर जाने को थे तैयार
फिल्म एक चौथाई शूट हो चुकी थी। अचानक चंद्रमोहन का निधन हो गया। सब कुछ रुक गया। देश का विभाजन हो चुका था। विभाजन का प्रभाव इस फिल्म के निर्माण पर भी पड़ा। फिल्म के फाइनेंसर सिराज अली हाकिमपाकिस्तान जाने की तैयारी करने लगे। एक दिन के. आसिफ को सूचना मिली कि हाकिम साहब हिंदुस्तान छोड़कर जा रहे हैं और वो फिल्म में निवेश नहीं कर पाएंगे। फिल्म रुक गई। कोई भी निवेशक फिल्म में के. आसिफ के खर्चे उठाने को तैयार नहीं हो रहा था। उन्होंने काफी कोशिश की मगर सफलता नहीं मिल पाई। दो वर्ष बाद उनको बॉम्बे के बड़े बिल्डर पिता-पुत्र शोपोरजी-पालोनजी मिस्त्री का साथ मिला। फिल्म नए सिरे से बनाने की योजना बनी। दुर्गा खोटे को छोड़कर पूरी स्टार कास्ट बदल दी गई। उसके बाद की कहानी इतिहास में दर्ज है।