एक्टिंग से लेकर राजनीति तक, Kangana Ranaut ने फ्यूचर प्लानिंग को लेकर कट टू कट की बात
एक्ट्रेस और सांसद कंगना रनौत (Kangana Ranaut) इन दिनों फिल्म इमरजेंसी (Emergency) को लेकर लगातार सुर्खियां बटोर रही हैं। हाल ही में कंगना ने जागरण संवादी के मंच पर शिरकत की और इस दौरान कई अहम पहलूओं पर खुलकर बात की। इसके साथ-साथ अभिनेत्री ने फिल्मी करियर और राजनीति करियर में फ्यूचर प्लानिंग के बारे में भी चर्चा की है।
यतींद्र मिश्र, नई दिल्ली। दर्द और अपमान उस लड़की को विद्रोह की राह पर तो ले गया, मगर वहां भी वह चमकी सितारे की तरह। सिनेमा के पर्दे पर दिखी तो चार बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता और राजनीति में उतरी तो जीता जनता का दिल। नई दिल्ली में आयोजित जागरण संवादी में अभिनेत्री और सांसद कंगना रनौत (Kangana Ranaut) से यतीन्द्र मिश्र संग कुछ खास पहलूओं पर खुलकर बात की।
किसी बड़े फिल्मकार ने कहा है कि कैमरे के भीतर जो है वो सिनेमा है और कैमरे के बाहर जो है वो जीवन है। कैमरे की जो जिंदगी पीछे छोड़ आईं हैं, क्या उसकी कमी महसूस करती हैं? जिस कंगना से युवा प्रेरित होते हैं और जो अपनी बेबाकी के लिए जानी जाती हैं।
मैंने बहुत छोटी उम्र में घर छोड़ दिया था। वो तो बचपन की आयु थी, क्या इस उम्र में मैं उसको याद कर उसकी कमी महसूस करती हूं, शायद नहीं। हालांकि कई बार मैं अपनी उन मित्रों को मिलती हूं। हमेशा नहीं, लेकिन कई बार जब मेरी जिंदगी में कुछ परेशानियां चल रही होती हैं और मैं अपनी उन मित्रों को देखती हूं जो शादीशुदा हैं, जिनके बच्चे हैं, एक सुरक्षित पारिवारिक माहौल में वे दिखती हैं, तो लगता है कि अगर मैंने उनसे अलग चलने का चयन ना किया होता तो जिंदगी कैसी होती।
ये भी पढ़ें- Kangana Ranaut ने छोटे भाई को शादी पर किया चंडीगढ़ में आलीशान घर गिफ्ट, अंदर का नजारा देख नहीं हटेंगी नजरें
सिनेमा में आप आईं, खासकर शुरुआती फिल्में ‘फैशन’, ‘गैंगस्टर’, ‘वंस अपान ए टाइम इन मुंबई’...उनमें एक बिगड़ी, नशे में डूबी, थोड़ी सी परेशान लड़की के पात्रों में आपने जान डाल दी। ‘फैशन’ के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। लोगों को लगा कि हमारे घर, पास पड़ोस, समाज में कोई लड़की जो परेशानियों से जूझ रही है, गलत सोहबत में पड़ गई है, वो बिल्कुल वैसी ही होगी जैसे पात्र आपने निभाए। उन पात्रों को आपने कितना अन्य लोगों से आत्मसात किया और कितना स्वयं से निभाया?
यह हैरानी की बात है, पर सच है कि मैं बचपन से ही गाने सुनते या साहित्य पढ़ते हुए दर्द के भावों में खो जाती थी। नौ-10 साल की आयु में गालिब की शायरी मेरी पसंदीदा थीं। लोग टोकते थे, कहते थे कि तुम्हें क्या गम है। कक्षा पांच-सात में पढ़ने वाला बच्चा सामान्यत: ऐसा मिजाज नहीं रखता, पर मुझे अच्छा लगता था। मैं भी कविताएं लिखती थी। दर्दभरे गाने मुझे बहुत अच्छे लगते थे। मेरे निर्देशक ने भी कहा कि तुम्हारे चेहरे पर दर्द की छाया दिखती थी, जबकि मैं उस समय किशोरावस्था में थी।उस समय तक ऐसा कोई हादसा भी नहीं हुआ था। आराम की जिंदगी थी। हां, करियर में संघर्ष था, काम नहीं मिल रहा था, पर वो एक अलग बात है। दर्दभरे पात्रों से हमेशा मुझे लगाव था, वे मुझे आकर्षित करते थे। मैंने उन पात्रों के लिए किसी से प्रेरणा नहीं ली और ना ही किसी को कापी किया। नशे में डूबी लड़की के पात्र में यही दिखाने का प्रयास किया कि आप उन्हें जज न करें, बल्कि उनसे जुड़ाव महसूस करें।
जो लड़की बचपन में गालिब को पढ़ती है, वही कालेज के दिनों में ओशो को पढ़ती है। ओशो तो लोगों को संकीर्ण विचारों से मुक्त करते हैं, तो यहां विरोधाभास महसूस नहीं होता?
मेरे व्यक्तित्व को आकार देने में ओशो की भूमिका है। ओशो को भी मैं बचपन में पढ़ती थी। सांसारिक चीजों को लेकर उनका दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे भ्रमों से मुक्त होने की बात करते हैं। दुनिया की सच्चाई, रिश्तों के सच, परिवर्तनशील जीवन से वह रूबरू कराते हैं। रिश्तों में भी लेनदेन होता है। प्रेम नहीं बदलता, लेकिन आपके प्रदर्शन के आधार पर प्रतिफल तय होता है। जब आप बचपन से ये सब पढ़ने और जानने का प्रयास करने लगते हैं तो व्यक्तित्व में भी उसकी झलक दिखती है। जब मैं अभिनेत्री बनी तो मेरी पसंदीदा फिल्म थी ‘प्यासा’। उसमें दर्द का चित्रण अलग था। यह प्यार-मोहब्बत के दर्द से अलग था। यह जीवन के परिवर्तनों के बारे में था, तो बचपन से ही मेरा मिजाज एक विचारक की तरह था।अगर ‘प्यासा’ का रीमेक बने तो माला सिन्हा बनना चाहेंगी या वहीदा रहमान का पात्र निभाना पसंद करेंगी?
वहीदा रहमान जी का पात्र मुझे अधिक आकर्षित करता है।अपने भीतर इतना साहस कहां से लाती हैं?
ऐसा नहीं है कि मैं कुछ सोचकर करती हूं कि ये साहसी करना है। जब लोग मुझे देखते हैं और किसी बात के लिए तारीफ करते हैं तो मैं भी सोच में पड़ जाती हूं कि वाकई ऐसा कुछ था क्या। परवरिश में कुछ पहाड़ों का भोलापन था और मैं भी कुछ बहती धारा की तरह थी। वो कहते हैं ना कि कुछ दुनिया खराब थी और उत्तर देने में हम भी कम नहीं थे।एक ओर आप ऐसी फिल्में कर रही थीं जिनसे नित नई सफलता मिल रही थी, जैसे ‘फैशन’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘क्वीन’...। आप वैसी फिल्में करना जारी रख सकती थीं, फिर अचानक से ‘मणिकर्णिका’ जैसी फिल्मों की ओर क्यों मुड़ गईं। नई चुनौतियां स्वीकार करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
मैं ऐसी अभिनेत्री नहीं हूं जो पात्रों में बंधी हुई है। ये सच है कि ‘क्वीन’ और ‘तनु वेड्स मनु’ के बाद वैसी भूमिकाओं की बाढ़ सी आ गई थी। बहुत से लोग उस सुरक्षित जोन में रहना पसंद करते हैं, पर मैं एक जैसे काम नहीं करना चाहती थी। मैं एक जैसे काम के चक्र को तोड़ना चाहती थी। ‘मणिकर्णिका’ करने के बाद मैंने सोचा कि अब निर्देशन करती हूं। अलग तरह के पात्र निभाए। फिल्म निर्माण को आगे बढ़ाया। मैं स्वयं को चुनौतियां देना चाहती थी।शुरू से ही आप में विद्रोही तेवर रहे। घर से भागकर मुंबई आना और फिल्मों में जगह बनाने की कोशिश करना।
यहां पर मैं सुधार करना चाहूंगी। विद्रोही स्वभाव रहा है, पर मैं घर से बिना बताए नहीं निकली थी। पिता और परिवार के सामने मैंने अपनी इच्छाएं बताईं। वो नहीं चाहते थे कि मैं पढ़ाई छोड़कर ऐसा कुछ करूं। उन्होंने काफी समझाया मुझे, पर मेरा निर्णय नहीं बदला। अंतत: पापा ने ये सोचकर मुझे जाने दिया कि कुछ समय में दुनिया का सच्चाई समझने के बाद मैं उनके पास वापस आ जाऊंगी, पर ऐसा हुआ नहीं। मैंने अपने लिए रास्ता बना लिया।आप एक समय पर परिवार की आज्ञाकारी बेटी कहलाती थीं, पर अचानक ऐसा क्या हुआ कि अपने लिए एकदम अलग मार्ग चुन लिया?
बहुत सारे कारण थे। मैं बहुत अधिक संवेदनशील थी। मैं आज्ञाकारी संतान थी, लेकिन जब बाहर पढ़ने गई तो उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई, तो उसका उलाहना मिलता था। मां-बाप कई बार अनचाहे ही ऐसा कर देते थे। हिंदी माध्यम से अंग्रेजी माध्यम में जाना, बहुत बड़ा कैंपस था स्कूल का, तो मैं वहां सामंजस्य नहीं बिठा पाई, लेकिन वहां से निकलकर अपने गांव वापस भी नहीं जाना चाहती थी। कम नंबर आने के लिए मुझे परिवार में लोग सुनाते थे, पर दूसरी ओर मेरा झुकाव परफार्मिंग आर्ट की तरफ बढ़ता जा रहा था। बचपन से ही ऐसा था कि घर में कोई आता तो परिवारवाले गर्व के साथ मुझे सबसे मिलाते थे, मुझे कुछ अच्छा गाने या परफार्म करने के लिए बोला जाता था। खूब तारीफ मिलती थी, मुझे भी ऐसा लगता था कि मैं कुछ अच्छा करूंगी जीवन में, पर दूसरा पहलू ये था कि पढ़ाई में पीछे रहने के कारण परिवार से ही अपमानित होती थी।अंतत: मैंने घर में कहा भी कि मुझे आर्ट में जाना है, पर सबने कहा कि इतना पैसा खर्च करके तुम्हें वही सिलाई-बुनाई करनी है, तो मेरे पास कुछ खोने के लिए नहीं था। मेरी जो रूममेट थीं बोनडिना, वह मणिपुर से थीं, वह आज पीएचडी हैं, कवयित्री हैं, मणिपुर की बड़ी आर्टिस्ट हैं। उन्हें देखकर कला की तरफ मेरा झुकाव व उत्साह बढ़ता जा रहा था। अंतत: मैंने निर्णय लिया कि अपने चुने हुए मार्ग पर आगे बढ़ना है।युवा आपकी बातों से प्रेरित होते हैं, उन्हें पढ़ाई और करियर को लेकर क्या संदेश देना चाहेंगी?
मैं यहां जोड़ना चाहूंगी कि मैंने पढ़ाई से ब्रेक लिया था, पर उसकी अहमियत को हमेशा महसूस किया। मैंने स्वयं के परिष्कार पर ध्यान दिया। दर्शन, कला, विज्ञान से लेकर विभिन्न विषयों में अपनी जानकारी को बढ़ाया। न्यू यार्क फिल्म अकादमी से लेखन का कोर्स किया।रामकृष्ण मठ का पुस्तकालय मुंबई में बांद्रा स्थित मेरे घर से नजदीक है। वहां पर जाकर मैं सारा दिन बैठकर सिर्फ पढ़ती थी। मैंने क्वांटम फिजिक्स, फिजिक्स से लेकर बायोलाजी तक की किताबों का अध्ययन किया। ये क्रम करीब 10 वर्ष तक चला। तो पढ़ाई का महत्व हमेशा है। मैंने स्कूल छोड़ने के बाद भी इतनी पढ़ाई की है, जितना अगर ग्रेजुएशन करती तो उसमें भी उससे कम ही पढ़ना पड़ता।अगर आपको लगता है कि कंगना सिर्फ दसवीं पास हैं तो ऐसा भी नहीं है। पढ़ाई का महत्व व्यक्तित्व को आकार देने में है। आप किताबों के माध्यम से अपने व अन्य लोगों के अनुभवों से स्वयं को समृद्ध करते हैं। ये बेहद जरूरी है।पर्दे पर कौन सा चरित्र निभाना आपके लिए सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण रहा? जिसके लिए आपको काफी तैयारी करनी पड़ी?
‘इमरजेंसी’ फिल्म में इंदिरा गांधी का चरित्र निभाने की चुनौती बड़ी थी। वह परिपक्व महिला थीं। खासकर उनके निजी व्यक्तित्व का वह हिस्सा दिखाना, जिसमें उनकी ममता दिखती है। बेटे संजय गांधी से वह बहुत प्यार करती थीं, उनके साथ फ्रेंड्ली भी थीं, ऐसे में संजय गांधी की मृत्यु को जब उन्हें देखना पड़ा तो उनकी प्रतिक्रिया व भावनाओं को दिखाना सबसे कठिन था।‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में दत्तो का पात्र भी कठिन था। हरियाणवी बोलचाल में खरा उतरना भी चुनौती रही। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें लांग जंप करना था और मनु जी यानी माधवन जी के ऊपर गिरना था, टकराना। दृश्य था कि माधवन को तो चोट लगी नहीं, पर मेरी एड़ी मुड़ गई।आपने ‘मणिकर्णिका’ निर्देशित की, जबकि 1953 में सोहराब मोदी झांसी की रानी पर अभिनेत्री मेहताब को लेकर फिल्म बना चुके थे। फिल्म बहुत सुपरहिट हुई थी। ओटीटी और टीवी चैनलों पर भी झांसी की रानी की कहानियां दिखाई गईं। क्या उनमें कोई कमी लगती थी, जिस वजह से आपको लगा कि मुझे झांसी की रानी का चरित्र निभाना है, अपने प्रोडक्शन हाउस तले फिल्म बनानी व निर्देशित करनी है?आपने जिसका जिक्र किया, वह उत्कृष्ट रही होगी। झांसी की रानी की लोकप्रियता बहुत है। हालांकि ये भी है कि कई वारियर क्वींस हुई हैं। मैं मानती हूं कि हर पीढ़ी को अपनी कहानी चाहिए। इस फिल्म को भी 10-15 या 20 वर्ष हो जाएंगे, नई पीढ़ी आएगी, तो उनके लिए फिर से ये रेलिवेंट नहीं रहेगी।ये टेंपरामेंट की बात है। ‘मुगल-ए-आजम’ एक दौर की बेहतरीन सुपरहिट फिल्म है, पर आज के बच्चे उसे देखना पसंद नहीं करते, तो एक पीढ़ी के लिए कहानियां बनाना और दिखाना जरूरी होता है। नई पीढ़ी के सामने देश विकास के पथ पर अग्रसर है, पर स्वतंत्रता के लिए कितने संघर्ष करने पड़े, इसका भान कराना भी जरूरी है। जो हिंदी भाषी पीढ़ी है, उनमें देश, धर्म और संस्कारों को लेकर इतनी इंटीग्रिटी है। यही देश का भविष्य हैं।आपकी फिल्म है ‘वंस अपान ए टाइम इन मुंबई’। उसमें आपका पात्र बहुत सुंदर तरीके से उभरता है, उसे करने का अनुभव और उस पात्र में उतरना कैसा रहा। वह भी पीरियड फिल्म है।
मिलन लूथरिया ने पिछली सदी के सातवें दशक को बखूबी दिखाया। हमने देखी हैं, उस दौर की फिल्में। जब बहुत सारे पात्र एक फिल्म में होते हैं तो उसे करते समय आपको सिर्फ अपने पात्र का पता होता है। जब पूरी फिल्म देखते हैं तो हैरानी होती है कि अरे वाह ये ऐसी बनी है। मुझे बताया गया था कि मेरे पात्र में इतने शेड्स होंगे। मैंने काफी मेहनत की थी।जब पूरी फिल्म देखी तो सुखद अनुभव था। दाऊद और हाजी मस्तान के पात्र थे, जिनके बारे में सुना था। एक टाइम पर माफिया की कितनी दहशत रहती थी। हम लोग तो बड़े अच्छे समय में हैं। मूवी माफिया को लेकर हमें इतनी परेशानी होती है, तो सोचिए एक समय पर जब सच में माफिया का दौर था। अगर आपके पास डेट्स नहीं, फिल्म के अमाउंट पर सहमत नहीं हो रहे हैं, तो सीधे दुबई से फोन आता था। अविश्वसनीय लगता है। सोचिए क्या दौर होगा वो।एक सवाल थोड़ा अलग है। अगर आपको ऐसा वरदान मिल जाए कि किसी फिल्मकार को जीवित कर सकें। वो आएं और आपको लेकर फिल्म बनाएं तो किसे जीवित करना चाहेंगी। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक सहित तमाम श्रेष्ठ निर्देशक हैं।
गुरुदत्त और फिल्म होगी ‘कागज के फूल’। उनसे बेहतर फिल्म निर्देशक हमारी फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में हुआ ही नहीं। उनकी फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ भी मेरी पसंदीदा है। आजकल की कामेडी फिल्में कैरीकेचिश हो गई हैं, पर याद कीजिए कि क्या कमाल की कामेडी बनाते थे गुरुदत्त। उनका अभिनय हो या निर्देशन, सभी कुछ लाजवाब था।‘प्यासा’ का वह दृश्य याद कीजिए, जिसमें वह चलते हैं और शैडो पड़ती है, बेहतरीन है।फिल्मों के कुछ कालजयी पात्र हैं, ‘गाइड’ में वहीदा जी अभिनीत रोजी, ‘मदर इंडिया’ में नरगिस अभिनीत राधा, ‘पाकीजा’ में मीना कुमारी अभिनीत साहबजान, ‘बंदिनी’ में नूतन द्वारा निभाया कल्याणी का पात्र। आप चाहेंगी कि इनमें कोई पात्र व कहानी का रीमेक बने और आप उसे निभाना चाहती हों?मेरा सबसे पसंदीदा है ‘मदर इंडिया’ में नरगिस द्वारा निभाया पात्र।मैंने ऐसे कई पात्र किए हैं। ‘गाइड’ में वहीदा रहमान जी अभिनीत रोजी का पात्र है वो अलग है। वुमन जस्ट नीड टू ब्रेक फ्री फ्राम एवरीथिंग। फ्राम द मैरिजेस, हसबैंड, लव, एवरीथिंग। सामाजिक रूढ़ियों, मानकों से मुक्त होकर जिंदगी जीने और मन की उड़ान भरने की चाह रखती स्त्री का वह चरित्र था। देव आनंद जी के पात्र को वह आकर्षित करता है।मोह-माया से आगे सांसारिक चीजों से मुक्ति की राह पर उनके कदम बढ़ते हैं। मैं अपने लेखक मित्रों को बोलती हूं कि लोग ऐसी कहानियों के लिए तैयार हैं। हमारे युवा आगे की सोचते हैं और मोह-माया से आगे सत्य तो एक ही है और वह हैं श्रीराम। ये एक चिंतन है, फिल्मों में इन चीजों का भी चित्रण होना चाहिए। ‘गाइड’ बेहतरीन फिल्म है, आज के दौर में वह बननी चाहिए। बाकी ‘मदर इंडिया’ देखिए, ‘इमरजेंसी’ देखिए, हो सकता है वो आपको याद आ जाए।अपनी शुरुआती फिल्मों में आपने दुख में डूबे पात्र निभाए। सराहना भी मिली। आप गालिब को पढ़ती थीं, पर ‘क्वीन’ व ‘तनु वेड्स मनु’ जैसी फिल्मों में शोख-चंचल पात्र भी निभाए। पुराने दौर की अभिनेत्रियों मधुबाला, आशा पारेख, दीप्ति नवल, परवीन बाबी की फिल्मों व पात्रों में अभिनय के ये रंग दिखते हैं। भविष्य में जब आपके अभिनय व फिल्मों की चर्चा होगी तो आपको इन अभिनेत्रियों के समांतर खड़ा किया जाएगा।मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती हूं कि मैंने नए निर्देशकों के साथ काम किया। जब ‘क्वीन’ व ‘तनु वेड्स मनु’ बनीं तो उस समय इनके निर्देशक नए थे, लेकिन जिस दौर और फिल्मों की आपने बात की, उस तरह की रचनात्मकता आज के दौर में नहीं दिखती। उस कमी को महसूस करने की वजह से मैं निर्देशन में उतरी। मैं युवाओं को कहना चाहूंगी कि अभिनय से इतर भी फिल्म निर्माण में बहुत विधाएं हैं, जिनमें आप रचनात्मकता दिखाने के साथ संतुष्टि पा सकते हैं। नए सोच के साथ फिल्म निर्माण समय की मांग भी है। युवा नए सोच के साथ फिल्म निर्माण में आएंगे तो इंडस्ट्री समृद्ध होगी।आप फिल्म निर्माण व निर्देशन में उतरीं। क्या यह रचनात्मकता प्रकट करने की चाह थी या भाई-भतीजावाद के प्रति उठाया गया कदम था? या दोनों का मिलाजुला मामला था?
मैंने देखा है कि निर्माता अक्सर अपनी ही बात आगे रखते हैं। वे निर्देशकों को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। मैं निर्देशन में जब उतरी तो निर्माताओं का वह दबाव नहीं लेना चाहती थी, इसलिए निर्माता भी बन गई। उसके लिए मैंने अपना घर गिरवी रखकर धन जुटाया, तो धन के मामले में मैं उतना सूझबूझ से नहीं चली, पर फिल्म निर्देशन मेरी पसंद का विषय था।‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ का एक गाना है, मैं घनी बावली हो गई...इसमें कहीं रियल कंगना रनौत हैं क्या?
जो हमें समझ नहीं आता उसे हम बावली कहकर खारिज कर देते हैं। मुझे लगता है कि यह किसी के साथ अन्याय करना है। मैं फिल्म इंडस्ट्री के बारे में जो कहती हूं, जिस तरह से कहती हूं, वो मेरा अनुभव है। वो बातें उन्हें कड़वी लग सकती हैं। हो सकता है कि जो फिल्मी परिवार हैं, जिनकी संतानों को इंडस्ट्री में सुरक्षित माहौल मिलता है, वे मेरी बातों से इत्तेफाक ना रखें, पर इसका मतलब ये नहीं कि मेरी बातों को खारिज कर दिया जाए। मुझे भी अपनी बात रखने का हक है।