Majrooh Sultanpuri: पेशे से हकीम और तबीयत से शायर थे मजरूह सुल्तानपुरी, जवाहर लाल नेहरू के कारण हुई थी 2 साल की जेल
मजरूह सुल्तानपुरी के अलावा अब तक शायद ही कोई फिल्मी गीतकार हो जिसका अदब में इतना ऊंचा मुकाम हो या अदब में शायद ही ऐसा कोई शायर या कवि हो जिसे फिल्म की दुनिया में इतना नाम मिला हो।
By Ruchi VajpayeeEdited By: Updated: Sun, 22 May 2022 12:45 PM (IST)
मुंबई ब्यूरो। मजरूह सुल्तानपुरी, विद्रोही शायर होने के साथ ही प्रेम और सौंदर्य के सुकुमार गीतकार भी थे। वैसे तो उनका नाम असरार उल हसन खान था, लेकिन बतौर गीतकार-शायर प्रसिद्धि मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से मिली। एक अक्टूबर, 1919 को सुल्तानपुर के पड़ोसी जिले आजमगढ़ के निजामाबाद गांव में जन्मे मजरूह साहब के पिता सब-इंस्पेक्टर थे। सुल्तानपुर शहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर गांव गंजेहडी के रहने वाले एक मतांतरित राजपूत परिवार में पैदा हुए मजरूह का परिवार भले ही इस्लाम अपना चुका था, लेकिन हिंदू परंपराएं छोड़ी नहीं थीं।
खून में थी आक्रामकता
ऐसा नहीं कि केवल मजरूह का ही परिवार ऐसा था। उस समय जितने भी खानजादे मुस्लिम थे, सबके यहां विवाह आदि उत्सर्व हिंदू परंपराओं के अनुसार ही मनाए जाते थे। अवध में खानजादा उन मुस्लिमों को कहा जाता है, जो इस्लाम अपनाने के पहले राजपूत थे। मुस्लिम बनने के बाद वे नाम के आगे खान लिखने लगे। मजरूह के पूर्वज बजगोती (वत्सगोत्री) ठाकुर थे। बजगोती चाहे मुस्लिम हों या हिंदू, उनका कहना है कि वे पृथ्वीराज चौहान के भाई बरियार के वंशज हैं। पृथ्वीराज की तराइन के युद्ध में हुई हार के बाद वे परिवार के साथ प्रतापगढ़ जिले में आ गए और उनके वंशज सुल्तानपुर सहित अगल-बगल के इलाकों में रहने लगे। इनमें से बहुत से शेरशाह सूरी के समय मतांतरित हो गए। राजपूतों के परिवार में जन्मे मजरूह के स्वभाव में आक्रामकता स्वाभाविक थी। इसीलिए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को भी चुनौती दे दी थी और उन्हें जेल जाना पड़ा था। खैर, जेल जाने और वहां दो वर्ष रहने के बाद भी मजरूह की आक्रामकता पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
दिल से शायर, पेशे से हकीमअवध के साथ एक विशेष बात यह थी कि यहां के शासकों ने दिल्ली के शासकों को कभी चुनौती नहीं दी। इसलिए यह क्षेत्र शांत रहा और स्वयं को सांस्कृतिक एवं साहित्यिक रूप से समृद्ध करता रहा। यही कारण रहा कि अवध से निकले लोग हिंदी फिल्म जगत पर छा गए। परदे पर दिखने वाला गांव अवध का ही होता था। मजरूह सुल्तानपुरी के साथ ही फिल्मकार मुजफ्फर अली, संगीतकार नौशाद, जोश मलिहाबादी, जां निसार अख्तर, जावेद अख्तर... बहुत लंबी धारा है। अवध की समृद्ध संस्कृति में पले-बढ़े मजरूह के गीतों में अवध की छाप होना स्वाभाविक था। शेरो -शायरी का शौक उन्हें बचपन से ही था। यह बात अलग है कि उन्होंने अपना करियर एक हकीम के रूप में शुरू किया। यूनानी पद्धति की चिकित्सा की परीक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने सुल्तानपुर शहर के पल्टन बाजार मुहल्ले में डिस्पेंसरी खोली। साथ ही मुशायरों में जाने लगे। फिर कुछ दिन बाद चिकित्सा कर्म छोड़ पूरी तरह साहित्यधर्मी बन गए। उन्हें एक मुशायरे में मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी मिल गए। जिगर ने उन्हें प्रेरित किया और तराशा भी।
मुशायरे ने बदला मुकामसब्बो सिद्दीकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था की तरफ से 1945 में मुंबई में एक मुशायरा हुआ और उसमें मजरूह सुल्तानपुरी भी आमंत्रित किए गए। उस कार्यक्रम में फिल्म निर्माता ए.आर. कारदार उनकी शायरी से प्रभावित हो गए। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव दिया तो मजरूह ने जिगर मुरादाबादी से पूछा। उन्होंने उन्हें फिल्मों के लिए गीत लिखने के लिए प्रेरित किया।
नौशाद का सुनहरा साथउस दौरान नौशाद फिल्मी दुनिया में स्थान बना चुके थे। नौशाद भी अवध (लखनऊ) के रहने वाले थे। नौशाद ने मजरूह को एक धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह ने उस धुन पर ‘गेसू बिखराए, बादल आए झूम के’ गीत लिखा। नौशाद ने उन्हें अपनी नई फिल्म के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव दिया तो मजरूह ने वर्ष 1946 में आई फिल्म ‘शाहजहां’ के लिए गीत ‘जब दिल ही टूट गया’ लिखा, जिसने धूम मचा दी। उसके बाद तो अवधी उच्चारणों से लबरेज मजरूह के गीत लोगों की जुबान पर छा गए। मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार नौशाद की जोड़ी सुपरहिट साबित हुई। उसके बाद तो बहुत से संगीतकारों ने उनके गीतों को संगीतबद्ध किया और सभी लोकप्रिय हुए। निमोनिया के कारण 80 वर्ष की आयु में 24 मई, 2000 को मजरूह का निधन हो गया।
जितने सुने गए उतने ही पढ़े गएसुल्तानपुर के मशहूर कवि डाक्टर डी.एम. मिश्र कहते हैं कि मजरूह उस दौर के शायर हैं जब फिल्मों में कवि प्रदीप लिख रहे थे, ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’, हिंदी के राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी लिख रहे थे- ‘चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर’ तो वह लिख रहे थे- ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’। याद कीजिए गांधी जी की दांडी यात्रा! बड़ा कवि और बड़ा शायर वही होता है जो भाषा के कैमरे में अपने समय और समाज की तस्वीरें खींच लेता है। इसीलिए मजरूह की ये पंक्तियां मुहावरा बन गईं। यही कारण है कि मजरूह जितने सुने जाते हैं, उतने ही पढ़े भी जाते हैं।
मजरूह के अलावा शायद ही कोई फिल्मी गीतकार हो जिसका अदब में इतना ऊंचा मुकाम हो या अदब में शायद ही ऐसा कोई शायर या कवि हो जिसे फिल्म की दुनिया में इतना नाम मिला हो। उनकी अदबी शायरी के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने इकबाल सम्मान, गालिब सम्मान, महाराष्ट्र सरकार ने संत ज्ञानेश्वर सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंदी-उर्दू साहित्य अवार्ड दिया। वहीं फिल्मजगत में अनेक सम्मानों के साथ-साथ मजरूह को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला और अंतत: वे नवाजे गए भारत सरकारके सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के से।