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Mother’s Day 2022: ‘मदर इंडिया’ से लेकर 'माई' तक ऐसे सशक्त हुई है मां, डिजिटल प्लेटफार्म से बदलता सिनेमा जगत में मांओं का स्वरूप

देश की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के पहले ही दृश्य को मातृ प्रेम के रूप में चित्रित किया गया है। यानी सिनेमा में मां की मौजूदगी पहली फिल्म से ही सुनिश्चित की गई थी। आज डिजिटल प्लेटफार्म की कई कहानियां भी मां को केंद्र में रखकर गढ़ी जा रही हैं।

By Vaishali ChandraEdited By: Updated: Sat, 07 May 2022 04:22 PM (IST)
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स्मिता श्रीवास्तव/ प्रियंका सिंह, मुंबई ब्यूरो। मां के तमाम पहलुओं को समय-समय पर बड़े पर्दे पर उकेरा गया। बाद में डिजिटल प्लेटफार्म ने मांओं का वह स्वरूप दिखाया, जिसमें नाटकीयता कम, वास्तविकता ज्यादा है। आज मातृ दिवस के मौके पर जानते हैं कैसे डिजिटल प्लेटफार्म ने बदला है मां का स्वरूप...

देश की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के पहले ही दृश्य को मातृ प्रेम के रूप में चित्रित किया गया है। यानी सिनेमा में मां की मौजूदगी पहली फिल्म से ही सुनिश्चित की गई थी। आज डिजिटल प्लेटफार्म की भी कई कहानियां हैं, जो मां को केंद्र में रखकर गढ़ी जा रही हैं। हाल में नेटफ्लिक्स पर रिलीज वेब सीरीज ‘माई’ में साक्षी तंवर व फिल्म ‘जलसा’ में विद्या बालन मां की भूमिका में नजर आईं। ‘डेल्ही क्राइम’ में पुलिस अधिकारी बनी शेफाली शाह युवा बेटी की मां के किरदार में थीं तो वहीं मंगलयान मिशन पर आधारित वेब सीरीज ‘मॉम: मिशन ओवर मार्स’ में भी विज्ञानी मांओं के अलग-अलग पहलुओं को जोड़ा गया था।

भावनाएं तो एक हैं- सुरेश त्रिवेणी

मां के इर्द-गिर्द दर्शाई जा रही इन कहानियों की संख्या बढ़ने को लेकर ‘जलसा’, ‘तुम्हारी सुलु’ फिल्म के निर्देशक और लेखक सुरेश त्रिवेणी कहते हैं, ‘बात अगर ‘मदर इंडिया’ की करें तो उसमें एक मां थी जो बेटे की गलती को माफ नहीं करती। ‘दीवार’ और ‘अग्निपथ’ में मां चाहती थी कि बेटा अच्छा इंसान बने। यह दर्शाता है कि हिंदी सिनेमा में मां का महत्व हमेशा से रहा है मगर बदलते वक्त के साथ डिजिटल प्लेटफार्म पर मां का चित्रण लगातार बदल रहा है। आज की मां बहुत सारी चुनौतियों से जूझ रही है। जिस परिवेश में हम रहते हैं, वहां यह चीजें ज्यादा बेहतर तरीके से निकलकर आ रही हैं। मुझे नहीं लगता कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है कि मार्डन मां के बारे में बात की जा रही है। मां को आप किसी भी तरह संबोधित करें, लेकिन इमोशन तो एक समान ही हैं।’

बदलाव की बयार- रवीना टंडन

पहले कहा जाता था कि उम्र का एक दायरा पार कर चुकीं अभिनेत्रियों को अब सिर्फ मां के ही किरदार मिलेंगे। डिजिटल प्लेटफार्म ने अभिनेत्रियों को मांओं वाले किरदार दिए, लेकिन उन्हें दमदार तरीके से दिखाया। अभिनेत्रियां अगर मां के किरदार में हैं, तो उनकी दुनिया घर-बच्चों के इर्द-गिर्द ही नहीं है, वह और भी सशक्त बनते हुए घर संभालती हैं। वेब सीरीज ‘अरण्यक’ में पुलिस अफसर और मां के किरदार में नजर आईं रवीना टंडन कहती हैं, ‘पहले लोग कहते थे कि 40 की उम्र की हीरोइन को रोल नहीं मिलेंगे। वो दौर अब खत्म हो गया है, जिसमें बड़ा योगदान डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का है। अब ग्लोबल सिनेमा, वेब शो, शार्ट फिल्में हर कोई देख रहा है। हमारे दर्शक भी वैश्विक हैं। अब हम प्रयोगात्मक सिनेमा और अलग-अलग तरीके की कहानियां भी कह रहे हैं। अब हमारी फिल्मों की स्टोरीटेलिंग बदल गई है। मेरी ‘शूल’, ‘मातृ’ फिल्मों को कामर्शियल सफलता मिली थी। मैंने ‘मातृ’ फिल्म के समय भी कहा था कि मैं ऐसे किरदार तलाशती हूं, जो मेरी उम्र के साथ उपयुक्त रहे व चैलेंजिंग भी हो। अब उस तरह के किरदार मेरे पास आ रहे हैं। किरदार चाहे मां का हो या पुलिस अफसर का, सशक्त तरीके से पर्दे पर पेश किया जा रहा है।’

सशक्त हुई है मां- शिखा माकन

‘अनपाज्ड: नया सफर’ एंथोलाजी वेब सीरीज में 'गोंद के लड्डू' शार्ट कहानी की निर्देशिका और लेखिका शिखा माकन कहती हैं, ‘आज के दौर में जरूरी है कि हम महिलाओं से जुड़ी वह कहानियां बारीकी से दिखाएं, जो वास्तविक हैं और पहले दिखाई नहीं गई हैं। उनकी दुनिया और सफर को सही तरीके से दर्शाना मुझे जरूरी लगा। 'गोंद के लड्डू' में मां का किरदार छोटे शहर में अकेले रहता है। उसका सर्वाइव करने का अपना एक तरीका है, एक अलग स्ट्रेंथ है। हर बार मांओं को किसी पर निर्भर या दुखी दिखाना मुझे पसंद नहीं है।’ फिल्म ‘माम’ में श्रीदेवी के किरदार ने दिखाया कि कैसे जब बेटी पर आंच आती है, तो मां बदला लेती है। ऐसा ही कुछ ‘माई’ वेब सीरीज में भी नजर आया। अभिनेत्री साक्षी तंवर ने उसमें युवा बेटी की मां का किरदार निभाया है। वह कहती हैं, ‘अब पर्दे पर मांएं दुख सहती या चुप नहीं रहती हैं। बच्चे पर अगर आंच आए, तो वह कितनी खतरनाक हो सकती है, मां के उस रूप को भी दिखाया जा रहा है। मां की जो भावनाएं हैं, वह वैश्विक होती हैं। इसीलिए ये कहानियां पसंद की जा रही हैं।’

मिथक तोड़ रहा है डिजिटल- विद्या बालन

महिला केंद्रित फिल्मों पर पैसे कम लगाना स्वाभाविक है, आखिर फिल्म निर्माण बिजनेस है। ‘इश्किया’ के हिट होने से महिला प्रधान फिल्मों को बजट मिलने में आसानी होने लगी। हालांकि बजट अब भी उतना नहीं मिलता, जितना पुरुष प्रधान फिल्मों को मिलता है, क्योंकि वहां तो सफलता का मिथक है। फर्क बहुत है, लेकिन डिजिटल प्लेटफार्म की वजह से यह मिथक टूट रहा है, क्योंकि वहां परफार्मेंस दिखाने के चांस ज्यादा हैं। ‘जलसा’ उसका बेहतरीन उदाहरण है।

अनुभवों से बनते हैं किरदार- सुरेश त्रिवेणी

मैं कुछ सोचकर नहीं लिखता। मैं मां से बहुत जुड़ा हुआ हूं, इसलिए वह सब चीजें खुद ब खुद ही आ जाती हैं। ‘जलसा’ लिखते समय मैंने विद्या बालन के किरदार के बेटे को सेरेब्रल पाल्सी (न्यूरोलाजिकल डिसआर्डर जो बच्चों की शारीरिक गति, चलने-फिरने की क्षमता को प्रभावित करता है) से पीड़ित दिखाया था। यह बात बिल्कुल सही है कि बच्चा किसी भी कंडीशन में हो, उसे अच्छी परवरिश देना हर मां के लिए चुनौती होती है। वो अंदरूनी क्वालिटी है। जब आप ऐसे मुश्किलों से जूझते किरदार लिखते हैं, तो वह और निखरकर सामने आते हैं।

अब दिखती है असल झलक- शेफाली शाह

मैं खुद फुलटाइम मां हूं। कई बार परिवार वाले भी भूल जाते हैं कि हम इंसान हैं, उन्हें लगता है हममें सुपरपावर्स हैं और हम सब कर लेंगे। ‘हैप्पी बर्थडे मम्मी जी’ फिल्म में मैं एक ऐसे किरदार में थी, जिसे जब खुद के लिए वक्त मिलता है, तो वह उसकी कीमत समझती है और सब भूलकर खुद को वक्त देती है। मां का यह पहलू भी दिखाया जाना चाहिए। शुक्र है कि डिजिटल प्लेटफार्म यह पहल कर रहा है।