Pankaj Tripathi: एक नाटक ने बदल दी पंकज त्रिपाठी की जिंदगी, अभिनेता बनने से पहले ऐसा था जिंदगी का सफर
Pankaj Tripathi पंकज त्रिपाठी नाम है जिसने इंडस्ट्री में अपना मुकाम हासिल करने के लिए रीढ़ की हड्डी सीधी करने के बराबर मेहनत की है। आज वह किसी परिचय के मोहताज नहीं रह गए हैं। उन्होंने कभी अपने संघर्ष के दिनों के बारे में बात की थी।
नई दिल्ली, जेएनएन। कहते हैं कि सिनेमा में अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए कठिनाई के लंबे रास्ते से होकर गुजरना पड़ता है। यहां तक पहुंचने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। मगर जिन्हें सिर्फ मंजिल को हासिल करने से मतलब होता है, वह अपना रास्ता खुद बना ही लेते हैं। पंकज त्रिपाठी भी उन्हीं कलाकारों में से हैं। पर्दे पर हर किरदार निभा चुके पंकज त्रिपाठी की गिनती मंझे हुए कलाकारों में होती है। चाहे कॉमेडी करके लोगों को गुदगुदाना हो या 'मिर्जापुर' के कालीन भइया बनकर अपना खौफ कायम करना हो, पंकज त्रिपाठी ने अलग श्रेणी के सभी किरदारों को बड़ी ही खूबसूरती के साथ पर्दे पर उतारा है।
जिस तरह नमक खाने को बढ़ा देता है, उसी तरह पंकज त्रिपाठी अपने अभिनय से फिल्मों का स्वाद बढ़ा देते हैं। कोई व्यक्ति अगर इस दुनिया में ठसक से गांव को साथ लेकर चल रहा है, तो वह पंकज त्रिपाठी हैं। अगर पंकज त्रिपाठी होना एक चुनौती है, तो उनके जैसा एक सभ्य कलाकार भी होना बड़ी बात है।
एक्टिंग से पहले छात्र राजनीति में आजमाया था हाथ
पंकज त्रिपाठी बड़ी ही सौम्यता के साथ अपने अभिनय को पर्दे पर निभाते हैं। लेकिन एक्टिंग करियर में आने से पहले उनकी जिंदगी भी कम फिल्मी नहीं रही। छात्र राजनीति में रूचि रखने वाले पंकज बनने तो आए थे डॉक्टर, लेकिन बन गए शेफ। होटल में चार-पांच घंटे 35 किलो आलू छीले। मीडिया हाउस से बातचीत के दौरान पंकज त्रिपाठी ने अपनी जिंदगी के कई पहलुओं पर चर्चा की।
उन्होंने कहा, 'मैं अपने गांव में कुछ दिन शाखा पर जाता था। लेकिन वहां राजनीति की ट्रेनिंग नहीं दी जाती थी। खेलकूद में हमेशा से आगे रहा। डॉक्टर की पढ़ाई करने के लिए पटना आया लेकिन पढ़ने में मन नहीं लगा तो छात्र राजनीति में आ गया। तीन-चार साल राजनीति की। मन में कुछ करने की इच्छा थी। विद्यार्थी परिषद में रहते हुए जेल भी गया। जेल जाकर देखा तो पता लगा कि यहां सामाजिक चिंता नहीं है।' उन्होंने यह भी कहा कि अब नेता का मतलब ही बदल गया है। ऐसा नहीं है कि अच्छे नेता नहीं हैं। अच्छे भी हैं तभी कुछ चीजें हैं।
नाटक देखने के बाद अभिनय की तरफ बढ़ा रुख
पंकज त्रिपाठी ने बताया कि छात्र राजनीति उनका मन हटने लगा था। उन्हें लगा कब तक अपने से बड़े नेता को सलाम- नमस्ते करते रहेंगे। यह सब चमचई है। फिर वह एक बार दोस्त के साथ 'अंधा कुआं' नाम का नाटक देखने गए। तब से ही अभिनय की तरफ झुकाव बढ़ता चला गया। मैंने सोच लिया कि मुझे यही करना है। इसमें मजा आता है। नाटक में हंसाया भी जाता है तो रुलाया भी जाता है।
1995 से 2001 में पटना में नाटक किया। पहला नाटक भीष्म सहानी की लीला नंद शाह की कहानी थी। विजय कुमार डायरेक्टर थे। उसमें चोर की भूमिका निभाई थी। लोगों को काम पसंद आया और अखबार में भी अच्छी 2-3 लाइनें लिख दीं कि मुझमें संभावना है।
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लंबा चला एक्टिंग का संघर्ष
पंकज त्रिपाठी ने बताया कि वह 16 अक्टूबर, 2004 को मुंबई आए। इसके पहले एनएसडी में भी नाटक किया था। मुंबई आने के बाद सबसे पहले प्लेटफार्म को नमस्ते किया। इसके बाद दोस्त के घर पर रहने चले गए। करीब 2 महीने तक दोस्त घर पर रहे और वहीं से सभी डायरेक्टर और प्रोड्यूसर के दफ्तर के चक्कर लगाना शुरु कर दिए। उन्होंने कहा कि वह परिवार के पहले सदस्य हैं जो इस लाइन में आए। इसलिए संघर्ष थोड़ा लंबा चला। मगर जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव में मेरे संघर्ष को और पक्का कर दिया।
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